मध्य प्रदेश की ‘राजनीति’ का यही स्वाभाविक हश्र है

Edited By ,Updated: 14 Mar, 2020 03:51 AM

this is the natural fate of politics of madhya pradesh

बेंगलूरु  से आई तस्वीरों में जिस तरह कांग्रेस का परित्याग करने वाले विधायक मुस्कुराते दिख रहे थे उससे यह कहना कठिन है कि उन पर किसी प्रकार का दबाव था। साफ है कि कांग्रेस के अंदर यह मुख्यत: कमलनाथ तथा कुछ हद तक दिग्विजय सिंह एवं केन्द्रीय नेतृत्व...

बेंगलूरु  से आई तस्वीरों में जिस तरह कांग्रेस का परित्याग करने वाले विधायक मुस्कुराते दिख रहे थे उससे यह कहना कठिन है कि उन पर किसी प्रकार का दबाव था। साफ है कि कांग्रेस के अंदर यह मुख्यत: कमलनाथ तथा कुछ हद तक दिग्विजय सिंह एवं केन्द्रीय नेतृत्व यानी 10 जनपथ के खिलाफ विद्रोह है। इस समय यह कहना आसान है कि भाजपा ने योजनापूर्वक इसे प्रोत्साहित कर अंजाम तक पहुंचाया। किंतु, कोई भी विधायक सामान्य स्थिति में अपनी विधायकी को जोखिम में नहीं डालता। पता नहीं अगली बार वह जीतकर आए या नहीं। अगर विद्रोही विधायकों ने अपने राजनीतिक करियर को दाव पर लगा दिया तो इसके कारण इतने सरल नहीं हो सकते। 

अंतिम विद्रोह से पहले सिंधिया ने सोनिया गांधी से मिलने की कोशिश की थी
जब ज्योतिरादित्य सिंधिया भोपाल से दिल्ली और दिल्ली से भोपाल व ग्वालियर का चक्कर लगा रहे थे तो किसी ने उनके असंतोष  क्षोभ को समझने तथा उन्हें विश्वास में लेने की कोशिश नहीं की। यह भी साफ हो गया है कि अंतिम विद्रोह से पहले सिंधिया ने सोनिया गांधी से मिलने की कोशिश की थी। सोनिया गांधी का उनसे न मिलना समझ से परे है। एक व्यक्ति, जो अपनी पिता की मृत्यु के बाद से कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में शुमार हो, जिसने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए दिन-रात एक किया हो, जिसकी विजय में महत्वपूर्ण भूमिका हो उसकी स्थिति इतनी दीनहीन बना दी जाए कि न प्रदेश का नेतृत्व उसकी सुने और न केन्द्रीय नेतृत्व तो उसके पास विद्रोह का ही विकल्प बचता है। सच यही है कि कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व यानी कमलनाथ एवं दिग्विजय की जोड़ी ने तथा उनके सुझाव पर सोनिया गांधी तथा उनके रणनीतिकारों ने अपनी अन्यायपूर्ण अनदेखी से सिंधिया को इस सीमा तक जाने को मजबूर किया है। आज वे भाजपा पर जितने चाहे आरोप लगा लें, इसके असली दोषी वे ही हैं। 

अगर सिंधिया को भविष्य की राजनीति करनी है तो उनके पास विकल्प क्या था? यही न कि विद्रोह कर अपनी पार्टी बनाएं या प्रदेश की दूसरी प्रमुख पार्टी का दामन थाम लें। आश्चर्य की बात तो यह है कि भाजपा नेतृत्व से उनका सम्पर्क लोकसभा चुनाव के समय से ही था पर कांग्रेस ने इसका संज्ञान ही नहीं लिया। विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री के चयन पर सिंधिया ने जो तेवर अपनाया था उसे केन्द्रीय नेतृत्व ने पता नहीं कितनी गम्भीरता से लिया। किसी भी नेता के लिए अपनी मूल पार्टी का परित्याग करना आसान नहीं होता। सिंधिया की अपनी पूरी राजनीति कांग्रेस के अंदर और भाजपा के खिलाफ रही है। ऐसा व्यक्ति केवल भाजपा नेताओं द्वारा राज्यसभा में भेजने तथा केन्द्र में मंत्री बना देने के लालच में पार्टी से विद्रोह नहीं कर सकता। अगर हम इसे यहीं तक सीमित मानते हैं तो फिर मध्य प्रदेश की वास्तविक राजनीतिक स्थिति एवं कांग्रेस के पूरे संकट को नजरअंदाज करते हैं। 

क्या कोई यह कह सकता है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 114 सीटें दिलवाने में सिंधिया की किसी नेता से कम भूमिका रही है? ग्वालियर और चंबल क्षेत्र में कांग्रेस को काफी बढ़त मिली थी। दिग्विजय सिंह को तो पार्टी ने बाद में चुनाव प्रचार तक करने से रोक दिया था, क्योंकि माना गया था कि उनके कारण हिन्दुओं का मत कट सकता है। तो दो ही मुख्य नेता थे, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ। इसमें सिंधिया को पूरी तरह नजरअंदाज करना इस दुखद सच को साबित कर रहा था कि पार्टी का जो भी केन्द्रीय नेतृत्व बचा है उसको वस्तु स्थिति का एहसास नहीं है। राजस्थान में सचिन पायलट को स्पष्ट विद्रोह के बाद सरकार में दूसरे नम्बर की जगह दी गई लेकिन सिंधिया को नहीं। प्रदेश अध्यक्ष का पद तक उन्हें नहीं दिया। लोकसभा चुनाव में गुना से पराजय के बाद प्रदेश में उन्हें अवांछित नेता की तरह बना दिया गया। राज्यसभा चुनाव में आप उनको उम्मीदवार न बनाएं तो उनसे राय-विमर्श तक नहीं करेंगे! 

