जितनी जल्दी ‘समान नागरिक संहिता’ लागू होगी उतना ही अच्छा

Edited By ,Updated: 18 Sep, 2019 01:46 AM

the sooner the  uniform civil code  comes into force the better

क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समान नागरिक संहिता यानी यूनिफार्म सिविल कोड की ओर आगे कदम बढ़ाएंगे, विशेषकर गत सप्ताह सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्साहित किए जाने के बाद? शीर्ष अदालत ने गत सप्ताह यह कहते हुए एक ऐसी संहिता के लिए एक बार फिर जोर दिया है,...

क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समान नागरिक संहिता यानी यूनिफार्म सिविल कोड की ओर आगे कदम बढ़ाएंगे, विशेषकर गत सप्ताह सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्साहित किए जाने के बाद? शीर्ष अदालत ने गत सप्ताह यह कहते हुए एक ऐसी संहिता के लिए एक बार फिर जोर दिया है, जिसकी संविधान निर्माताओं ने आशा की थी कि राज्य ऐसी संहिता लागू करेंगे। गत शुक्रवार को जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा कि यद्यपि हिन्दू कानून 1956 में संहिताबद्ध हो गया था, उपदेशों के बावजूद देश के सभी नागरिकों के लिए एक ऐसी समान नागरिक संहिता बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। 

उन्होंने कहा कि ऐसी मान्यता बन गई दिखाई दे रही थी कि मुसलमानों को अपने पर्सनल लॉ में सुधार करने के मामले में खुद कदम उठाना चाहिए। कोई भी समुदाय इस मामले में बिल्ली के गले में घंटी नहीं बांधना चाहता। देश के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाने की जिम्मेदारी देश को सौंपी गई और इस पर कोई प्रश्र नहीं उठाया जा सकता कि ऐसा करने के लिए इसके पास वैधानिक क्षमता है। गोवा के मामले का हवाला देते हुए अदालत ने पूछा कि क्यों केन्द्र ने एक समान नागरिक संहिता नहीं बनाई। 

संघ परिवार के एजैंडे का हिस्सा
शीर्ष अदालत के अवलोकन ने मोदी सरकार के समान नागरिक संहिता लाने के संकल्प को दृढ़ किया है, जो संघ परिवार के केन्द्रीय एजैंडे का एक हिस्सा है। भाजपा लैंगिक समानता के मुद्दे को शामिल कर अपने नैरेटिव के सूक्ष्म अंतर का प्रबंधन करने में भी सफल रही है। समान नागरिक संहिता क्या है? समान नागरिक संहिता के अंतर्गत विवाह, तलाक, सम्पत्ति के अधिकार, विरासत तथा गुजारा भत्ता सहित देश में मौजूद सभी निजी धार्मिक कानूनों को एकीकरण तरीके से एक धर्मनिरपेक्ष छत के नीचे लाया जाएगा। वर्तमान में बहुत से धार्मिक समुदाय अपने निजी कानूनों का पालन कर रहे हैं।

भाजपा का तर्क यह है कि यद्यपि हिन्दू कानून 1956 में संहिताबद्ध कर लिए गए थे, कोई ऐसा कानून नहीं है जो देश के सभी नागरिकों पर लागू होता हो। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1954 में संसद में हिन्दू संहिता विधेयक पेश करने का बचाव करते हुए कहा था कि ‘वह नहीं समझते कि वर्तमान समय इसे आगे बढ़ाने हेतु उनके प्रयास के लिए सही  है।’ आज मोदी के पास जनमत तथा क्षमता के साथ-साथ समान नागरिक संहिता लाने की इच्छाशक्ति भी है। 

