यही तय करेंगे 'बाजार का ट्रेंड' और 'राजनीति' की धारा!

Edited By Punjab Kesari,Updated: 21 Feb, 2018 07:45 PM

this will determine the trends of the market and the politics section

बदलते समय के साथ विज्ञापन, मार्केटिंग और ब्रांडिंग को लेकर कई नए ट्रेंड सामने आए हैं जो आने वाले दिनों में नई उम्मीद जगाते हैं। ख़ास बात ये कि इसकी नीव रखी है डिजिटिल मीडिया, सोशल मीडिया और इंफ्लुएंसर मार्केटिंग (एआर) ने! विज्ञापन बाजार पर नए ट्रेंड...

नई दिल्ली (मालिकराम): बदलते समय के साथ विज्ञापन, मार्केटिंग और ब्रांडिंग को लेकर कई नए ट्रेंड सामने आए हैं जो आने वाले दिनों में नई उम्मीद जगाते हैं। ख़ास बात ये कि इसकी नीव रखी है डिजिटिल मीडिया, सोशल मीडिया और इंफ्लुएंसर मार्केटिंग (एआर) ने! विज्ञापन बाजार पर नए ट्रेंड का बढता महत्व और टेक्नोलॉजी का विज्ञापन पर बढ़ता प्रभाव सबसे महत्वपूर्ण है।अब सिर्फ अख़बारों में या टीवी  पर विज्ञापन देना काफी नहीं है। नया ट्रेंड सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया पर अपने प्रोडक्ट को विज्ञापित करना है।

आंकड़े बताते हैं कि प्रिंट मीडिया का बाजार 8%, टीवी 12% और डिजिटल / सोशल मीडिया का 24% प्रति साल की दर से बढ़ रहा है। आने वाले सालों में डिजिटल और सोशल मीडिया का बाजार और ज्यादा तेजी से बढ़ेगा! इसका सीधा सा कारण है कि विज्ञापन एजेंसियों को जहाँ उपभोक्ता दिखेगा, वहीं वे उसे प्रभावित करने की कोशिश करेंगी। ऐसे में तय है कि 2018 में सबसे ज्यादा प्रभावशाली क्षेत्र यही होगा। 

2018 में विज्ञापन जगत के हॉट ट्रेंड के ब्रांड का फोकस डिजिटिल और सोशल मीडिया होगा। सबसे ज्यादा विस्तार होने वाला क्षेत्र डिजिटल मीडिया ही होगा। जो माहौल 2017 में दिखाई दिया, उसके मुताबिक डिजिटल, सोशल और इंफ्लुएंसर मार्केटिंग हर मामले में हावी रहेगा। 2018 में 'एआरटी' यानी 'ऑगमेंटेड रियलिटी टेक्नोलॉजी' का ही विज्ञापन बाजार पर असर बढ़ता दिखेगा।

आने वाले सालों में विज्ञापन जगत में वीडियो का भी दखल बढ़ेगा, जिसका चलन सोशल मीडिया में शुरू भी हो गया है। इससे ब्रांड और उपभोक्ता के बीच की दूरी घट रही है। इसके अलावा अब रीजनल प्लेयर्स भी इस मैदान में दिखाई देंगे। लेकिन, हर ब्रांड का फोकस डिजिटल मीडिया पर ही होगा। स्मार्टफोन ने ब्रांड-कंज्यूमर की दूरी को कम कर दिया है। अनुमान कि 2018 में डिजिटल मार्केटिंग 25-30 फीसदी बढ़ेगी। इसलिए कि ब्रांड की उपभोक्ता  तक पहुंच आसान हुई है।

देश में अनुमानत: तकरीबन 12 से 15 करोड़ से अधिक ऐसे लोग हैं जो इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। इनमें से तीन करोड़ से ज्यादा लोग रोज ऑनलाइन होते हैं। इसके अलावा देश में सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल करने वाले करीब 5 से 6 करोड़ लोग हैं। इनमें ज्यादातर लोग फेसबुक और लिंक्डइन पर हैं। इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले सभी लोगों में करीब 70 फीसदी लोग वहां रियलिटी शो, फिल्म के ट्रेलर, विज्ञापन आदि से जुड़े वीडियो भी देखते हैं।

देश में 10 हज़ार से ज्यादा इंटरनेट कैफे हैं। इसके अलावा देश में करीब 20 करोड़ मोबाइल फोन कनेक्शन हैं, जिनमें से करीबन 15 प्रतिशत स्मार्ट फोन हैं, जिनपर इंटरनेट सुविधा उपलब्ध है। ये आंकड़े अपने आप में बहुत व्यापक नजर आते हैं। लेकिन, जब 1.2 अरब की आबादी के नजरिए से देखा जाए तो ये उतने व्यापक नजर नहीं आते। इसलिए जब डिजिटल मीडिया को एक सहायक माध्यम के तौर पर देखा जाता है, तो आश्चर्य नहीं होता है। हालांकि, यह बात सोचने की है कि क्या हमारे पास इस विस्तार को मापने का सही पैमाना है और क्या पहुंच के मामले में डिजिटल मीडिया बहुत जल्द बड़ा स्वरूप ग्रहण कर लेगा? 

