गठबंधन सरकारों की दबाव, सत्ता सुख, ठगी तथा सौदेबाजी की राजनीति

Edited By ,Updated: 19 Feb, 2019 04:47 AM

the pressure of coalition governments power power and bargaining politics

वर्तमान लोकसभा का अंतिम सत्र समाप्त हो गया और इसी के साथ सभी राजनीतिक दल अपनी रणनीति बनाने में जुट गए हैं। देश के  दोनों प्रमुख राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस सहित सभी दल सत्ता के लिए कई मुद्दों की तलाश में हैं। अयोध्या का श्री राम...

वर्तमान लोकसभा का अंतिम सत्र समाप्त हो गया और इसी के साथ सभी राजनीतिक दल अपनी रणनीति बनाने में जुट गए हैं। देश के  दोनों प्रमुख राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस सहित सभी दल सत्ता के लिए कई मुद्दों की तलाश में हैं। अयोध्या का श्री राम मन्दिर का मुद्दा ज्यों ही गरमाया तो राहुल गांधी ने घोषणा कर दी कि यदि हमारी सरकार बनी तो देश के सभी गरीबों के लिए न्यूनतम आमदनी की व्यवस्था करके गरीबी मुक्त भारत बनाएंगे। चंद्रबाबू नायडू सहित क्षेत्रीय दलों के नेता सत्ता सुख के लिए गठबंधन की राजनीति हेतु अपना-अपना दाव लगाने में व्यस्त हैं। राहुल गांधी महागठबंधन के नेता बनने की चाल चलते रहे हैं तो वहीं चंद्रबाबू नायडू अपने को नेता घोषित करने की रणनीति बनाने की कवायद ढूंढते हैं। 

पश्चिम बंगाल में चिट फंड घोटाले की जांच की आड़ में ममता बनर्जी अपने को देश का नेता सिद्ध करने का असफल प्रयास कर रही हैं। अखिलेश तथा मायावती उत्तर प्रदेश पर पेंच लड़ा कर चुनावों के उपरांत राष्ट्रीय नेता बनने की फिराक में हैं। चुनावी मुद्दों की तलाश में छटपटाते राजनीतिक दल अतिसंवेदनशील पाकिस्तान तथा जम्मू-कश्मीर में सेना की कार्रवाई जैसे विषयों पर शंका प्रकट कर रहे हैं वहीं संवैधानिक संस्थाओं पर अविश्वास करने में भी पीछे नहीं हट पाए। सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग, सी.बी.आई., कैग जैसी संस्थाओं पर यह जानते हुए भी प्रश्र चिन्ह लगा रहे हैं कि यह धारणा भविष्य में सर्वाधिक परेशानियां पैदा करेगी। 16वीं लोकसभा ने देश की राजनीति में 30 वर्ष के लम्बे समय की गठबंधन सरकारों को बदल कर एक दल की सत्ता को पुन: काबिज किया।  खींचतान, दबाव, राष्ट्रीय मुद्दों को दरकिनार करने वाली गठबंधन की राजनीति के दौर से देश मुक्त हुआ जिसे भारतीय राजनीति के लिए शुभ संकेत माना गया। 

राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर भी एकजुटता नहीं
वर्तमान परिदृश्य में दिखाई दे रहा है कि भारत का लोकतंत्र फिर संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर भी राजनीतिक दल एक नहीं दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टी है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था होते हुए भी वंशवाद से बाहर नहीं  निकल पा रही है। दूरदर्शी नेतृत्व के अभाव में सिकुड़ती पार्टी को पिछले दिनों तीन राज्यों के चुनाव परिणामों ने कुछ हिम्मत बंधाई है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में सहानुभूति लहर ने भारतीय वायुसेना के पायलट राजीव गांधी को प्रधानमंत्री तो बनाया लेकिन कांग्रेस की गिरावट की शुरूआत भी उसी काल से होने लगी। 

सोनिया गांधी, राहुल गांधी के साथ कांग्रेस जमीनी हकीकत को समझे बिना प्रियंका गांधी के सहारे अब चुनाव जीतना चाहती है। उसे कितनी सफलता मिलेगी यह तो समय ही बताएगा लेकिन राष्ट्रीय पार्टियों का यह खेल देश का दुर्भाग्य ही कहलाएगा। सही बात तो यह है कि कांग्रेस ने महागठबंधन की शुरूआत की। गठबंधन भले ही सत्ता सुख उपलब्ध करवाता है लेकिन इसमें शामिल दल धोखाधड़ी, सौदेबाजी तथा राष्ट्रीय व राजनीतिक दायित्वों के प्रति गैर-जिम्मेदार रहे हैं। राजनीतिक विखंडन में सत्तालोलुप राजनेता निहित स्वार्थ में राजनीतिक स्थिरता व राष्ट्रीय एकता को अपना शत्रु मानते हैं। 

गठबंधन राजनीति की शुरूआत
राष्ट्रीय संदर्भ में देखें तो गठबंधन राजनीति की शुरूआत स्वतंत्रता संग्राम से ही शुरू हो गई थी। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग से गठबंधन किया था जिसके परिणामस्वरूप ‘टू नेशन थ्यूरी’ के नाम पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ जो आज तक नासूर बना हुआ है। 1953 में आंध्र प्रदेश में संयुक्त मंत्रिमंडल का गठन हुआ लेकिन यह 13 महीनों में ही विघटित हो गया। 1967 में पंजाब की गुरमान सिंह तथा लछमन सिंह गिल की गठबंधन सरकार का प्रयोग बुरी तरह असफल रहा।

