Edited By ,Updated: 29 Dec, 2016 12:34 AM
केवल भारत ही नहीं बल्कि किसी भी आधुनिक लोकतंत्र में शायद कोई भी ऐसी राजनीतिक हस्ती नहीं जो 7 सप्ताह के नोटबंदी के संकट में मोदी की तरह जिंदा रह ...
केवल भारत ही नहीं बल्कि किसी भी आधुनिक लोकतंत्र में शायद कोई भी ऐसी राजनीतिक हस्ती नहीं जो 7 सप्ताह के नोटबंदी के संकट में मोदी की तरह जिंदा रह सकती। यदि आप एक जननेता के रूप में उनकी प्रतिभा का प्रमाण चाहते हैं तो यह इस पूरी अवधि दौरान खुल कर प्रदॢशत हुआ है।
हमें इस प्रमाण की अनदेखी करने की बजाय इसकी प्रशंसा करनी चाहिए क्योंकि हम उस हस्ती को अपनी आंखों से देख रहे हैं जो सही अर्थों में महान नेता कहलाने की हकदारहै।
हमें कुछ ऐसे संकेत मिले हैं कि सरकार शायद करंसी बदलवाने के संकट का पूर्वाभास नहीं कर पाई थी। पहला संकेत मोदी की वह प्रारंभिक घोषणा है जिसमें उन्होंने कुछ भविष्यवाणियां करते हुए कहा था कि स्थिति जल्दी ही सामान्य हो जाएगी लेकिनयह अवधारणा गलत सिद्ध हुई।
दूसरा संकेत यह है कि वह जापान की अपनी निर्धारित यात्रा पर ऐन उससमय भी निकल पड़े जब यह महसूस होना शुरू हो गया था कि नोटों की कमी अर्थव्यवस्था को कितनी बुरीतरह से प्रभावित कर रही है। जब तक वह जापान से लौटे तब तक यह स्पष्ट हो गया था कि बैंकों और ए.टी.एम्का के बाहर लगी कतारें जल्दी गायब होने वाली नहीं।
लेकिन मोदी की प्रारंभिक उद्घोषणा इतनी सशक्त और ऊर्जावान थी कि विशाल जनसमूह इसकी धारा में बहने लगा। मीडिया पूरी तरह मोदी के साथ था और आत्मविश्वास विहीन कांग्रेस ने भी इस कदम का समर्थन कर दिया। जनाधार वाले केवल दो ही नेताओं ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ने इससे संबंधित खतरों को पहचान लिया था और इसका विरोध किया था।
वास्तव में मोदी जनता के बहुत बड़े हिस्से को अपने पक्ष में सक्रिय करने में सफल हुए थे। इन लोगों में शायद करोड़ों वे लोग भी थे जिन्होंने उनके पक्ष में मतदान नहीं किया था लेकिन फिर भी उन्हें नोटबंदी की कठिनाइयों पर कोई ऐतराज नहीं था क्योंकि उन्हें इसमें बहुत बड़े बदलाव की संभावना दिखाई देती थी।
यदि कहीं मनमोहन सिंह सरकार ने नोटबंदी करने का कदम उठाया होता तो मीडिया या शहरी मध्यवर्गीय लोगों में इस प्रकार के उन्माद और उल्लास की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी बल्कि तब उनकी प्रतिक्रिया बिल्कुल ही विपरीत होती : इतनी भारी दिक्कतों में से गुजरने पर मजबूर किए जाने के कारण जनता में जबरदस्त आक्रोश भड़का होता। और यदि यह आक्रोश 7 सप्ताह तक लगातार जारी रहा होता तो शायद कोई अनहोनी हो गई होती।
शायद अब भी इस प्रकार का गुस्सा आकार ग्रहण कर रहा है क्योंकि अब यह स्पष्ट हो गया है कि नोटबंदी की समस्याएं महीनों तक बनी रहेंगी लेकिन इतने लम्बे समय तक मोदी का इन्हें झेल पाना सचमुच ही उल्लेखनीय है। उनकी प्रतिभा का दूसरा प्रमाण इस तथ्य से मिल जाता है कि वह बहुत जल्दी भांप गए कि इस नीति के नकारात्मक परिणाम उनकी उम्मीदों से कहीं अधिक बड़े हैं।
जापान से लौटने के तत्काल बाद उन्होंने 2-4 भाषण किए जिनमें उन्होंने 2 काम किए। पहले नम्बर पर तो उन्होंने समस्त भारतीयों को कहा कि उनके इरादे नेक हैं और उन्होंने अपने मिशन के लिए अपने पारिवारिक जीवन तक की बलि दी है। वैसे मोदी अपने भाषण के दौरान इस हद तक आवेश में नहीं आते कि उनकी आंखें नम हो जाएं लेकिन इन भाषणों के दौरान कुछ देर के लिए उनका गला रुंध गया। यह शायद ऐसा पल था जब उन्होंने खुद स्वीकार किया कि समस्या काफी अनियंत्रित हो गई है।
