Edited By Pardeep,Updated: 02 Apr, 2018 03:31 AM
देश में हर जगह कुछ लोग आपको यह कहते जरूर मिलेंगे कि वे मोदी सरकार के कामकाज से संतुष्ट नहीं हैं क्योंकि मजदूर-किसान की हालत नहीं सुधरी, बेरोजगारी कम नहीं हुई, दुकानदार या मझले उद्योगपति अपने कारोबार बैठ जाने से त्रस्त हैं। इन सबको लगता है कि 4 वर्ष...
देश में हर जगह कुछ लोग आपको यह कहते जरूर मिलेंगे कि वे मोदी सरकार के कामकाज से संतुष्ट नहीं हैं क्योंकि मजदूर-किसान की हालत नहीं सुधरी, बेरोजगारी कम नहीं हुई, दुकानदार या मझले उद्योगपति अपने कारोबार बैठ जाने से त्रस्त हैं। इन सबको लगता है कि 4 वर्ष के बाद भी उन्हें कुछ मिला नहीं बल्कि जो उनके पास था, वह भी छिन गया। जाहिर है इसकी खबर मोदी जी को भी होगी। खुफिया तंत्र अगर ईमानदारी से मोदी जी को सूचनाएं पहुंचा रहा होगा, तो उसकी भी यही रिपोर्ट होगी। ऐेसे में 2019 का चुनाव भाजपा को बहुत भारी पडऩा चाहिए, पर ऐसा है नहीं।
इसके दो कारण हैं-ऐसी हताशा के बाद भी शहर का मध्यम वर्गीय हिन्दू यह मानता है कि और कुछ हुआ हो या न हुआ हो, पर मोदी सरकार या उनके योगी जैसे मुख्यमंत्रियों ने अल्पसंख्यकों को काबू कर लिया है। अगर यह दोबारा सत्ता में नहीं आए तो अल्पसंख्यक फिर समाज पर हावी हो जाएंगे। मोदी पर निर्भरता का दूसरा कारण यह है कि विपक्ष में बहुत बिखराव है और उसका किसी एक नेता के साए तले इक_ा होना आसान नहीं लगता। यहां सोचने वाली बात यह है कि हिन्दू समाज के मन में ये भावना क्यों पैदा हुई?
कारण स्पष्ट है कि गैर-भाजपाई सरकारों ने अल्पसंख्यकों के लिए कुछ ठोस किया हो या न किया हो पर उन्हें विशेष दर्जा देकर निरंकुश तो जरूर बनाया। जबकि भाजपा ने यह संदेश स्पष्ट दिया है कि भाजपा की सरकार दिखाने को भी अल्पसंख्यकों के धर्म को अनावश्यक बढ़ावा नहीं देगी। जबकि हिन्दू धर्म में त्यौहारों में खुलकर अपनी आस्था प्रकट करेगी। जाहिर है कि यह भंगिमा हिन्दुओं के लिए बहुत आश्वस्त करने वाली है। इसलिए वे भाजपा के नेतृत्व में अपना भविष्य सुरक्षित देखते हैं। उनकी इसी कमजोरी को भुनाने का काम भाजपा अगले चुनावों में जमकर करेगी। मगर यहां एक पेंच है, मध्यम वर्गीय लोगों को तो धर्म के नाम पर आकर्षित किया जा सकता है, पर बहुसंख्यक किसान-मजदूरों को धर्म के नाम पर नहीं उकसाया जा सकता।
सिवाय इसके कि उनकी वाजिब मांगें पूरी की जाएं जिससे उनकी जिंदगी में खुशहाली आती हो। देश का किसान रात-दिन जाड़ा-गर्मी-बरसात सहकर मेहनत करता है, फिर भी उसकी तरक्की नहीं होती। जबकि बैंक लूटने वाले बिना कुछ किए रातों-रात हजारों-करोड़ कमा लेते हैं। इसलिए वे मन ही मन नाराज हैं और चुनावों को प्रभावित करने की सबसे ज्यादा ताकत रखते हैं। सरकारें तो आती-जाती हैं, पर चिंता की बात यह है कि असली मुद्दे हमारी राजनीतिक बहस से नदारद हो गए हैं। किसानों को सिंचाई की भारी दिक्कत है। भू-जल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है। जमीन की उर्वरकता घट रही है। खाद के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। फसल के वाजिब दाम बाजार में मिलते नहीं। नतीजतन किसान कर्जे में डूबते जा रहे हैं और कर्जा न चुका पाने की हालत में लगातार आत्महत्याएं हो रही हैं, यह भयावह स्थिति है।
