पुलिस स्वयं निर्णय करती है कि किसे क्या दंड दिया जाए

Edited By ,Updated: 25 May, 2022 04:05 AM

the police themselves decide who should be punished

एक 23 वर्षीय पशु चिकित्सक का बलात्कार होता है और उसे जला दिया जाता है। सारा राष्ट्र इस वीभत्स घटना से आहत होता है। इस घटनाक्रम में चौंकाने वाला मोड़ तब आया जब इस घटना में संलिप्त चार आरोपियों को पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। विजयी

एक 23 वर्षीय पशु चिकित्सक का बलात्कार होता है और उसे जला दिया जाता है। सारा राष्ट्र इस वीभत्स घटना से आहत होता है। इस घटनाक्रम में चौंकाने वाला मोड़ तब आया जब इस घटना में संलिप्त चार आरोपियों को पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। विजयी साइबराबाद पुलिस कमिश्नर ने कहा, ‘‘कानून ने अपना कत्र्तव्य निभा दिया है और राष्ट्र को न्याय मिल गया है।’’ 

21 मई 2022: उच्चतम न्यायालय ने न्यायमूर्ति सिरपुरकर आयोग की रिपोर्ट के आधार पर हैदराबाद के उन चार आरोपियों की हत्या के लिए 10 पुलिस अधिकारियों को दोषी ठहराया और पुलिस द्वारा न्यायेत्तर हत्याओं की वैधता पर प्रश्न उठाया। नि:संदेह कुछ लोग न्यायालय के निर्णय से सहमत होंगे तो कुछ लोगों का मानना है कि जनता के समर्थन से तुरंत किया गया न्याय सही था। यह हमारे शिकायत निवारण तंत्र और न्याय प्रदान प्रणाली की विफलता को दर्शाता है जिसके लिए हमारी पुलिस, न्यायपालिका और कानून निर्माताओं को जिम्मेदारी लेनी चाहिए। 

न्यायेत्तर हत्याओं को सत्तारूढ़ राजनेताओं द्वारा बढ़ावा दिया जाता है। इन्हें लोग अच्छा मानते हैं और आम जनता इसमें सहयोग करती है। ऐसे में इस बात पर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि पुलिस ने इस कार्य को निर्भयता के साथ अंजाम दिया और कानून की उचित प्रक्रिया को नजरअंदाज किया। ऐसी घटनाओं के प्रति पुलिस के बुलंद हौसलों के कारण वह कानून को अपने हाथ में लेती है, निर्दोष लोगों को फंसाती है और उन्हें दंडित करती है। स्वयं निर्णय करती है कि किसे क्या दंड दिया जाना चाहिए। 

पुलिस के अति उत्साह को सत्तारूढ़ पार्टियों और राजनेताओं द्वारा अपने एजैंडे को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। प्रश्न उठता है कि जब न्याय में विलंब होता है तो इसका एकमात्र समाधान न्यायेत्तर हत्याएं हैं? क्या पुलिस अपराधियों का एक संगठित गैंग है। जब वे स्वयं कानून तोड़ते हैं तो फिर वे किसी को कैसे जवाबदेह बनाएंगे? क्या यह शक्ति का दुरुपयोग है? ऐसे दांडिक कानून किस काम के जब वे त्वरित और समयबद्ध दंड सुनिश्चित न कर सकें? 

यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि पुलिस ने कथित अपराधियों को निर्भय होकर मारा। यह मानव अधिकारों के दृष्टिकोण से घृणित और अस्वीकार्य है और ऐसी घटनाएं नहीं होनी चाहिएं। यह भी सही है कि पुलिस निर्दोष लोगों को अपराधी बताकर अपने ब्रांड के कठोर और त्वरित न्याय देने के लिए शक्तियों का दुरुपयोग करती है और ऐसा या तो पुरस्कार और पदोन्नति प्राप्त करने के लिए किया जाता है या अपने राजनीतिक आकाओं के कहने पर किया जाता है। कुल मिलाकर फर्जी मुठभेड़ में कानूनी प्रक्रिया को नजरअंदाज किया जाता है और इस तरह वे न्यायपालिका की भूमिका निभाते हैं और जिसमें आरोपी को सुनवाई का अवसर नहीं दिया जाता है और इस तरह दूसरे पक्ष को सुनने के सिद्धांत का उल्लंघन होता है। 