जय प्रकाश नारायण आंदोलन तथा इंदिरा गांधी द्वारा थोपे आपातकाल के बाद 1977 में डा. राम मनोहर लोहिया द्वारा गैर कांग्रेसवाद के नारे को मतदाताओं ने स्वीकार किया तथा केन्द्र में तीन-चार पाॢटयों के विलय से जनता पार्टी की सरकार बनी, वह भी अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई। 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में जनता दल, तेलगू देशम, असम गण परिषद, डी.एम.के. जैसे क्षेत्रीय दलों की भागीदारी से बनी सरकार में सभी दल गठबंधन में सहयोगी होते हुए भी कई मुद्दों पर परस्पर विरोधी थे। 

विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, चौ. देवी लाल की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी असमय गठबंधन बिखरने का कारण बनी। चुनाव प्रचार के बीच में राजीव गांधी की हत्या के कारण पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार छोटे-छोटे राजनीतिक दलों व निर्दलीय सांसदों के सहारे बनी जोकि अनैतिक दल बदल करवा कर बहुमत की सरकार बन गई। 1996 की 11वीं लोकसभा वाजपेयी के नेतृत्व में 13 दिन ही चली फिर संयुक्त मोर्चा ने देवेगौड़ा के नेतृत्व में 332 सांसदों के समर्थन से सरकार बनाई लेकिन कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस लेकर केवल 10 महीनों में ही इस सरकार को पटक दिया। इसी लोकसभा में इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने लेकिन उन्हीं की पार्टी के लालू यादव उनसे अलग हो गए और मौका देखकर कांग्रेस ने फिर अपना समर्थन वापस लेकर सरकार गिराने का घिनौना खेल खेल दिया। 

12वीं लोकसभा में भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने 254 स्थान पाकर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाई लेकिन राजनीतिक दलों के पूर्वाग्रह, व्यक्तिगत स्वार्थ, महत्वाकांक्षाएं 13 महीने बाद ही सरकार को ले डूबीं। 1999 में त्रिशंकु लोकसभा का गठन अटल के नेतृत्व में पुन: हुआ। बेशक इस सरकार ने अपना कार्यकाल पूर्ण किया लेकिन भाजपा को अपने आधारभूत विषयों को छोडऩा पड़ा। 2004 में दोनों राष्ट्रीय पाॢटयों भाजपा व कांग्रेस ने गठबंधन के बीच ही चुनाव लड़ा। इस 14वीं लोकसभा ने अपना कार्यकाल तो पूरा किया लेकिन नरसिम्हा राव सरकार के विख्यात अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनने पर अपने आर्थिक एजैंडे को गठबंधन के कारण लागू नहीं कर सके। 2009 की लोकसभा की हालत यह थी कि कांग्रेस के पास 211 सदस्य थे, 68 सदस्यों का मंत्रिमंडल बना जिनमें से 36 मंत्री केवल 4 राज्यों से लिए गए। दबाव का आलम यह था कि केरल से मुस्लिम लीग की मात्र एक सीट थी परन्तु मुसलमानों को रिझाने के लिए उस पार्टी का भी एक मंत्री बनाना पड़ा। भारत के इतिहास में इस सरकार को घोटालों की सरकार के नाम से जाना जाता रहेगा। 

जाति, मजहब व क्षेत्रवाद की जंजीरें 
भारतीय समाज जाति, पंथ, मजहब एवं क्षेत्रीय जैसी जंजीरों में जकड़ा हुआ है तथा उसी आधार पर पाॢटयों का जन्म होता है। सभी विश्लेषक क्षेत्र, जाट, यादव, ब्राह्मण, दलित, राजपूतों की बात करते हैं तथा उम्मीदवार की हार-जीत का निर्णय अमुक जाति करेगी ऐसा निर्णय देते हैं। इसे विडम्बना नहीं तो क्या कहेंगे कि हिन्दू मतदाता जाति, क्षेत्र, दल के नाम पर बंटता है तथा हार-जीत का निर्णय मुस्लिम वोटों से होता है।

गठबंधन की राजनीति तनाव, दबाव, स्वार्थ, क्षेत्रवाद पैदा करती है, क्षुब्ध राजनीतिक दल गठबंधन से समर्थन वापस लेकर सरकार गिराते हैं ऐसा आज तक देश ने देखा है। 17वीं लोकसभा में एक दल की सरकार हो, गठबंधन को पूरी तरह नकार कर मजबूत विपक्ष बने यही देश तथा लोकतंत्र के हित में है। राष्ट्रीय एकता के बिना राजनीतिक स्थिरता नहीं हो सकती, अत: जब राष्ट्रीय एकता होगी तो जाति, मजहब, क्षेत्र की राजनीति भी समाप्त हो जाएगी। इसी सच्चाई को स्वीकार करना आज की आवश्यकता है।-प्रिंस. देशराज शर्मा

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