दूसरे नम्बर पर उन्होंने कहा कि 50 दिन समाप्त होने से पहले हालात सामान्य हो जाएंगे। इस कदम से उन्होंने अपने लिए कुछ और समय की गुंजाइश हासिल कर ली ताकि अपनी रणनीति को नए सिरे से गढ़ सकें। एक बार फिर उन्होंने मीडिया को अपने पक्ष में कर लिया और लोगों को दरपेश आ रही तात्कालिक समस्याओं को लेकर मचा हुआ शोर भी थम गया।
अब मोदी कुछ देर के लिए इंतजार कर सकते थे ताकि नोटबंदी का मुद्दा खुद-ब-खुद ठंडा पड़ जाए लेकिन इसकी बजाय उन्होंने स्वेच्छा से एक समयावधि प्रस्तुत कर दी ताकि विपक्ष को इस मुद्दे पर दबाव बनाने का मौका ही न मिले। 50 दिन की इस असुविधा की गुंजाइश हासिल करने के कारण ही उन्हें यह सोचने का मौका मिल गया कि नोटबंदी को नया रूप कैसे दिया जाए।
जैसा कि कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने नोट किया है मोदी की प्रारंभिक उद्घोषणा में डिजीटल अर्थव्यवस्था का कोई उल्लेख नहीं था और यह उद्घोषणा केवल काले धन, जाली करंसी और आतंकवाद के मुद्दों तक सीमित थी लेकिन जापान से लौटने और उपरोक्त भाषणों के बाद पूरा का पूरा परिदृश्य अचानक ही बदल गया और यह बदलाव केवल मोदी की प्रतिभा और विश्वसनीयता के कारण ही हो पाया है। कोई भी यह कल्पना कर सकता है कि उन्होंने अकेले ही इस मुद्दे पर मंथन किया होगा।
विपक्ष ने शोर मचाया कि नोटबंदी के लक्ष्य लगातार बदले जा रहे हैं लेकिन उन्हें यह भी समझना चाहिए कि यह किसी विश्वविद्यालय में चल रही परिचर्चा नहीं। जब तक मोदी जनता के एक बड़े वर्ग को यह समझा सकते हैं कि भाजपा की यह नीति बढिय़ा है और असुविधाएं अंततोगत्वा हितकर सिद्ध होंगी, तब तक वह ऐसा करना जारी रखेंगे। राजनीति में यह बात कोई खास महत्व नहीं रखती कि किसी नीति के कौन-कौन से विशेष लाभ होंगे।
इसके प्रमाण तो तभी मिल गए थे जब नोटबंदी के एक महीना बाद भी भाजपा ने देशभर में चुनावी सफलता के झंडे गाडऩा जारी रखा-यहां तक कि एंटी-इनकम्बैंसी से जूझ रहे पंजाब में भी। वास्तव में फिलहाल मोदी को किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा और वह अभी भी स्थिति पर पूरी तरह नियंत्रण बनाए हुए हैं और यह बहुत ही हैरानीजनक है क्योंकि नोटबंदी से लगभग प्रत्येक भारतीय बुरी तरह आहत हुआ है। कांग्रेस इस व्यापक असुविधा का राजनीतिक लाभ ले सकती थी लेकिन अब तक यह ऐसा करने में सफल नहीं हो पाई है।
बहुत से लोग सार्वजनिक रूप में नोटबंदी के विरुद्ध बोलने से झिझक रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि कई लोग उन्हें भला-बुरा कहेंगे। किसी भी भारतीय नेता ने वह उपलब्धि हासिल नहीं की है जो 8/11 से लेकर अब तक हासिल करने में मोदी सफल हुए हैं और शायद दुनिया की लोकतांत्रिक राजनीति में बहुत कम राजनीतिज्ञ ही ऐसा कर पाए होंगे।
शायद 2017 में जब 8 नवम्बर के बाद दूसरे वेतन चक्र दौरान नोटबंदी के मध्यवर्ती परिणाम प्रत्यक्ष हो जाएंगे तो स्थिति बदल जाएगी। लेकिन फिलहाल यह अवश्य ही स्वीकार किया जाना चाहिए कि अब तक प्रधानमंत्री ने यह सिद्ध करके दिखा दिया है कि वह जिस मुकाम तक पहुंचे हुए हैं वहां मात्र भाग्यवश नहीं बल्कि विशुद्ध प्रतिभा के बलबूते पहुंचे हैं क्योंकि वह जनता को न केवल अपने पक्ष में लाने बल्कि इसे वहां टिकाए रखने की विलक्षण प्रतिभा रखते हैं।