कानूनी दृष्टि से बल के प्रयोग को उचित नहीं ठहराया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति की राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग दिशा- निर्देश 2020 के बाहर मृत्यु होती है तो यह एक अपराध होगा और ऐसा करने वाले अधिकारी को गैर-इरादतन हत्या का दोषी माना जाएगा तथा पुलिस विभाग द्वारा उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू की जा सकेगी। पुलिस की ज्यादतियां दशकों से चली आ रही हैं। अपराधी राजनेताओं के आशीर्वाद से यह फलती-फूलती रही है। जिनकी जांच की जाती है और जो जांच करते हैं उनमें अंतर नहीं रह जाता है इसलिए निष्पक्षता के साथ समझौता होता है। अधिकतर मुठभेड़ों में बल का प्रयोग न केवल आत्मरक्षा में किया जाता है अपितु प्रतिकार के रूप में भी किया जाता है या बंदूक प्रिय पुलिस अधिकारियों की खून की प्यास बुझाने के लिए किया जाता है और यह सब कार्य राज्य की मिलीभगत से होता है। 

वस्तुत: ऐसे पुलिसकर्मी जिनके विरुद्ध गंभीर आरोप होते हैं, उन्हें एन्काऊंटर स्पैशलिस्ट कहा जाता है और उनमें से अनेक लोगों को पदक और वित्तीय पुरस्कार दिए जाते हैं। ऐसे अधिकारियों पर मुकद्दमा चलाने या उन्हें दंडित करने की बजाय ऐसी हत्याओं को संस्थागत और जन समर्थन प्राप्त होता है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग में वर्ष 2017 के बीच 1782 फर्जी मुठभेड़ के मामले दर्ज हुए। 2017 से 2022 के बीच एेसे 655 मामले दर्ज हुए। उत्तर प्रदेश में में सर्वाधिक 117 फर्जी मुठभेड़ हुईं। 6 हजार से अधिक मुठभेड़ों में 122 से अधिक अपराधी मारे गए। उसके बाद असम में ऐसे 50, झारखंड में 49, ओडिशा में 36, जम्मू-कश्मीर में 35, महाराष्ट्र में 26 और बिहार में ऐसे 55 मामले सामने आए। 

हाल की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में 2017 के बाद 74 फर्जी मुठभेड़ मौतों के मामलों में न्यायिक जांच की गई। किंतु हर मामले में पुलिस साफ बच निकली। अन्य मामलों में दोष सिद्धि हुई किंतु उनकी संख्या बहुत कम है। 1991 में 11 सिखों के फर्जी मुठभेड़ के मामले में 2016 में उत्तर प्रदेश के 47 पुलिसकर्मियों को आजीवन कारावास की सजा दी गई। अनेक मानव अधिकार कार्यकत्र्ताओं ने फर्जी मुठभेड़ों की निंदा की। उनका कहना है कि पुलिस किसी भी परिस्थिति में हिंसक भीड़ की तरह कार्य नहीं कर सकती है। 

न्यायालयों के समक्ष बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं और इस स्थिति में सुधार के लिए कोई ठोस योजना नहीं है जिसके लिए न्यायिक व्यवस्था को अधिक धनराशि उपलब्ध कराई जानी चाहिए और न्यायिक अवसंरचना में सुधार किया जाना चाहिए। इसके अभाव में नागरिकों का कानून की प्रक्रिया में विश्वास समाप्त होता जा रहा है और पुलिस मुठभेड़ को समर्थन बढ़ जाता है। इस संबंध में कानूनी, संस्थागत और सामाजिक स्तर पर ठोस उपाय किए जाने की आवश्यकता है। दांडिक न्याय प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव की आवश्यकता है ताकि उसकी खोई हुई विश्वसनीयता बहाल हो सके और प्रक्रिया में तेजी आ सके। क्या पुलिस जनता की रक्षक है या भक्षक?-पूनम आई. कौशिश
 

Trending Topics

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!