फिलस्तीन मुद्दा अब प्रासंगिक नहीं रहा

Edited By Punjab Kesari,Updated: 09 Jul, 2017 10:36 PM

the palestine issue is no longer relevant

प्रधानमंत्री की यात्रा के परिप्रेक्ष्य में इसराईल समाचारों में है। इस ......

प्रधानमंत्री की यात्रा के परिप्रेक्ष्य में इसराईल समाचारों में है। इस संबंध में मेरी कई पुरानी यादें हैं और उम्मीद है कि यदि मैं इनको लेकर कोई जजबाती हो जाऊं तो आप मुझे क्षमा करेंगे। 1969 के अगस्त में जब एक आस्ट्रेलियाई जुनूनी ने यरुशलम की ऐतिहासिक अल-अक्सा मस्जिद में आग लगा दी तो पूरा अरब जगत दहक उठा था और इस घटना के बाद इसराईल जाने वाला मैं पहला भारतीय पत्रकार था। 

इस जमाने में भारतीय पासपोर्ट दक्षिण अफ्रीका, इसराईल व दक्षिण रोडेशिया के लिए वैध नहीं होते थे। लेकिन इन देशों की यात्रा करने के लिए आपको एक विशेष प्रावधान के अंतर्गत अलग से पासपोर्ट मिल जाता था। इसराईल के बेन गुरियन हवाई अड्डे पर मेरी जो आवभगत हुई वह 20-22 वर्ष आयु के पत्रकार के लिए किसी परी कहानी की कथाओं से कम नहीं थी। उन दिनों यरुशलम नगर पालिका की लोक सम्पर्क अधिकारी भड़शिवा हरमन थीं। वह इतनी खूबसूरत थी कि शायद उसके बाद आज तक इस नगर पालिका को इतनी खूबसूरत अफसर नहीं मिली होगी। 

मैं जितने इसराइलियों से मिला, किसी में लेश मात्र भी घमंड नहीं था। अपने-अपने किबुत्ज (सहकारी समिति) में वे बहुत मेहनत से काम करते थे और उनका जीवन सादगी भरा था लेकिन वे अत्यंत समझदार और तेज-तर्रार लोग थे। इन सहकारी समितियों में कहीं भी किसी प्रकार की असमानता दिखाई नहीं देती थी। इसराईली लोगों की सादगी के चलते यहूदी अंधराष्ट्रवाद (जायोनिज्म) की भावना हमें कोई खास रूप में दिखाई नहीं दी। हालांकि हमारे मन में यहां भारत में ही ऐसी कुंठा भर दी गई थी कि जायोनिज्म की इस भावना ने फिलस्तीनी लोगों का जीवन नरक बना रखा है। 

जे.के. गाल्बे्रथ जैसे राजदूतों ने पंडित नेहरू को अपने पांडित्य से चकाचौंध कर रखा था। लेकिन इंदिरा गांधी के दौर में कूटनयिक भाईचारे में रेंगते-रेंगते भी कुछ बदलाव हो रहे थे। यह मापने के लिए विभिन्न तरीके मौजूद थे कि कोई राजदूत कितना अधिक ज्ञानवान है। किसी राजदूत का सरल सा परीक्षण तो इंदिरा गांधी के वामपंथी सलाहकार एवं ‘सैमीनार’ सम्पादक रोमेश थापर द्वारा नियमित रूप में नववर्ष पर दी जाने वाली पार्टी दौरान हो जाता था। इस आयोजन एवं अन्य कई कसौटियों के आधार पर अरब लीग के भारत में प्रथम राजदूत क्लोविस मकसूद सबसे अग्रणी थे। वह न केवल जटिल से जटिल बात को सरल शब्दों में व्यक्त करना जानते थे बल्कि उनका बांकपन भी लाजवाब था। वह दिल्ली की अत्यंत सलीकेदार अभिजात्य महिलाओं को प्रभावित करने से नहीं चूकते थे। मकसूद का जलवा ही था कि नई दिल्ली का अभिजात्य वर्ग भावनात्मक रूप में फिलस्तीनी आंदोलन से जुड़ गया था। 

गुटनिरपेक्ष आंदोलन तथा अफ्रीकी-एशियाई नव-स्वतंत्र देशों के नेता के रूप में वामपंथी उदारवादियों और मुस्लिमों में नेहरू के समर्थकों की कमी नहीं थी। अरब देशों पर नेहरू का जादू इस तरह चला कि पाकिस्तानी उर्दू कवि रईस अमरोहवी ने उनकी प्रशंसा में एक रुबाई तैयार कर ली:  जप रहा है आज माला एक हिंदू की अरब ब्रह्मणजादे में शाने-दिलबरी ऐसी तो हो! हिकमत-ए-पंडित जवाहर लाल नेहरू की कसम मर मिटे इस्लाम जिस पर काफिरी ऐसी तो हो। 