उधर देश का युवा, जिसने अपने मां-बाप की गाढ़ी कमाई खर्च करके बी-टैक और एम.बी.ए. जैसी डिग्रियां हासिल कीं, उसे चपरासी तक की नौकरी नहीं मिल रही। इससे युवाओं में भारी हताशा है और यह युवा कहते हैं कि हम ‘पकौड़े बेचकर’ जीवन बिताना नहीं चाहते। यही हाल देश की शिक्षण और स्वास्थ्य सेवाओं का है, जो देश के ग्रामीण अंचलों में सिर्फ कागजों पर चल रही हैं जिसमें अरबों रुपया बर्बाद हो रहा है, पर जनता को लाभ कुछ भी नहीं हो रहा। यह भी भयावह स्थिति है। बैंकों से अरबों रुपया निकालकर विदेश भागने वाले नीरव मोदी जैसे लोगों ने आम भारतीय का बैंकिंग व्यवस्था में, जो विश्वास था, उसे तोड़ दिया है। इससे समाज में हताशा फैली है।
उधर न्यायपालिका के लिए जो लिखा जाए, सो कम। जिस किसी का भी न्यायपालिका से किसी भी स्तर पर वास्ता पड़ा है, वह बता सकता है कि वहां किस हद तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। पर न्याय व्यवस्था को सुधारने के लिए किसी सरकार ने आज तक कोई ठोस प्रयास नहीं किया। यह कहना सही नहीं होगा कि किसी सरकार ने कभी कुछ नहीं किया। पिछली सरकारों ने भी कुछ किया तभी भारत यहां तक पहुंचा और मोदी सरकार भी बहुत से ऐसे काम करने में लग रही है, जिससे हालात बदलेंगे। पर बाबूशाही की प्रशासनिक व्यवस्था इतनी जटिल और आत्म-मुग्ध हो गई है कि उसे इस बात की कोई चिंता नहीं है कि धरातल पर उसकी योजनाओं का सच क्या है। इसलिए अच्छी भावना और अच्छी नीति भी कागजों तक ही सीमित रह जाती है। इस रवैये को बदलने की जरूरत है।
पर इन सब मुद्दों पर आजकल बात नहीं हो रही, न मीडिया में और न राजनीति में। जिन मुद्दों पर बात हो रही है, वह मछली बाजार की बातचीत से ज्यादा ऊंचे स्तर की नहीं है। असली मुद्दों की बात हो और समाधान मूलक हो तो देश का कुछ भला हो। आज जरूरत इसी बात की है कि देशवासी इन बुनियादी सवालों के हल खोजें और उन्हें लागू करने के लिए माहौल बनाएं। अब बात करें अल्पसंख्यकों की,तो यह सच है कि किसी भी सरकार ने अल्पसंख्यकों का कोई ठोस भला नहीं किया। केवल उनका प्रयोग किया और उन्हें सार्वजनिक महत्व देकर खुश करने की कोशिश की गई, जिसके विपरीत परिणाम आज सामने आ रहे हैं। बहुसंख्यक मध्यमवर्गीय समाज के मन में यह बात बैठ गई है कि भाजपा ही अल्पसंख्यकों को उनकी सीमा में रख सकती है, अन्य कोई दल नहीं। यही बात मोदी जी के खाते में कही जा रही है और इसलिए वे 2019 के आम चुनावों में इसी मुद्दे पर जोर देंगे। ताकि बहुसंख्यकों की भावनाओं को वोट में बदल सकें। काश! हम सब देश में असली मुद्दों पर बात और काम कर पाते तो देश के हालात कुछ बदलते।-विनीत नारायण