कभी-कभार दिखने वाली चीनी ‘मुस्कुराहट’

Edited By ,Updated: 11 Jul, 2020 02:27 AM

the occasional chinese smile

लद्दाख  की गलवान घाटी में पैट्रोलिंग प्वाइंट-14 (पी.पी.14) वाले  15 जून के संघर्ष वाले स्थल से भारतीय तथा चीनी सैनिकों के डेढ़ किलोमीटर पीछे हटने की प्रक्रिया एक सुखद समाचार है। मगर इसके प्रति हमें गंभीर रहना होगा। भारतीय रक्षा के विश्वसनीय सूत्र के...

लद्दाख  की गलवान घाटी में पैट्रोलिंग प्वाइंट-14 (पी.पी.14) वाले  15 जून के संघर्ष वाले स्थल से भारतीय तथा चीनी सैनिकों के डेढ़ किलोमीटर पीछे हटने की प्रक्रिया एक सुखद समाचार है। मगर इसके प्रति हमें गंभीर रहना होगा। भारतीय रक्षा के विश्वसनीय सूत्र के अनुसार यह कोई स्थायी प्रबंध नहीं हो सकता। मैं इस बात से पूरी तरह से सहमत हूं क्योंकि कम्युनिस्ट चीन का शुरू से ही रिकार्ड विस्तारवादी सत्ता के तौर पर देखा गया है। मेरा आंकलन माओ की मानसिकता के ऊपर आधारित है।

1959 में तिब्बत को कब्जाने के बाद माओ सार्वजनिक तौर पर तिब्बत की 5 उंगलियों को चीन की भविष्य की रणनीति के तौर पर बताते रहे। पांच उंगलियों की रणनीति के अनुसार माओ त्से तुंग तिब्बत को एक दाहिने हाथ की हथेली समझते रहे। इसकी परिधि पर पांच उंगलियां थीं जिसमें लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान तथा अरूणाचल प्रदेश हैं। चीन का मुख्य उद्देश्य इन क्षेत्रों पर अपना अधिकार तथा दावा करना था। 

अब माओ नहीं रहे मगर उनके उत्तराधिकारी उनकी विस्तारवादी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं जिसमें वर्तमान चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी शामिल हैं। सरकार के व्यवहार से यह स्पष्ट हो जाता है। दक्षिण चीन सागर के झगड़े में द्वीप तथा मुख्य भूमि शामिल है जिसमें पड़ोसी देश ब्रुनेई, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस तथा वियतनाम भी शामिल हैं। यह बेहद विचलित करने वाली बात है। 

1959 से लेकर भारतीय क्षेत्रों के प्रति हम चीन की योजनाओं से वाकिफ हैं। एशिया में नए स्वतंत्र राष्ट्रों के बीच भौगोलिक तौर पर पेइचिंग को और सुदृढ़ करने की बड़ी रणनीति के तहत माओ का यह सोचना था कि भारत एक सॉफ्ट टार्गेट है। बर्टेल लिंटनर ने अपनी किताब ‘चायनाज-इंडिया वार’ में कहा है कि 1959 से लेकर सीमा के आसपास हो रहे चीनी निर्माण से भारत बहुत अच्छी तरह जागरूकथा। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के खुफिया प्रमुख भोलानाथ मलिक ने बार-बार सरकार को चेताया था कि सीमा के आस-पास चीनी ढांचेहैं मगर नेहरू ने यह मानने से इंकार कर दिया कि चीन भारत के खिलाफ किसी युद्ध की तैयारी में लगा है। 

चीन आज डेंग की नीतियों द्वारा बोए गए बीजों के फल को खा रहा
माओ के बाद चीन के परिदृश्य पर डेंग शिआओपिंग उच्च नेता के तौर पर  उभर कर सामने आए। वहचीन को एक नए स्तरपर उभारने पर सफल हुएतथा वैश्विक भौगोलिक राजनीति को उन्होंने बदल दिया। कोविड-19 महामारी संकट के बाद चीन की अर्थव्यवस्था राजनीतिक, आर्थक तथा सैन्य शक्ति के साथ भयंकर स्थिति पर है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन आज डेंग की नीतियों द्वारा बोए गए बीजों के फल को खा रहा है।

