कोई विकल्प नहीं बस ‘शोर ही शोर’

Edited By ,Updated: 04 Oct, 2020 04:25 AM

there is no option but to make noise

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर कृषि मंत्री, वित्त मंत्री से लेकर नीति आयोग के सी.ई.ओ. तथा भाजपाध्यक्ष से लेकर पार्टी प्रवक्ताओं तक सबने एक ही धुन पर गीत गाया है। उनका तर्क यह है कि किसान ए.पी.एम.सी. से बंधे हुए थे तथा अब उनके पास ए.पी.एम.सी. से...

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर कृषि मंत्री, वित्त मंत्री से लेकर नीति आयोग के सी.ई.ओ. तथा भाजपाध्यक्ष से लेकर पार्टी प्रवक्ताओं तक सबने एक ही धुन पर गीत गाया है। उनका तर्क यह है कि किसान ए.पी.एम.सी. से बंधे हुए थे तथा अब उनके पास ए.पी.एम.सी. से बाहर होकर अपनी उपज को बेचने का विकल्प है। बेशक वे अपने आंकड़ों के साथ तर्क का समर्थन नहीं करेंगे। इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति ने कहा था, ‘‘हम भगवान में भरोसा करते हैं। मगर उन सबके लिए मुझे आंकड़े दिखाओ।’’

अटूट आंकड़े
आंकड़े क्या दर्शाते हैं। वह ये दर्शाते हैं कि :
* 86 प्रतिशत किसान छोटे किसान हैं तथा उनके पास 2 हैक्टेयर से भी कम का कृषि क्षेत्र है। 
* कृषि योग्य खेत खंडित हैं और यह कृषि गणना के अनुसार हैं। 
* कृषि योग्य भूमि की गिनती 2010-11 में 138 मिलियन से बढ़ कर 2015-16 में 146 मिलियन 
हो गई। 

* छोटे किसानों के पास बेचने के लिए अपनी उपज का कम अधिशेष बचता है। फिर भी वह अपनी फसल बेचते हैं। फिर चाहे वह धान हो या गेहूं। उन्हें ऋण को वापस करना होता है जो उन्होंने घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए लिया होता है।
* मात्र 6 प्रतिशत किसान ए.पी.एम.सी. मार्कीट यार्डों में अपनी उपज बेचते हैं। 
* बाकी के 94 प्रतिशत किसान ए.पी.एम.सी. से बाहर होकर अपनी उपज ज्यादातर स्थानीय व्यापारियों, सहकारी समितियों या फिर एक प्रोसैसर को बेचते हैं। 

* केरल, चंडीगढ़ को छोड़ कर केंद्रीय शासित प्रदेशों तथा कुछ उत्तर पूर्वीय राज्यों में कोई भी ए.पी.एम.सी. नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व बिहार ने राज्य के ए.पी.एम.सी. एक्ट को निरस्त कर दिया। इन राज्यों में कृषि ए.पी.एम.सी. से बाहर कृषि उत्पाद की मार्कीटिंग होती है। 
ए.पी.एम.सी. की गिनती भी राज्यों के अनुसार है। हरियाणा में यह 106, पंजाब में 145 (सब यार्डों के साथ) तमिलनाडु में 283 है। जबकि पंजाब तथा हरियाणा में 70 प्रतिशत गेहूं और धान की वसूली सरकारी एजैंसियों (विशेषकर एफ.सी.आई.) द्वारा की जाती है। तमिलनाडु में कृषि उपज में ए.पी.एम.सी. का 2019-20 में कुल टर्नओवर मात्र 129.76 करोड़ था। 
* महाराष्ट्र में एक किसान को ए.पी.एम.सी. यार्ड को ढूंढने के लिए 25 कि.मी. का सफर तय करना होता है।

