ऐसे होगा गाय और वनों का ‘संरक्षण’

Edited By ,Updated: 04 Sep, 2019 12:54 AM

this is how  conservation  of cows and forests

भारत में हर दिन लाखों लोगों की मृत्यु होती है। मुस्लिम अपने मृतकों को दफनाते हैं। ङ्क्षहदू उन्हें जलाते हंै। पूरी दुनिया में मानव शरीर को जलाने के लिए पारंपरिक रूप से लकड़ी, बिजली या गैस का उपयोग किया जाता है, लेकिन जलाने के लिए कोई और ‘खराब’ लकड़ी...

भारत में हर दिन लाखों लोगों की मृत्यु होती है। मुस्लिम अपने मृतकों को दफनाते हैं। ङ्क्षहदू उन्हें जलाते हैं। पूरी दुनिया में मानव शरीर को जलाने के लिए पारंपरिक रूप से लकड़ी, बिजली या गैस का उपयोग किया जाता है, लेकिन जलाने के लिए कोई और ‘खराब’ लकड़ी नहीं बची हैं। दिल्ली में एक अनोखा उपाय खोजा गया है। सरकारी माली दिखाते हैं कि वे मौजूदा पेड़ों को ‘छांटने’ जा रहे हैं। वे ज्यादातर बड़ी शाखाओं को काट देते हैं (अक्सर पेड़ को मार डालते हैं) और उन्हें निगमबोध घाट को बेच देते हैं। इससे मिलने वाले पैसे को पूरे विभाग में बांटा जाता है। 

ग्रामीण भारत में, किसी गांव में एक मृत्यु का अर्थ है कि एक पेड़ काटा जाएगा और सबसे आसान शिकार आम के पेड़  हैं। इसलिए जंगली आम गायब हो रहे हैं और उनके साथ पूरा अचार उद्योग समाप्त हो रहा है। एक शव को जलाने में करीब 600 किलो लकड़ी लगती है। दाह संस्कार करने वाले के लिए इसकी कीमत 15,000 रुपए या उससे अधिक होती है। एक पेड़ को काटने का कार्य स्वयं अवैध है लेकिन जब किसी को माता-पिता का अंतिम संस्कार करना हो तो कौन परवाह करता है। 

एक अलग समस्या दूध देना बंद कर चुकी गाय हैं। किसान उसे कसाई को बेचना नहीं चाहता है, लेकिन वह ऐसा करता है या उन्हें सड़क पर छोड़ दिया जाता है। वह खेतों में भटकती है और लाठियों से पीट-पीटकर उसकी हत्या कर दी जाती है या उसके पैरों को कंटीले तारों द्वारा क्रूर तरीके से काटा जाता है जिसका ज्यादातर किसान अवैध रूप से इस्तेमाल करते हैं। बरेली में हर रोज सैंकड़ों गंभीर रूप से घायल गाएं मेरे अस्पताल में आती हैं, उनकी चमड़ी उनकी जांघों से हटी हुई होती है और उनकी हड्डियां दिख रही होती हैं। गौशालाएं बहुत कम और काफी दूरी पर हैं और उनमें से ज्यादातर इस कोमल जानवर के लिए जेल की कोठरी हैं जो अक्सर वहां भूख से मर जाती हैं। किसी भी गौशाला का कोई उचित प्रबंधन नहीं है, कोई डॉक्टर नहीं और अक्सर मालिक दूध न देने वाली गाय के प्रति वही तिरस्कार दिखाते हैं जो उसके पहले के मालिकों ने दिखाया था। 

इन दोनों समस्याओं का एक व्यावसायिक समाधान यह है कि हमें गाय के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है। दूध गाय का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं है, यह उसका गोबर है। इस गोबर का उपयोग दाह संस्कार में किया जाना चाहिए। हिंदुओं के लिए, गाय पवित्र है और इसलिए लकड़ी के बजाय गोबर का उपयोग करने में कोई समस्या नहीं आनी चाहिए। गोबर के लॉग बनाने की एक मशीन है। दिल्ली में मेरी गौशाला ने दो साल पहले इसे खरीदा था और हम लोग इसे निगमबोध घाट को बेचते हैं। भले ही हम इसमें नियमित नहीं हैं क्योंकि हम वास्तव में गायों को बचाने में बहुत व्यस्त हैं, हम प्रति माह 60,000 रुपए कमाते हैं। यह निगमबोध की जरूरत का एक छोटा-सा हिस्सा है, वे उस मात्रा से सौ गुना को खपा सकते हैं। 