चीन भरोसेमंद नहीं है 
इससे आगे की ओर देखते हुए भारतीय नेताओं को चीन की आॢथक तथा सैन्य शक्ति के साथ-साथ उसके अल्पावधि तथा लम्बी अवधि की नीतियों को ध्यान में रखना होगा। चीन को एक अच्छे दोस्त के तौर पर उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। वह भरोसेमंद नहीं हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए ‘विस्तारवादी युग’ खत्म हो चुका होगा। जैसा कि उन्होंने हाल ही में लेह के अपने भाषण में कहा था। मगर विस्तारवादी युग शायद चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिए खत्म नहीं हुआ होगा। प्रधानमंत्री मोदी की चीन की 18 यात्राओं तथा अहमदाबाद में ‘झूला कूटनीति’ ने शी जिनपिंग की मानसिकता को नहीं बदला। चीनी अब पूरी गलवान घाटी के ऊपर अपना दावा ठोक रहे हैं। यह बात पहले न थी। 

ऐसा कहा गया है कि अप्रैल 2020 में चीन ने गलवान के मुहाने पर एक पुल के निर्माण का विरोध जताया था और अब 1959 की स्थिति से परे भी वह दावा कर रहा है। उसके व्यवहार से यह स्पष्ट है कि पूरी गलवान घाटी चीन की है। दूसरा उदाहरण उत्तरी सिक्किम में नाकूला का है जहां पर चीन झगड़े  को उत्पन्न कर रहा है। वह वाटरशैड  के सिद्धांंत को नकार रहा है। तीसरा यह कि चीन नेपाल को उकसा रहा है जिससे नेपाल ङ्क्षलपुलेख क्षेत्र पर अपना दावा ठोक रहा है और नए नक्शों को प्रकाशित कर रहा है। भारत का रक्षातंत्र इन सब बातों को साधारण तौर पर नहीं ले सकता। मुझे उम्मीद है कि नेपाली नेता एक दिन चीन के विस्तारवादी शिकंजे में नहीं आएंगे। 

भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह अपने मूलभूत ढांचों का निर्माण जारी रखेगा जिससे भारतीय सेना की पहुंच रणनीतिक क्षेत्र से महत्वपूर्ण कराकोरम दर्रे तक हो जाएगी। वर्तमान में यह निर्माण करीब मुकम्मल हो चुका है। वास्तविक नियंत्रण रेखा (एल.ए.सी.) के आसपास इस परियोजना पर चीन ने आपत्ति जताई। गलवान नाला की ओर डी.एस.डी.बी.ओ. सड़क को भी हाल ही में चीनी गतिरोध का एक कारण माना जा रहा है। चीन को यह समझना चाहिए कि भारत के पास प्रत्येक अधिकार है कि वह अपने लद्दाख क्षेत्र की धरती पर कोई भी रक्षा से संबंधित निर्माण को और सशक्त करें। 

इसके विपरीत ऐसी रिपोर्ट है कि  चीन की योजना तिब्बत के साथ गिलगित-बाल्टिस्तान को एक सड़क के साथ जोडऩे की है। इससे वह भारतीय स्थिति को सियाचिन ग्लेशियर में कमजोर कर सकता है। सूत्रों के अनुसार पेइङ्क्षचग चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर (सी.पी.ई.सी.) के प्रवेश द्वार को बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। मेरा मानना है कि भारतीय नेताओं को एल.ए.सी. पर निर्माण से संबंधित चीनी हथकंडों से पूरी तरह अपना ध्यान बंटाना नहीं चाहिए। यह संदिग्ध है। कभी-कभार दिखने वाली चीनी मुस्कुराहट पर ध्यान नहीं देना चाहिए। चीन पहले से ही अपने आपको सुपर पावर के ढांचे में ढाल चुका है। 

ये सब बातें चीन के व्यवहार से पिछले कुछ दिनों से सामने आई हैं। प्रधानमंत्री मोदी को चीन से निपटने के लिए एक नई योजना को अंजाम देना होगा और देश को आॢथक तथा सैन्य तौर पर और सशक्त करना होगा। इन दोनों चीजों को उन्हें प्राथमिकता देनी होगी। पेइङ्क्षचग को उसके स्थान पर रखने के लिए भारत को आॢथक तथा सैन्य शक्ति दिखाते हुए राष्ट्र का निर्माण करना होगा।-हरिजय सिंह

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