सुदृढ़ यथास्थिति 
चाहे एक राज्य के पास ए.पी.एम.सी. है या उसकी पहुंच सुलभ है या फिर दूर है, तथ्य यह है कि 94 प्रतिशत किसानों के पास ए.पी.एम.सी. के बाहर अपनी उपज को बेचने का कोई विकल्प नहीं। प्रधानमंत्री से लेकर प्रवक्ताओं तक किसी ने भी यह उल्लेख नहीं किया कि किसान को क्यों एक बाध्य के तौर पर प्रकट किया गया है। उसके हाथ तथा पांव क्यों बांधे हुए बताए गए हैं। वास्तविकता यह है कि 94 प्रतिशत किसान बिचौलिए या ए.पी.एम.सी. से बंधे हुए नहीं हैं। इसलिए तर्क यह दिया गया है कि नए कृषि कानून किसान को एक बेहतर विकल्प प्रदान करेंगे जोकि पहले कभी उपलब्ध नहीं थे। यह एक त्रुटिपूर्ण तर्क है जिसका आंकड़ों द्वारा अंतिम तौर पर इसका खंडन किया गया है। नए कृषि कानून वास्तव में सभी खामियों  सहित यथास्थिति को फिर से स्थापित कर देंगे। 

किसानों को दिए गए विकल्पों के लिए मैं समर्थन देता हूं (सभी लोगों को एक ही समय में मूर्ख बना सकते हैं: पंजाब केसरी में प्रकाशित लेख 27 सितम्बर 2020) मैं यह भी सोचता हूं कि ए.पी.एम.सी. को धीरे-धीरे हटाया गया है क्योंकि बेशक उन्होंने एक लाभदायक मंशा को निभाया है जोकि किसानों के एक वर्ग के लिए सुरक्षा कवच है। फिर भी वह व्यापारिक पाबंदियां हैं। इन कारणों के लिए पूरे दस्तावेज रखे गए हैं। ए.पी.एम.सी. उत्कृष्ट मार्कीटें नहीं हैं और सभी किसानों की सेवा नहीं कर सकतीं। किसानों के लिए इसे प्राप्त करने के लिए ऊंची-ऊंची किराए की दर देनी पड़ती है। 

मगर ए.पी.एम.सी. को धीरे-धीरे हटाने से पहले किसानों को एक अच्छा विकल्प देना होगा। यह विकल्प बहु विकल्प मार्कीटों का है जो हजारों की तादाद में गांवों तथा छोटे कस्बों में स्थित है। इन तक किसानों की पहुंच आसान है और राज्य सरकार द्वारा उत्पाद की कीमत तथा उसके वजन के अनुसार क्रम में रखा गया है। विकल्प वाली इन मार्कीटों पर किसान जा सकते हैं तथा अपनी फसल को बेच सकते हैं। वसूली करने वाली एजैंसियां तथा निजी व्यापारी इन्हें खरीद सकते हैं मगर इनकी कीमत अधिसूचित एम.एस.पी. से कम नहीं हो। इस तरह किसानों का एक बहुत बड़ा हिस्सा वर्तमान से भिन्न एम.एस.पी. को प्राप्त करेगा या बेहतर कीमत अपनी उपज के लिए पाएगा। गलत धारणाएं भी उठाई गई हैं कि यदि एम.एस.पी. की एक कानूनी गारंटी होगी तो इसकी अवहेलनाओं को जांचना, मुकद्दमेबाजी तथा हजारों व्यापारियों को जेल होना  अपेक्षित होगा। यह सब फिजूल की बातें हैं। किसानों की मार्कीटों की परिसीमा में बिक्री तथा खरीद के लिए कानूनी गारंटी लागू होगी। 

मोदी सरकार के नए कानून ऐसे हजारों किसानों के बाजारों को उत्पन्न नहीं करते। इसके विपरीत फसल की बुवाई, अधिशेष को मार्कीट में बेचने तथा व्यापारी के व्यवहार को लेकर प्रत्येक राज्य अपने आप में अनूठे हैं। राज्यों को कृषि उपज में व्यापार के विषय को लेकर कानून बनाने दें। यहां पर पंजाब माडल हो, या फिर बिहार माडल चुनने का विकल्प हो, राज्य सरकार, किसान तथा राज्य के लोगों को यह निर्णय करने का हक हो कि उनके राज्य के लिए क्या बेहतर है? यही एक अच्छा संघवाद होगा। सरकार के पास कोई विकल्प नहीं, बस शोर ही शोर है।-पी. चिदम्बरम

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