मरीज के भले के लिए ‘इच्छा मृत्यु’ में कोई बुराई नहीं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 31 Mar, 2018 01:53 AM

there is no harm in wish death for the patients good

एक बार महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में एक बछड़े को जहर देकर इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह बीमार था और दर्द से बेहाल था। उस वक्त इस बात को लेकर काफी हंगामा हुआ था, जिस पर गांधी जी ने गुजराती साप्ताहिक ‘नवजीवन’ में लिखा कि अगर वह खुद उस स्थिति में...

एक बार महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में एक बछड़े को जहर देकर इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह बीमार था और दर्द से बेहाल था। उस वक्त इस बात को लेकर काफी हंगामा हुआ था, जिस पर गांधी जी ने गुजराती साप्ताहिक ‘नवजीवन’ में लिखा कि अगर वह खुद उस स्थिति में होते तो यही तरीका अपनाते। उन्होंने यह भी लिखा कि अगर मरीज की भलाई के लिए कोई डाक्टर उसे चाकू से काटता है तो वह हिंसा नहीं है इसीलिए जरूरी है कि किन्हीं अपरिहार्य स्थितियों में मरीज की भलाई के लिए उसका जीवन रोक देने में कोई बुराई नहीं है। 

जीवन शुरू होते ही जीने का अधिकार मिल जाता है, मृत्यु कब होगी किसी को पता नहीं होता। धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों की आड़ में कुछ प्रथाओं का भी चलन होने लगा जैसे स्वर्ग जाने के लालच में काशी करवत या फिर सती प्रथा। भला हो अंग्रेजों का जिन्होंने कानून बनाकर इस तरह की अमानवीय हरकतों पर रोक लगाने का काम किया। आज जन्नत में जाने और वहां हूरों की संगत मिलने के नाम पर आतंकवादी संगठन आत्मघाती दस्ते बनाकर दहशत फैलाते हैं। इसे कानून और धार्मिकसंगठनों की मिल-जुलकर की गई कार्रवाई से बंद किया जा सकता है। 

अब हम आते हैं इस बात पर कि क्या उस हालत में जब किसी व्यक्ति के जीवित बचने की संभावना न हो तो उसे और उसके परिवार वालों को उसके जीवन का सम्मानपूर्वक अंत  करने का अधिकार दिया जा सकता है। कई बार व्यक्ति इस हालत में नहीं होता है कि वह स्वयं अपने अंत के बारे में कुछ भी बताने या कहने के काबिल हो, तो इस हालत में क्या उसका जीवन लेने का अधिकार किसी और को मिल सकता है? काफी बहस और एक लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद उच्चतम न्यायालय ने इस पर अपनी मोहर लगा दी है। इसमें इतनी सावधानी बरती गई है कि इसका दुरुपयोग करना काफी कठिन है लेकिन हमारे यहां जैसे कि कहावत है कि चोर के पास हर ताले की कुंजी होती है तो इसे असंभव भी नहीं कहा जा सकता इसलिए जरूरी है कि इस कानून का व्यापक प्रचार-प्रसार मीडिया तथा अन्य प्रकार से हो ताकि लोभ-लालच, रुपए-पैसे, जमीन-जायदाद या दुश्मनी के लिए इस नए कानून की आड़ में कोई किसी की जान न ले सके। 

मृत्यु का अधिकार
भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 21 और धारा 309 के बीच विवाद को खत्म करते हुए न्यायालय ने इस अनुच्छेद में जीने के अधिकार के साथ ही मरने के अधिकार के प्रस्ताव को मंजूरी देते समय मरने के विशेषाधिकार को अलग नहीं माना। यूं तो ज्यादातर देशों में इच्छामृत्यु वैध है लेकिन वहीं खुद की जिंदगी को अपने अनुसार खत्म करने की बात भर सुनकर लोग ऐसी प्रतिक्रियाएं करने लगते हैं मानो किसी ने उनकी ही जान मांग ली हो। एक सत्य घटना का जिक्र करना यहां जरूरी हो जाता है जिसमें एक नर्स जिसकी आबरू छीनने के बाद वहशियों ने उसे जीने लायक भी नहीं छोड़ा और जब वह समझ गई कि अब वह कभी ठीक नहीं हो सकती तो उसने मरने की याचिका दायर की लेकिन इस समाज और सरकार ने उसे यह हक भी नहीं दिया और 46 साल पीड़ा सहन करने के बाद उसने दुनिया से विदा ले ली। 