ऐसी सरकार हमेशा पतली रस्सी पर चलती है 
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस पार्टी को विधानसभा में पूर्ण बहुमत तक नहीं था, सरकार निर्दलीयों, बसपा एवं सपा के समर्थन से चल रही थी, उसके नेता ऐसा व्यवहार कर रहे थे मानो वे अपार बहुमत की सरकार चला रहे हों। कांग्रेस का विद्रोह तो छोडि़ए, 4 निर्दलीयों, 2 बसपा एवं सपा के एक विधायक तक के पाला बदलने के साथ सरकार अल्पमत में आ जाती। ऐसी सरकार हमेशा पतली रस्सी पर चलती है और मुख्यमंत्री को एक-एक कदम सोच-समझकर उठाना पड़ता है। 

वास्तव में विधायक ही नहीं, कई मंत्री कमलनाथ पर निरंकुश शैली अपनाने का आरोप लगाते रहे, किंतु जब केन्द्र के स्तर पर ही अस्त-व्यस्तता हो तो कोई शिकायत करे तो कहां। एक विधायक ने त्यागपत्र देते हुए कहा भी है कि जब क्षेत्र का और जनता का काम ही नहीं होगा तो विधायक रहने से क्या फायदा। उनके अनुसार कमलनाथ से जब भी मिलने जाओ वे कहते थे कि बाद में आना। यह कैसा व्यवहार है? अगर यह सच है तो केवल एक व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार कमलनाथ का नहीं रहा होगा। 

भाजपा ज्यादा मत पाते हुए भी बहुमत से वंचित रह गई थी
आप सोचिए न जब सिंधिया ने एक सभा में कहा कि अगर जनता से किए गए वायदे पूरे नहीं हुए तो उन्हें सड़कों पर आना होगा तो कमलनाथ का टका सा प्रत्युत्तर था कि जिसे सड़क पर आना है वो जरूर आए। इससे ज्यादा किसी को उत्तेजित करने वाला जवाब क्या हो सकता था? इसके बाद सिंधिया के पास क्या रास्ता बचा हुआ था। भाजपा ज्यादा मत पाते हुए भी बहुमत से वंचित रह गई थी। इसमें उसकी नजर कांग्रेस और सरकार की आंतरिक कलह पर रहनी ही थी। इसका लाभ उठाने की कोशिश भी उसे करनी थी। क्या कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और सोनिया गांधी एवं उनके रणनीतिकारों को इसका एहसास नहीं था। ऐसी स्थिति में तो उन्हें ज्यादा सतर्क रहना चाहिए था। 

हालांकि इतने के बावजूद यदि पार्टी का केन्द्रीय ढांचा सशक्त होता तो शायद मध्य प्रदेश की सरकार कुछ समय के लिए बचाई जा सकती थी। राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद हुई बैठक में पुराने नेताओं को आड़े हाथों लिया लेकिन सुधार करने की जगह अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद से व्यवहार में राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के आलाकमान का ढांचा ही चरमरा गया। काफी समय बाद सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया लेकिन अभी तक केन्द्रीय नेतृत्व का कोई सामान्य ढांचा है ही नहीं। इसका लाभ कांग्रेस की प्रदेश सरकारों के सारे मुख्यमंत्री और प्रमुख नेता उठा रहे हैं। विद्रोह भी हो रहा है, जिसका समाधान करने वाला कोई नहीं है। 

सोनिया गांधी की समस्या है कि ऐसे दुर्दशा काल में वे उन लोगों को नाराज नहीं कर सकतीं जो सरकार का या पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे परिवार के विश्वस्त एवं निकट के नेता की कमलनाथ और दिग्विजय की तुलना में अनदेखी से पता चलता है कि कांग्रेस कितने गहरे संकट की शिकार है। कमलनाथ आए और 20 मिनट में सोनिया गांधी से मिलकर अभयदान लेकर वापस चले गए लेकिन सिंधिया की सुनने वाला कोई नहीं। पार्टी कमान की ऐसी दशा में मध्य प्रदेश की अल्पबहुमत पर टिकी सरकार का यही स्वाभाविक हश्र होगा। 

इस तरह मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार का पतन स्वयं कांग्रेस नेतृत्व की विफलता है। हम मानते हैं कि जनादेश के आधार पर कोई सरकार गठित होती है तो उसे कार्यकाल पूरा करना चाहिए। लेकिन आप महाराष्ट्र में भाजपा एवं शिवसेना गठबंधन को बहुमत मिलने के बावजूद सरकार बना लीजिए तो वह नैतिक और मध्य प्रदेश में भाजपा आपके आंतरिक विद्रोह का लाभ उठा ले तो वह अनैतिक हो गया, इस तर्क से आज कोई निरपेक्ष व्यक्ति सहमत नहीं हो सकता। भाजपा ने महाराष्ट्र का राजनीतिक प्रतिशोध ले लिया है।

कर्नाटक का जनादेश भी कांग्रेस के खिलाफ था लेकिन भाजपा के बहुमत से थोड़ा पीछे रहने का लाभ उठाकर इसने जद (एस) के साथ मिलकर सरकार बना ली। उसे किस पैमाने पर नैतिक कहा जाएगा? हालांकि उसका हश्र भी वही हुआ जो आज मध्य प्रदेश का है। अगर कांग्रेस ने अपनी सांगठनिक, वैचारिक और रणनीतिक दुर्दशा को दूर नहीं किया तो उसे आगे भी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा। इस घटना से भाजपा के अंदर नया आत्मविश्वास आ सकता है कि उसकी ओर अभी भी नेताओं का आकर्षण है और इसका असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी होगा।-अवधेश कुमार 
 

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