गाय के गोबर के लॉग में लागत कम होती है। कुछ समय पहले तक एक दृश्यगत समस्या थी क्योंकि लोग अपने रिश्तेदारों को गोल कंडों/उपलों से नहीं जलाना चाहते थे। लेकिन अब उन्हें इस मशीन द्वारा लंबे लॉग में बनाया जा रहा है। मशीन में ताजा गाय का गोबर डालते समय हम थोड़ी सुगंधित ‘हवन सामग्री’ भी डाल देते हैं। गाय के गोबर से लॉग बनाने की मशीन की कीमत बहुत कम है— 25,000 रुपए से 35,000 रुपए के बीच। 

मशीन के हॉपर में गोबर और पुआल (या किसी भी कृषि अपशिष्ट-कटी हुई फसल के अवशेष)  का एक संयोजन डाला जाता है। मशीन में एक स्क्रू मैकेनिज्म है जो कच्चे माल को अच्छी तरह से मिलाने, उसे कंप्रैस करने और बाहर निकालने में मदद करता है। विभिन्न आकार के लॉग के लिए अलग-अलग सांचे हैं। इसके बाद लॉग को सूर्य की रोशनी में सूखने के लिए डाल दिया जाता है जिससे वे सख्त और मजबूत हो जाते हैं। मशीन को बिजली से, एक हार्स पावर मोटर या हाथ से चलाया जा सकता है। इसे चलाना आसान है, कम रखरखाव चाहिए होता है और कोई कठोर श्रम की आवश्यकता नहीं होती है। यहां तक कि महिलाएं भी इसे कुशलता से चला सकती हैं। 

भारत के लगभग हर गांव में एक श्मशानघाट है। हर शहर में निश्चित रूप से दो होते हैं। अगर कोई उन्हें लॉग की आपूर्ति का ठेका ले ले तो वे गौशाला और खुद के लिए लाखों कमा सकते हैं। गाएं भूख से मरना बंद हो जाएंगी और उनके साथ अधिक अच्छा व्यवहार किया जाएगा। गाय के गोबर से एक और बहुत महत्वपूर्ण समस्या हल हो सकती है। भारत में पेड़ों को वन विभाग द्वारा लगाया जाना होता है। उन्हें पेड़ उगाने और फिर उन्हें रोपने के लिए हर साल करोड़ों रुपए मिलते हैं। उनकी सफलता की दर उनके स्वयं के आंकड़ों के अनुसार, 2 प्रतिशत है। 

कारणों में से एक (इस तथ्य के अलावा कि वे अपनी नर्सरी में पौधों को कभी नहीं उगाते हैं और पैसे हड़प लेते हैं!) यह है कि वे मोटी काली प्लास्टिक की थैलियों में पौधे उगाते हैं जिन्हें वे 4 रुपए प्रत्येक में खरीदते हैं। यह महंगा है लेकिन इससे भी बदतर, इन पौधों को आमतौर पर लापरवाह वन श्रमिकों द्वारा प्लास्टिक के साथ लगाया जाता है जिसके परिणामस्वरूप इनके मरने की दर 100 प्रतिशत होती है। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश ने कथित रूप से प्रत्येक वर्ष 1 करोड़ पेड़ लगाए थे। कुछ सौ से कम ही बचे हैं। अपने कर के पैसे की बर्बादी के बारे में सोचें।

उसी निर्माता द्वारा एक और मशीन विभिन्न आकार के पौधों के गमलों को बनाने के लिए मौजूद है। इन्हें व्यावसायिक रूप से बेचा जा सकता है और वन विभाग की नर्सरियों तथा निजी नर्सरियों को दिया जा सकता है। गमले पौधों को पोषण देते हैं, बारिश तथा पानी को झेलते हैं और पौधों के साथ मिट्टी में भी लगाए जा सकते हैं। हम पेड़ों में नाटकीय वृद्धि कर सकते हैं और जलवायु परिवर्तन को पलट देंगे। प्रत्येक राज्य सरकार को अपनी नीति में बदलाव करना चाहिए, इसलिए यदि आप इसे पढ़ रहे हैं, तो कृपया इसे काट लें और मुख्यमंत्रियों और वन सचिवों को भेजें। (आपको सच बताती हूं, मैंने एक राज्य के साथ प्रयास किया। मुख्यमंत्री सहमत हो गए। मैंने मशीन भेज दी। स्थानीय वन अधिकारियों ने कहा कि यह सफल नहीं हुई। यह पता चला कि प्लास्टिक विक्रेता उन्हें प्रति बैग एक रुपए का भुगतान करते हैं)।-मेनका गांधी
 

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