1990 के दशक के प्रारम्भ तक तो ऐसा वातावरण था कि इसराईल की वकालत करना किसी बुद्धिजीवी के लिए अशोभनीय माना जाता था। जब 1984 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उनके करीबी मुस्लिम कांग्रेसियों (जो मुस्लिम समुदाय से बिल्कुल ही टूटे हुए थे) ने उन्हें राय दी कि इसराईल के साथ रिश्तों का स्तर किसी भी कीमत पर न बढ़ाए क्योंकि इससे पार्टी के मुस्लिम समर्थन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। जब मैंने इंडियन एक्सप्रैस में इस नीति के विरोध में दलीलें दीं तो राजीव ने इनको एक आधिकारिक नोट का रूप दे दिया। 

मुस्लिम नेताओं और मौलवियों ने पूरे मुस्लिम भाईचारे को शाहबानो, बाबरी मस्जिद, सलमान रुशदी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मुस्लिम चरित्र और अब इसराईल  के साथ संबंधों जैसे मुद्दों की बेडिय़ों में जकड़ रखा था। मैंने अपने स्तम्भ में लिखा था कि पिछड़े हुए मुस्लिम समुदाय को इन चीजों की बजाय रोजगार, शिक्षा और उद्यम स्थापित करने के लिए सहायता की जरूरत है। राजीव की हत्या के बाद पी.वी. नरसिम्हा राव ने 1992 में इसराईल के साथ संबंधों का स्तर बढ़ा दिया। कमाल तो तब हुआ जब मुस्लिम समुदाय में से एक भी व्यक्ति ने इस पर एतराज नहीं उठाया। वैसे प्रारम्भ में रिश्तों का यह संवद्र्धन मशीनी किस्म का ही था और इसमें कोई वास्तविक गर्मजोशी नहीं थी। इसी के चलते इसराईली नेता शिमोन पैरेज ने चुटकी ली थी: ‘‘भारत-इसराईल संबंध फ्रांसीसी इत्र की तरह हैं यानी कि इन्हें केवल सूंघना है पीना नहीं है।’’ 

भड़शिवा हरमन ने मुझे 1967 के युद्ध के तत्काल बाद के जिस इसराईल से परिचित करवाया था उसका रूख 1993 की ओसलो संधि के प्रावधानों के चलते और भी कड़ा हो गया था। लेकिन फिर भी ऐसी उम्मीद जाग उठी थी कि दो राष्ट्रों यानी इसराईल और फिलस्तीन का अस्तित्व सम्भव हो सकेगा। जब यित्जिक रेबिन इसराईल के प्रधानमंत्री बने तो अलग फिलस्तीन की सम्भावना साकार हो गई। बेशक उनका दृष्टिकोण भी ओसलो संधि के कर्णधार एक अन्य इसराईली योस्सी बेइलिन की तरह ही उदारवादी और पारदर्शी था तो भी इसराईल को अपने वजूद में आने के दिन से ही जिस तरह की कठिनाइयों और युद्धों का सामना करना पड़ा था उनके चलते हर यहूदी के मन में किसी हद तक कठोरता आ गई थी जो कि बिल्कुल 9/11 के बाद इस्लाम के प्रति पैदा हुए भय जैसी थी। 

9/11 की प्रथम वर्षगांठ पर भारत यात्रा पर आने वाले इसराईली प्रधानमंत्री एरियल शेरोन ने भी आतंक विरोधी मुहावरे को सशक्त शब्दों में प्रस्तुत किया था। अटल बिहारी वाजपेयी के अंतर्गत इसराईल के साथ हुए संवेनदशील रक्षा सौदों के बारे में मनमोहन सिंह ने खूब हेंकड़ी हांकी थी। उसके बाद फिलस्तीनी मुद्दा लगातार पृष्ठ भूमि की ओर खिसकता गया, हालांकि इंदिरा गांधी के दौर में इसे उच्चतम प्राथमिकता दी जाती थी। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इसराईल यात्रा के पीछे ङ्क्षहदुत्व की वह प्रशंसनात्मक भावना कार्यरत है जो छोटे से देश इसराईल को श्रद्धा की दृष्टि से इसलिए देखती है क्योंकि उसने अपने उपद्रवी मुस्लिम पड़ोसियों  पर अच्छी तरह नुकेल लगाई हुई है। 

ऐसे में रामल्ला यानी फिलस्तीनियों का मुद्दा एक तरफ धकेला जाना स्वाभाविक ही है। अंदर की बातें जानने वालों का कहना है कि सितम्बर में वेनेजुएला में हुए गुटनिरपेक्ष सम्मेलन के दौरान भारतीय शिष्टमंडल को साऊथ ब्लाक से निर्देश मिले थे कि फिलस्तीन मुद्दे का बिल्कुल ही कोई उल्लेख न किया जाए। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के पहले दिन से फिलस्तीनी मुद्दे का उल्लेख एक पम्परा बना हुआ था। लेकिन अब यह सरलता अप्रासंगिक बन कर रह गई है। 
        

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