Edited By ,Updated: 10 Nov, 2019 12:49 AM
मैं एक अर्थशास्त्री नहीं हूं और जितना भी मैं अर्थव्यवस्था के बारे में जानता हूं वह सिर्फ समाचारपत्रों के माध्यम से जान पाया या फिर टैलीविजन पर अर्थशास्त्रियों को सुनने के बाद ही इसके बारे में ज्ञान प्राप्त कर पाया। इस कारण इसके बारे में मेरा ज्ञान...
मैं एक अर्थशास्त्री नहीं हूं और जितना भी मैं अर्थव्यवस्था के बारे में जानता हूं वह सिर्फ समाचारपत्रों के माध्यम से जान पाया या फिर टैलीविजन पर अर्थशास्त्रियों को सुनने के बाद ही इसके बारे में ज्ञान प्राप्त कर पाया। इस कारण इसके बारे में मेरा ज्ञान दूसरे दर्जे का है। मगर बेरोजगारी के हालात के बारे में जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है वह बेहद गम्भीर है।
भारतीय अर्थव्यवस्था की निगरानी के लिए बने सैंटर के सी.ई.ओ. महेश व्यास का कहना है कि अक्तूबर माह में बेरोजगारी 8.5 प्रतिशत की ऊंचाई को छू गई। जब 2017-18 में इसने 6.1 प्रतिशत को छुआ तो यह कहा जाने लगा कि बेरोजगारी 45 वर्षों में सबसे ऊंचे स्तर की हो गई है। हालांकि सरकार के पास इस दावे के प्रति कुछ अपने ही मायने हैं।
नौकरियां ढूंढने वाले लोगों की दर लगातार सिकुड़ रही
सबसे ज्यादा चिंता वाली बात यह है कि श्रम बल भागीदारी दर तथा नौकरियां ढूंढने वाले लोगों की दर लगातार सिकुड़ रही है। 2016 में यह 47-48 प्रतिशत थी और आज 43 प्रतिशत है। इस तरह नौकरियां ढूंढने वाले लोगों की गिनती बढ़ी है, वहीं नौकरियां पाने वालों की गिनती में भी कमी हुई है। यह एक अच्छा समाचार नहीं है।
यदि हम मुख्य तौर पर सर्वे के नतीजों पर नजर दौड़ाएं तो यह सारा आंकड़ा चिंताजनक बन गया है। 2011-12 तथा 2017-18 के बीच का पहला आंकड़ा आम बेरोजगारी का है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार कौंसिल द्वारा नियुक्त लावीश भंडारी तथा अमरीश दूबे के आंकड़े बताते हैं कि बेरोजगारी बढ़कर 433 से 457 मिलियन हो गई। हाल ही में 2 अन्य नतीजे इसके विपरीत भी आए हैं। संतोष महरोत्रा तथा जाजाती परिदा ने अजीम प्रेम जी यूनिवर्सिटी में प्रकाशित एक पेपर में दावा किया कि बेरोजगारी गिर कर 474 से 465 मिलियन हो गई। ‘द मिंट’ में हिमांशु ने दावा किया कि बेरोजगारी गिरकर 472.5 मिलियन से 457 हो गई।
महरोत्रा तथा परिदा के प्रशंसनीय सर्वे ने बताया है कि नौकरियां क्यों सिकुड़ कर रह गईं। यह सर्वे बताता है कि 2011-12 तथा 2017-18 के बीच कृषि नौकरियों में 27 मिलियन की बड़ी गिरावट देखी गई। बाकी की अर्थव्यवस्था भी रोजगार के मौके तलाशने में नाकामयाब रही। सी.एम.आई.ई. द्वारा आए नतीजों ने भी इसकी पुष्टि की है। इसकी रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण बेरोजगारी 8.3 प्रतिशत है जो कि मात्र 0.6 प्रतिशत अपने शहरी समकक्ष से पीछे है। साधारण तौर पर यह अनुपात 2 प्रतिशत होना चाहिए। यह अनुपात सुझाता है कि ग्रामीण नौकरियों में तेजी से हालात खराब हो गए। जैसे कि महेश व्यास ने अपनी बात रखी है, उनका कहना है कि ग्रामीण भारत में 8 प्रतिशत की दर एक दबाव वाली है क्योंकि वहां पर कोई विकल्प नहीं होते, जैसा कि शहरों तथा कस्बों में होते हैं। यदि हालात बदतर हो गए तो यह एक बड़ा सवाल खड़ा हो जाएगा।
शायद बेहद चिंताजनक बात युवा बेरोजगारी के आंकड़ों को देखकर लगती है। महरोत्रा तथा परिदा के सर्वे दर्शाते हैं कि कुल बेरोजगार युवकों (15 से 19 वर्ष के बीच) की गिनती गैर मामूली मतलब कि 2002-05 तथा 2011-12 में 8.9 मिलियन से बढ़कर 9 मिलियन हो गई। मगर 2017-18 में यह छलांग लगातर 25.1 मिलियन हो गई। मगनरेगा ने इसकी पुष्टि भी कर दी। मगनरेगा के अंतर्गत रोजगार मांगने वाले युवा कर्मियों ( 18-30 वर्ष) की कुल गिनती भी बढ़ रही है। 2013-14 में यह एक करोड़ थी और 2017-18 में यह कम होकर 58.69 लाख रह गई। 2018-19 के अंत में यह एक वर्ष में 70.71 प्रतिशत बढ़ गई और यह ट्रैंड निरंतर जारी है। 21 अक्तूबर तक यह 57.57 लाख पहुंच गई।
भारतीय युवा का भविष्य धुंधला
15 से 29 वर्ष के युवा लोगों की गिनती ऐसी है जो न तो श्रम बल और न ही शिक्षा तथा ट्रेनिंग का हिस्सा हैं। 2017-18 में यह बढ़कर 100 मिलियन हो गई। 2011-12 में यह 83 मिलियन थी। महरोत्रा तथा परिदा के निष्कर्ष हमारे लिए चिंताजनक हैं। गैर कृषि नौकरियों की धीमी प्रगति तथा खुली बेरोजगारी का बढऩा दोनों ने युवाओं को निराश किया है। ऐसे युवा लोग जो कि राज्यों द्वारा निराश हो चुके हैं और जो न तो नौकरियां ढूंढ रहे हैं और न ही पढऩे में रुचि दिखा रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय युवा का भविष्य धुंधला पड़ता जा रहा है।
अगर ईमानदारी से मैं कहूं तो बेरोजगारी की हालत मेरे लिए बेहद गम्भीर है तो यह युवाओं के लिए कितनी गम्भीर होगी। बेरोजगारी की तस्वीर धुंधली पड़ चुकी है। निश्चित तौर पर सरकार इसके बारे में बात ही नहीं करती मगर उसे करनी चाहिए। क्या यह हैरान करने वाली बात नहीं है कि सरकार इसका आकलन नहीं करती। यह बेहद खराब होने वाली स्थिति है, इसके बावजूद भी सरकार इससे पल्ला झाड़ रही है। प्रश्र यह है कि आखिर कब तक यह निरंतर जारी रहेगा?
— करण थापर karanthapar@itvindia.net