बिलों के खिलाफ ‘मतभेद’ की आवाज को कुचल दिया गया

Edited By ,Updated: 23 Sep, 2020 03:05 AM

the voice of  differences  against the bills was crushed

जिस तरह विशिष्ट जल्दबाजी के साथ बांटने वाले कृषि बिलों को संसद के दोनों सदनों में पास करवाया गया, उसने हमारे लोकतंत्र के भविष्य के बारे में अनेकों कष्टदायक सवाल खड़े कर दिए हैं। विपक्ष की आवाज को दबाया गया है तथा बिलों के खिलाफ ...

जिस तरह विशिष्ट जल्दबाजी के साथ बांटने वाले कृषि बिलों को संसद के दोनों सदनों में पास करवाया गया, उसने हमारे लोकतंत्र के भविष्य के बारे में अनेकों कष्टदायक सवाल खड़े कर दिए हैं। विपक्ष की आवाज को दबाया गया है तथा बिलों के खिलाफ मतभेद की आवाज को संसद के दोनों सदनों की दहलीज पर कुचल दिया गया है। इस पर कोई बहस ही नहीं करवाई गई। जिस तरह से संसदीय प्रक्रिया चलाई गई, यह लोगों के मनों में देर तक याद रहेगा। लोकतंत्र की विकृति में इसे वाटरशैड इवैंट माना जाएगा। सरकार के लाभ की उपयोगिता बेशक अलग रही होगी, मगर विपक्ष की आवाज भी सुनी जानी चाहिए।  इसे कुछ समय से देश में देखा जा रहा है। 

स्पष्ट तौर पर लोकतंत्र में कोई भी कानून तथा उसकी वैधता पर उससे संबंधित समुदाय के हितों को देखना जरूरी होता है। सामाजिक भावनाओं पर सरकार ने चोट की है, जिसे लोगों द्वारा स्वीकार नहीं किया गया। हम सभी जानते हैं कि कानून का प्रभाव उसके न्यायोचित होने पर निर्भर करता है। उसे इसी तरह से समझा तथा देखा जाता है। सड़कों पर नए कृषि कानूनों के खिलाफ लोगों का विरोध देखा गया है।

कोरोना महामारी के ऐसे संकटमय समय के दौरान विवादास्पद कानूनों को गढ़ा गया है। पंजाब के मुख्यमंत्री के बयान के अनुसार कि उन कानूनों को जिस पर संसद में बुल्डोजर चलाया गया है, उसे कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। ऐसी बात ने हमारी संघीय राजनीति की कार्यप्रणाली पर बड़े सवाल खड़े किए हैं। वर्तमान मुख्यमंत्री अनुत्तरदायी केंद्रीय सरकार के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के लिए अपने आपको बाध्य हुए हैं। 

किसानों का विरोध एक चिंताजनक बात है। सरहदी पंजाब राज्य सरकार ने लम्बे समय तक आतंकवाद तथा पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित घुसपैठ को सहा है। इसने पंजाब में शांति को अस्थिर किया था। इसके साथ-साथ इसने राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी अपना प्रभाव छोड़ा। बिलों के खिलाफ विरोध फैला हुआ है तथा इसके खिलाफ राजनीतिक विरोध की आवाज भी विपक्ष से उठ रही है, जिसमें कांग्रेस, टी.एम.सी., अन्नाद्रमुक, द्रमुक, बीजद, आप, राजद, टी.आर.एस. तथा अकाली दल तथा वामदल जैसी पाॢटयां शामिल हैं जिन्होंने इस पर विचार के लिए राज्यसभा सिलैक्ट कमेटी को बिलों को भेजने की मांग कर डाली है। ऐसा मानकर कि इन बिलों के समर्थन के मामले में किसानों के हित देखे गए हैं मगर सरकार को सभी पार्टियों, जिसमें विरोध करने वाली राज्य सरकारें भी हैं, को इन बिलों के गुणों को बताने के लिए किस चीज ने रोका है। यह एक वैध सवाल है। 

कोई भी पार्टी, जो किसानों के हितों का विरोध करती है, वह सत्ता में रहने की उम्मीद नहीं कर सकती। इसके विरोध में कानूनों को किसानों के लिए एक ‘मौत का वारंट’ बताया गया है। पंजाब तथा हरियाणा जैसे राज्य जहां पर मंडी सिस्टम तथा एम.एस.पी. व्यवस्था है, वहां पर अब खतरा देखा जा रहा है। किसान संगठन इन बिलों को कृषि को कार्पोरेटाइज की तरफ पहला कदम मान रहे हैं। इसके बाद एम.एस.पी. व्यवस्था को वापस लेने का अगला तर्कहीन कदम मान रहे हैं। लोगों के बीच गलत अवधारणा को सरकार को सही करना है। जबकि इसे अभी तक नहीं किया गया है। इसके विपरीत सरकार भ्रम की स्थिति फैलाए हुए है। वह संसद के बाहर तथा अंदर इन बांटने वाले कानून पर कोई भी बहस करवाने का प्रयास नहीं कर रहे।

राष्ट्र के किसानों के साथ सरकार युद्ध पर है। सरकार अपने शासन करने के अधिकार को खो चुकी है। हमें बांटने वाली राजनीति से दूर रहना है, जो एक राष्ट्र के तौर पर हमारी क्षमता को कम करती है। कानूनों के खिलाफ जनता की धारणा गलत है और सरकार के लिए आवश्यक है कि वह गलत धारणा को सुधारने का प्रयास करे।-अश्वनी कुमार(पूर्व कानून मंत्री)

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