मूर्तियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का तल्ख रुख नेताओं के लिए ‘सबक’

Edited By ,Updated: 12 Feb, 2019 04:30 AM

the supreme court s strong stand on idols  lessons  for politicians

देश के संसाधनों और सरकारी खजाने को निजी जागीर समझने वाले राजनीतिक दलों के लिए बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख राजनीतिक दलों के लिए नजीर का काम करेगा। उत्तर प्रदेश में सत्ता के दौरान मायावती ने पार्टी के चुनाव...

देश के संसाधनों और सरकारी खजाने को निजी जागीर समझने वाले राजनीतिक दलों के लिए बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख राजनीतिक दलों के लिए नजीर का काम करेगा। उत्तर प्रदेश में सत्ता के दौरान मायावती ने पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी और खुद की प्रतिमाएं स्थापित कराने में सरकारी खजाने से 4184 करोड़ रुपए फूंक दिए थे। लोकायुक्त की जांच में इस सरकारी धन राशि में 1410 करोड़ रुपए का घपला पाया गया। 

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दायर जनहित याचिका में कहा कि मायावती को जनता का धन लौटाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि हम इस पर विचार कर रहे हैं कि आप (मायावती) जनता के पैसे का भुगतान जेब से करें। इस मुद्दे पर अंतिम सुनवाई के लिए 2 अप्रैल की तारीख तय की गई है। राजनीतिक दलों के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह नजरिया कड़ा सबक साबित होगा। देश में सरकारी धन से मूर्तियों की राजनीति पर भी इससे काफी हद तक अंकुश लग सकेगा। मायावती ने इस मामले में सारे रिकार्ड ही ध्वस्त कर दिए तथा बसपा चुनाव चिन्ह हाथी और खुद की मूर्तियां लगाने में सारी नैतिकता-मर्यादाओं को दलितों के भले के नाम पर ताक पर रख दिया। 

सरकारी धन की बर्बादी
आम जनता के करों से मिलने वाले धन को अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ा दिया गया। इस मुद्दे पर उंगली उठाने वाले विरोधियों को दलित विरोधी करार देने में मायावती ने कसर बाकी नहीं रखी। मूर्तियों पर उड़ाई गई इस धनराशि को यदि आम लोगों के सार्वजनिक कामों में नहीं तो दलितों की योजनाओं के लिए भी उपयोग में लिया जाता तो भी हजारों परिवारों का भला हो सकता था। दलित राग अलापने वाली मायावती ने सरकारी धन की बर्बादी में कोई कसर बाकी नहीं रखी।

दरअसल देश को चलाने के लिए कानून बनाने वाले राजनीतिक दल खुद को इससे ऊपर समझते हुए मनमानी करने पर उतारू रहते हैं। नेता समझते हैं कि मतदाता तो 5 साल तक कुछ बिगाड़ नहीं सकते, इसलिए सरकारी संसाधनों की जैसी चाहे लूट मचाओ। नेताओं की मूर्तियां लगाने का यह सिलसिला सभी राजनीतिक दलों की देन है। कांग्रेस हो या भाजपा, सभी अपने चहेते नेताओं की प्रतिमाएं स्थापित कराकर वोट बैंक को मजबूत करने में लगे रहते हैं, सार्वजनिक जीवन में नेताओं की छवि चाहे जैसी रही हो। इसमें संदेह नहीं कि जिन नेताओं ने देश में निर्विवाद योगदान दिया हो, उनकी चुनिंदा प्रतिमाएं लगानी चाहिएं। यह राष्ट्रीय गौरव के साथ देशभक्ति की भावना को मजबूत करता है। जिस देश की आधी आबादी को एक वक्त की रोटी नसीब नहीं हो पाती, वहां मूर्तियों के जरिए राष्ट्रभक्ति की भावना का संचार कराना बेमानी ही माना जाएगा। 

राजनीतिक स्वार्थ
मूर्तियां स्थापित करने वाले नेताओं की नीयत में खोट होने के साथ ही उनके दामन भी दागदार रहे हैं। ऐसे में आम लोगों के लिए मूर्तियों से प्रेरणा ग्रहण करना आसान नहीं है। समस्या वहां से शुरू होती है जब ऐसे कामों में राजनीतिक स्वार्थ जुड़ जाते हैं। इससे ही विवाद होते हैं। साथ ही जिनकी मूर्तियां लगाई जानी हैं, उन पर भी विवाद शुरू हो जाता है। गुजरात के अहमदाबाद में वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा को लेकर खूब आरोप-प्रत्यारोप लगे। भाजपा ने पटेल के जरिए कांग्रेस पर राजनीतिक प्रहार करने का प्रयास किया। पटेल की प्रतिमा पर हजारों करोड़ रुपए व्यय किए गए। इसी तरह का विवाद मुंबई में बाल ठाकरे की प्रतिमा को शिवाजी पार्क में स्थापित करने के प्रयासों को लेकर रहा। 

मूर्तियों की आड़ में राजनीतिक उल्लू सीधा करने में दक्षिण भारत प्रमुख रहा। दक्षिण भारत के दिग्गज नेता रहे कांग्रेस के कामराज ने जीवित रहते हुए ही अपनी मूर्ति स्थापित करा ली। उनके दबदबे के कारण कांग्रेस की मजबूरी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को उनके जीवित रहते हुए ही कामराज की मूर्ति का अनावरण करने जाना पड़ा। डी.एम.के. जब सत्ता में आई तो अपने नेताओं की मूर्तियों की लाइन लगा दी।

मतदाताओं ने तरजीह नहीं दी
राजनीतिक दलों की ऐसी हरकतों को मतदाताओं ने कभी तरजीह नहीं दी। राजनीतिक दलों की यह गलतफहमी रही है कि मूर्तियां स्थापित करने से ही वोट मिलते हैं। मतदाताओं ने नेताओं के इस वहम को कई बार दूर किया है। यह बात दीगर है कि नेताओं ने पराजय के बाद भी कोई सबक नहीं सीखा। सरकारी खजाने पर भारी बोझ डालने के बाद भी मायावती सत्ता में वापसी नहीं कर सकीं। दक्षिण भारत की क्षेत्रीय पार्टियों के अलावा अन्य राजनीतिक दलों की तुलना में कांग्रेस के नेताओं की मूर्तियां ही सर्वाधिक हैं। कहने को राजनीतिक दल देश में विकास बढ़ाने और गरीबी मिटाने की दलीलें देते हों, किन्तु मूर्तियों पर खर्च होने वाले सरकारी धन को व्यय करने से परहेज नहीं करते। मायावती के मामले में सुप्रीम कोर्ट के रुख से साफ  है कि मूर्तियों के जरिए स्वार्थ साधना अब राजनीतिक दलों के लिए आसान नहीं होगा।-योगेन्द्र योगी

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