पाकिस्तान के ‘अस्तित्व और इतिहास’ में ही हैं आतंकवाद की जड़ें

Edited By ,Updated: 06 Jun, 2016 12:04 AM

these are the roots of terrorism in pakistan s existence and history

एक दशक से भी अधिक समय से पाकिस्तान पर आतंकवाद के समर्थन का दोष लग रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि ...

एक दशक से भी अधिक समय से पाकिस्तान पर आतंकवाद के समर्थन का दोष लग रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि एक ओर तो वह जम्मू-कश्मीर में भारतीय शासन का विरोध कर रहे उग्रवादियों को समर्थन दे रहा है और दूसरी ओर अफगानिस्तान में तालिबानियों केसमानांतर सरकार की पीठ थपथपा रहा है। 
 
11 सितम्बर 2001 को जब आतंकवादियों ने न्यूयार्क स्थित विश्व व्यापार केन्द्र और पैंटागन पर हमला किया तो पाकिस्तान ने अमरीकी दबाव के आगे झुकते हुए अपनी दिशा पूरी तरह बदलने एवं आतंकवाद के विरुद्ध स्टैंड लेने की बात मान ली। पाकिस्तान अमरीका का एक कुंजीवत सहयोगी बन गया। अफगानिस्तान में अमरीकी सैन्य कार्रवाइयों का रास्ता सुखद बनाने के साथ-साथ अल कायदा आतंकियों के बारे में गुप्त जानकारियां सांझी करनी शुरू कर दीं। 
 
इसके बावजूद आतंकवादी पाकिस्तान के अंदर और बाहर अपनी गतिविधियां जारी रखे हुए हैं। अब यह देश एक ओर तो आतंकवाद की चांदमारी बना हुआ है, वहीं दूसरी ओर अमरीकी नीतिकारों द्वारा इसे दक्षिण एशिया में आतंकवाद समाप्त करने की कुंजी समझा जा रहा है। भविष्य में पाकिस्तान जो भी दिशा अपनाएगा, वह आतंकवाद के विरुद्ध अमरीका नीत युद्ध के लिए महत्वपूर्ण होगी। लेकिन पाकिस्तानी सेना और इस्लामपरस्तों के बीच लम्बे समय से चले आ रहे ऐतिहासिक गठजोड़ में आतंक विरोधी कार्रवाइयों को विफल करने, इस्लामी जगत के महत्वपूर्ण अंगों को उग्र रूप देने एवं भारत और पाकिस्तान को एक अन्य युद्ध में झोंकने की संभावना छिपी हुई है।
 
पाकिस्तानी इस्लामपरस्तों ने अक्तूबर 2002 में हुए आम संसदीय चुनावों में अपनी अब तक की सबसे सशक्त कारगुजारी दिखाते हुए जहां 11.1 प्रतिशत वोट हासिल किए थे, वहीं संसद के निचले सदन में 20 प्रतिशत सीटें भी जीत ली थीं। उन्होंने पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत (एन.एफ. डब्ल्यू.पी.), जिसे ‘खैबर पख्तूनख्वा’ का नया नाम दिया गया है, में 2002 से 2008 तक प्रादेशिक शासन पर नियंत्रण जमाए रखा। पाकिस्तान के तत्कालीन शासक परवेज मुशर्रफ ने अपने देश की नीतियों की दिशा में जेहादी अतीत से अलग और आमूल-चूल परिवर्तन करने के विषय में दुनिया को अपने इरादों के बारे में सुनिश्चित करवाया। 
 
12 जनवरी 2002 को एक महत्वपूर्ण नीतिगत भाषण में उन्होंने पाकिस्तान के अंदर ‘कश्मीरी स्वतंत्रता सेनानियों’ (यानी कश्मीरी आतंकियों) सहित घरेलू इस्लामपरस्त उग्रवादियों का प्रभाव सीमित करने के कदमों की घोषणा की और कड़े शब्दों में कहा कि किसी भी संगठन को कश्मीर के बहाने आतंकवाद फैलाने की अनुमति नहीं दी जाएगी और जो भी ऐसी गतिविधियों में शामिल होगा, उसके साथ पाकिस्तान सरकार कड़ाई से पेश आएगी, चाहे वह आतंकी देश के अंदर से आया हो या बाहर से। 
 
लेकिन जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि मुशर्रफ सरकार ने ‘आतंकवादियों’ और ‘स्वतंत्रता सेनानियों’ में भेद करना शुरू कर दिया। (आतंकवादी शब्द मुख्य रूप में विदेशी मूल के अल कायदा सदस्यों के लिए और ‘स्वतंत्रता सेनानी’ कश्मीरी उग्रवादियों के लिए प्रयुक्त किया जाता था।) पाकिस्तान की नीति का यह दोगलापन एक ढांचागत समस्या है,  जिसकी जड़ें पाकिस्तान के इतिहास में हैं और जिसे लगातार शासकीय नीति के रूप में अपनाया जाता है। यह किसी सरकार के लापरवाही में लिए गए फैसलों मात्र का नतीजा नहीं, जैसा कि व्यापक रूप में लोगों को भ्रम है। (बहुत से लोगों को तो ऐसा लगता है कि 1977 में जिया-उल-हक के समय में लिए गए फैसलों से ही शायद इस नीति की शुरूआत हुई है।)
 
पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के समय से ही इसके नेता राष्ट्रीय पहचान को सुदृढ़ करने हेतु धार्मिक भावनाओं को एक उपकरण के रूप में प्रयुक्त करते रहे हैं। हालांकि इसके शासक पश्चिम-समर्थक  होने की नौटंकी करते थे फिर भी भारत का काल्पनिक खतरा दिखाकर इस्लाम के नाम पर लोगों को एकजुट करते रहे हैं। इस तरह के शासकों ने उग्र इस्लाम को अपने हाथों का खिलौना बनाने का प्रयास करते हुए इसे ऐसा रूप देना चाहा कि यह अंदरूनी राजनीति या पश्चिमी देशों के साथ रिश्तों को अस्थिर किए बिना राष्ट्र निर्माण में सहायक हो सके। 
 
जनरल जिया-उल-हक तो दूसरों से दो कदम आगे बढ़ते हुए पाकिस्तान के कानूनी और शैक्षणिक ढांचे का ‘इस्लामीकरण’ करने तक चले गए लेकिन उनकी इस्लामीकरण की नीति कोई अनूठा भटकाव नहीं थी, बल्कि सत्ता अधिष्ठान की लम्बे समय से चली आ रही विचारधारा का ही विस्तार थी। घरेलू राजनीति को प्रभावित करने और सेना के राजनीतिक वर्चस्व हेतु समर्थन जुटाने के लिए सत्ता तंत्र द्वारा अलग-अलग वक्तों पर इस्लामपरस्त गुटों को प्रायोजित किया गया और उन्हें समर्थन दिया गया। 
 
अफगानिस्तान में रणनीतिक बढ़त हासिल करने एवं कश्मीर के भविष्य को लेकर भारत पर वार्ताओं का दबाव बनाने के  पाकिस्तानी सेना के प्रयासों में इस्लामपरस्त सदा ही सहभागी रहे हैं। जैसा कि कभी-कभार होता ही है, वैचारिक रूप में प्रेरित इस्लामपरस्तों और उनके सत्ता में बैठे संरक्षकों के बीच रिश्ते सदा खुशगवार नहीं होते। यही कारण है कि पाकिस्तानी जनरल 9/11 की घटना के बाद के दौर में इस्लामपरस्तों को पूरी तरह नियंत्रित करने में सफलता हासिल नहीं कर पाए। पाकिस्तान में सेना तथा मस्जिद (यानी कि इस्लाम) के बीच गठबंधन रातों-रात अस्तित्व में नहीं आ गया था। इसके पीछे अनेक वर्षों की साधना है और इसका चरित्र भी पाकिस्तानी इतिहास में आए उतार-चढ़ावों के साथ-साथ बदलता रहा है। 
 
अगस्त 1947 में पाकिस्तान के एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आने के दिन से ही इसके सत्ता तंत्र के प्रमुख संस्थान-खास तौर पर सेना और गुप्तचर सेवाएं मजहब के आधार पर राष्ट्रीय पहचान का निर्माण करने में अग्रणीय भूमिका निभाते आए हैं। प्रारंभिक दौर में ‘विचारधारा’ पर आधारित ‘सत्ता तंत्र’ के प्रति जो राजनीतिक प्रतिबद्धता थी, वह कालांतर में जेहादी विचारधारा के प्रति सामरिक प्रतिबद्धता का रूप धारण कर गई। यह  ‘पवित्र धर्मयुद्ध’ की विचारधारा है, जो खास तौर पर 1971 के बंगलादेश युद्ध के बाद अपने बिशुद्ध रूप में सामने आई। इस युद्ध में पाकिस्तानी सेना ने जेहादी मुहावरा प्रयुक्त किया था, ताकि लोकतांत्रिक ढंग से बहुमत हासिल करने वाले बंगलाभाषी बहुमत के नेताओं को किसी भी कीमत पर सत्ता से बाहर रखा जाए। 
 
बंगलादेश के स्वतंत्र हो जाने के बाद पश्चिमी पाकिस्तान में विभिन्न नस्लीय और भाषायी समूहों को मजहब के आधार पर एकजुट करके राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने की जरूरत बहुत ही महत्वपूर्ण बन गई और इस जरूरत ने अधिक से अधिक उग्र रूप धारण करने शुरू कर दिए। ‘मिलिट्री और मस्जिद’ के बीच गठबंधन के फलस्वरूप धीरे-धीरे सशस्त्र और गैर-सशस्त्र मजहबी गुट अधिक शक्तिशाली होते गए। इन्हीं में से इस्लामी विचारधारा के वे उग्र रूप सामने आए, जो कभी-कभार पाकिस्तान की स्थिरता के लिए ही खतरा बन गए। यानी कि सत्ता तंत्र की अपनी ही परियोजना कई बार गलत दिशा धारण करती रही।       (सौजन्य  ‘पैंग्विन वाइकिंग’)
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