मीडिया बाजार का स्वरूप कितनी तेजी से बदल रहा है यह बात चकित करने वाली है। 80 के दशक को याद करें, तो उस वक्त भारत में प्रिंट मीडिया का दबदबा था और महज दो ही सरकारी टेलीविजन चैनल थे। इनका स्वामित्व दूरदर्शन के पास था। 90 के दशक में जब अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की शुरुआत हुई तो टेलीविजन जगत में भी तेजी आई और मीडिया जगत पर अचानक टेलीविजन का वर्चस्व हो गया। नई सदी में लक्जरी और प्रीमियम ब्रांडों के उदय तक प्रिंट मीडिया के रचनात्मक लोग प्रमोशनल विज्ञापनों तक सिमट कर रह गए।

90 के दशक के अंत की बात करें तो मोबाइल फोन एक ऐसी लक्जरी थे जिनका इस्तेमाल एक खास तबके के लोग ही करते थे। आज हर हाथ में मोबाइल है। किसी कार्यक्रम की प्रतिक्रियास्वरूप एसएमएस करना आम बात हो चुकी है। अगर व्यापक पैमाने पर डिजिटल को परिभाषित किया जाए और इंटरनेट और मोबाइल को इसमें शामिल कर लिया जाए तो संचार का समूचा परिदृश्य बदला हुआ नजर आ सकता है। यह कुछ ऐसे ही होगा जैसे 90 के दशक में टेलीविजन की वजह से हुआ था। यह बदलाव किसी भी क्षण हो सकता है। मोबाइल और कंप्यूटर की स्क्रीन बहुत जल्द संचार और आपसी चर्चा का दबदबे वाला माध्यम बन सकती है।

अधिकांश बाजारविदों के लिए अधिकाधिक उपभोक्ताओं तक संदेश का प्रसार करना प्रमुख काम रहा है। ऐसे में पिछले दो दशकों के दौरान मास मीडिया की ताकत के सहारे ब्रांडिंग ने उसकी मदद की है। जब इंटरनेट का उदय हुआ तो मास मीडिया से जुड़े लोगों ने इसे व्यक्तिगत स्तर पर संचार का बेहतर माध्यम माना लेकिन इसकी ताकत कहीं अधिक थी। एमटीवी पर युवाओं पर आधारित सबसे सफल कार्यक्रम 'रोडीज' है। इसकी शुरुआत 10 साल पहले एक रियलिटी शो के रूप में हुई। लेकिन, 2008 में एमटीवी ने युवाओं को ध्यान में रखते हुए सोशल मीडिया की मदद लेने का फैसला किया।

आज फेसबुक पर इसके 37 लाख फैन हैं। जबकि, हर सप्ताह टेलीविजन पर इसे 20 लाख लोग देखते हैं। 'रोडीज बैटलग्राउंड' नामक इस पेज की शुरुआत इसलिए की गई थी ताकि जब यह कार्यक्रम प्रसारित नहीं हो रहा हो तब भी उपभोक्ताओं को इससे जोड़कर रखा जा सके। लेकिन, यह अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब रहा। 'रोडीज़' की सफलता इस बात का प्रमाण है कि डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया की पहुँच कहाँ तक है!

राजनीति में डिजिटल मीडिया 
राजनीति में जीत-हार का गणित अब पीआर (पब्लिक रिलेशन) एजेंसियां और डिजिटल कंपनियां करने लगी हैं। वे ही अब नेताओं और कार्यकर्ताओं को जनसंपर्क अभियान और पब्लिक की नब्ज़ पकड़ने की कला सिखाने लगी है। कहते हैं कि राजनीति के खिलाड़ी काफी चतुर होते हैं। लेकिन, अब उनकी चतुराई को भी पीछे छोड़ने वाले और रणनीतियां बनाने वाले सामने आ गए।

अब डिजिटल और सोशल मीडिया वाली कंपनियां नेताओं की राजनीति में मददगार बन रही हैं। देखा जाए तो यह ट्रेंड 'राजनीति' के लिए थोड़ा अटपटा है, लेकिन, जिस तरह देश में युवाओं की संख्या बढ़ रही है, राजनीति का ट्रेंड बदलना भी जरुरी है। क्योंकि, जब जीवन के हर क्षेत्र का कारपोरेटीकरण हो रहा है, तो राजनीति को भी पुराने ढर्रे से बाहर निकालना जरुरी था।

पीआर यानी 'पब्लिक रिलेशन' कंपनियों का मुख्य काम होता है 'ब्रांडिंग और इमेज बिल्डिंग' जिससे नेताओं या पार्टी की समाज में सकारात्मक छवि बनाई जाए। जिसके सहारे उसकी 'चुनावी नैय्या' पार हो सके! इसकी कार्यप्रणाली की बात करें तो, पीआर कंपनियां जनता या टार्गेट ऑडियंस के मन में अपनी क्लाइंट पॉलिटिकल पार्टी या नेता की सकारात्मक छवि बनाने में सक्षम होती हैं।

अभी तक वोटर अपने नेता को सिर्फ नाम और चेहरे से ही जानता था, पर अब ये कंपनियां नेता के सकारात्मक पक्ष और उसकी सक्रियता को लोगों के सामने रखती हैं, जो जरुरी होता है। सोशल और डिजिटल मीडिया दोनों के जरिए किया जाता है। इससे सबसे ज्यादा आसानी पार्टी या नेता की होती है, जिसके कार्यक्रम, छवि, विचारधारा, सक्रियता और कामकाज का नजरिया लोगों के सामने आ जाता है। आने वाले कुछ सालों में यदि पूरा चुनाव ही सोशल और डिजिटल मीडिया पर लड़ा जाने लगे तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए।

(लेखक अतुल मलिकराम 1999 से बिल्डिंग रेपुटेशन, पीआर और डिजिटल कम्युनिकेशन कंपनी के निदेशक और राजनीतिक विश्लेषक हैं) 

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