कमजोर तथा विभाजित विपक्ष का लाभ उठाते हुए प्रधानमंत्री ने अपने दूसरे कार्यकाल में राज्यसभा में बहुमत न होने के बावजूद पहले ही दो विवादास्पद विधेयक संसद में पेश कर दिए थे-ट्रिपल तलाक तथा अनुच्छेद 370 को हटाना। राम मंदिर का मुद्दा अदालत में है। यद्यपि विधि आयोग ने गत वर्ष अपनी रिपोर्ट में कहा था कि समान नागरिक संहिता ‘न आवश्यक है, न अभी इसकी जरूरत है’, फिर भी सर्वसम्मति न होने के बावजूद पार्टी ने 2019 के अपने घोषणा पत्र में समान नागरिक संहिता लाने का वायदा किया था। हालांकि सरकार की शीघ्र प्राथमिकता कश्मीर में आॢथक स्थिति से निपटना है। एन.आर.सी. को लेकर पूर्वोत्तर में अशांति है। फिर 3 राज्यों-महाराष्ट्र, हरियाणा तथा झारखंड में शीघ्र विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसलिए समान नागरिक संहिता का काम इनके बाद शुरू किया जा सकता है। 

समर्थन में तर्क
समान नागरिक संहिता के समर्थक तर्क देते हैं कि यह काफी लम्बे समय से लंबित है। इस मुद्दे पर निर्वाचन सभा के वाद-विवाद के दौरान चर्चा की गई थी जहां भीमराव अम्बेदकर इस पर जोर दे रहे थे लेकिन निर्वाचन सभा के बहुत से सदस्यों ने इसे ठुकरा दिया। इस तरह से इसे संविधान के खंड-ढ्ढङ्क में राष्ट्र की नीति के निर्देशक सिद्धांतों में से एक के तौर पर शामिल किया गया। 

दूसरे, मोदी का न्यू इंडिया का विचार 65 प्रतिशत जनसंख्या के 25 की उम्र से नीचे होने के साथ यंग इंडिया का भी है। ये युवा वैश्विक विचारों से प्रभावित हैं और समान नागरिक संहिता की सराहना करेंगे। तीसरे, यह राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहित करेगी। चौथे, यह लैंगिक न्याय उपलब्ध करवाएगी। पांचवां, समान नागरिक संहिता सभी नागरिकों के लिए एक कानून उपलब्ध करवाएगी। विरोधियों का यह कहना है कि मुसलमान समान नागरिक संहिता को अपनी धार्मिक स्वतंत्रता में दखल मानते हैं, हालांकि कुछ इस्लामिक देशों ने सभी के लिए एक सांझे कानून को अपनाया है। वे भी देख रहे हैं कि यहां कोई सर्वसम्मति नहीं है। 

मुद्दे पर राजनीति
मगर आज मुद्दा कानूनी की बजाय राजनीतिक अधिक है तथा हर बार जब भी यह विषय सामने आता है तो समर्थकों तथा विरोधियों की ओर से जोरदार वाद-विवाद किया जाता है। जहां तक राजनीतिक दलों की बात है तो उनमें सर्वसम्मति नहीं है और उनमें से अधिकतर इसका इस्तेमाल वोट बैंक की राजनीति के लिए करते हैं। कांग्रेस एक राजनीतिक सर्वसम्मति चाहती है। समाजवादी पार्टी का आरोप है कि भाजपा यह मुसलमान वोटों के लिए कर रही है। भाजपा की सहयोगी जद (यू) ने कूटनीतिक रवैया अपनाते हुए सभी दावेदारों के साथ मशविरा करने को कहा है। माकपा सभी धर्मों में सुधार चाहती है। राकांपा व्यापक तौर पर चर्चा चाहती है। ए.आई.एम.आई.एम. इसके खिलाफ है। शिवसेना इसका समर्थन करती है। तो सर्वसम्मति कहां है? 

यद्यपि सभी के लिए एक कानून होने का लाभ है। हम मुसलमानों का रवैया समझ सकते हैं लेकिन कांग्रेस तथा अन्य राजनीतिक दलों को कानूनों में एकरूपता लाने के मामले में राजनीति नहीं खेलनी चाहिए। 80 के दशक में, यहां तक कि राजीव गांधी ने भी एक स्वैच्छिक नागरिक संहिता लागू करने की सम्भावनाएं तलाशी थीं। ‘एक राष्ट्र, एक कानून’ एक जरूरत है तथा जितनी जल्दी समान नागरिक संहिता आएगी उतना ही अच्छा होगा। हालांकि यह एक संवेदनशील मामला है और सर्वसम्मति पर पहुंचने के लिए अधिक जनचर्चाएं तथा वाद-विवाद के माध्यम से इससे नाजुक तरीके से निपटना होगा।-कल्याणी शंकर
 

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