स्कॉटलैंड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, इसराईल, फ्रांस आदि में इच्छा मृत्यु को अपराध न मानने का कानून ठुकराया जा चुका है। नीदरलैंड में यह फैसला डाक्टरों पर छोड़ दिया गया है। स्विट्जरलैंड  में किसी को सम्मानजनक मौत देने को गैर-कानूनी नहीं माना जाता। यही वजह है कि तमाम आलोचनाओं के बावजूद फीस लेकर लोगों को मृत्यु का वरण कराने वाला संगठन ‘डिगनिटास’ खूब फल-फूल रहा है। दुनिया भर में संगठन के 7000 से ज्यादा सदस्य हैं। 1998 से 2013 तक यह संगठन जर्मनी के 840 लोगों समेत कई देशों में 1701 लोगों को मौत का उपहार दे चुका है। 

इच्छामृत्यु बनाम आत्महत्या
इच्छामृत्यु को आत्महत्या की श्रेणी में रखा जाए या नहीं, इस बात को लेकर भी तरह-तरह की राय सामने आती रही है जबकि प्रेम-प्रसंग, गरीबी या अन्य किसी कारणवश दुनिया भर में लोग बड़ी संख्या में आत्महत्या करते हैं और यह उनका निजी फैसला होता है लेकिन इच्छामृत्यु का फैसला कई लोगों की राय पर टिका होता है इसलिए इच्छामृत्यु को कानूनी मान्यता देने का सवाल दुनिया के कई देशों में बहस का मुद्दा बना हुआ है। इच्छामृत्यु के 2 कारकों पर बरसों से बहस चल रही है। पहली यह कि मरीज के बचने की कोई सूरत न हो तो उसे डाक्टर जहर का इंजैक्शन दे दे और दूसरी परिजनों की सहमति से जीवन रक्षक प्रणाली हटा दी जाए। 

इच्छामृत्यु व्यक्ति का अपना निजी मामला है। एक मरणासन्न जीवन जीने से कहीं अच्छा है कि व्यक्ति मौत को गले लगा ले। ऐसा ही एक मामला 1996 में मुम्बई हाईकोर्ट में आया था जिसमें पुलिसकर्मी मारुति श्रीपति डुबाल ने आत्महत्या करने की कोशिश की थी। हालांकि बाद में कोर्ट ने उसे रिहा कर दिया था। मुम्बई पुलिस में 19 साल तक हैड कांस्टेबल रहे डुबाल एक दुर्घटना में अपना मानसिक संतुलन खो बैठे थे। यही वजह थी कि उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की थी। यह कानून तो लागू कर दिया गया लेकिन इसके साथ ही इसका दुरुपयोग होने की भी आशंका है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। 

एक उम्रदराज व्यक्ति जो कोमा में था उसे उपकरणों द्वारा जीवित रखा जा रहा था। उसका बड़ा बेटा पिता को जीवित रखने के लिए अस्पताल को लाखों रुपए दे रहा था क्योंकि पिता की जगह वह कम्पनी का कार्यकारी अध्यक्ष था, वहीं उसका छोटा बेटा अस्पताल के अधिकारियों से सारे उपकरण हटवाकर पिता को मृत घोषित करना चाहता था ताकि सम्पत्ति का बंटवारा हो सके। नए कानून में हालांकि किसी व्यक्ति को मृत्यु देने के लिए डाक्टर, मैजिस्ट्रेट, परिवार, सगे-संबंधी और नजदीकी मित्रों तक की भूमिका निश्चित कर दी गई है ताकि कोई यदि किसी के साथ कुटिलता निभाना भी चाहे तो यह रास्ता आसान न हो लेकिन फिर भी बहुत से लोग जागरूकता के अभाव में या जबरदस्ती या लालच में इस बात पर राजी हो सकते हैं कि मौत के दरवाजे पर खड़े व्यक्ति को मृत्यु दे दी जाए। 

किसी भी जीवन की समाप्ति चाहे वह इच्छामृत्यु से हो या आत्महत्या करने से, इसका फैसला करते समय जीवन की पवित्रता और आत्मनिर्णय के अधिकार और मनुष्यों की गरिमा को ध्यान में रखना चाहिए। किसी को बोझ मान कर या लालच में आकर मौत के हवाले करना किसी प्रकार भी न्याय संगत नहीं हो सकता। बाकी कानूनों की तरह इसके भी कई अर्थ निकाले जाएंगे और यह भी हो सकता है कि लोग इसकी आड़ में अपराध को भी अंजाम देना शुरू कर दें और बीमार व्यक्ति की देखभाल की बजाय उसे इच्छामृत्यु देने का विकल्प उन्हें आसान लगने लगे।-पूरन चंद सरीन

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