‘घरेलू हिंसा कानून’ में अब बदलाव का समय

Edited By ,Updated: 26 Oct, 2019 12:25 AM

time for change in  domestic violence law

आज से डेढ़ दशक पहले भारत में घरेलू ङ्क्षहसा और नारी शोषण को रोकने के लिए एक मजबूत कानून बना था, जिससे एक सुरक्षा कवच की भांति विभिन्न प्रकार की ङ्क्षहसा से प्रताडि़त महिलाओं को राहत मिली लेकिन जैसा कि प्रकृति का नियम है, निरंतर बदलाव की प्रक्रिया से...

आज से डेढ़ दशक पहले भारत में घरेलू हिंसा और नारी शोषण को रोकने के लिए एक मजबूत कानून बना था, जिससे एक सुरक्षा कवच की भांति विभिन्न प्रकार की हिंसा से प्रताडि़त महिलाओं को राहत मिली लेकिन जैसा कि प्रकृति का नियम है, निरंतर बदलाव की प्रक्रिया से नए वातावरण और परिस्थितियों का सृजन, उसी प्रकार अब समय आ गया है कि इस कानून में समय की जरूरत के हिसाब से उचित परिवर्तन किए जाएं। हालांकि इस कानून का दायरा बहुत व्यापक है लेकिन व्यवहार में यह कमोबेश घर की महिलाओं के साथ मारपीट, उनका यौन सहित विभिन्न प्रकार से शोषण और उनके जीने के मूलभूत अधिकार को पुरुषों द्वारा हथियाए जाने से रोकने में ही अधिकतर इस्तेमाल में आता है। 

घर से अधिक बाहर होती हिंसा 
इस सप्ताह मुम्बई में सम्पन्न हुए मामी फिल्म समारोह में एक फिल्म ‘बाई द ग्रेस ऑफ गॉड’ दिखाई गई। यह फिल्म किसी विकासशील या अविकसित देश में नहीं बनी या वहां हो रही शोषण की घटनाओं का रूपांतरण नहीं थी, बल्कि यूरोप के धनी और विकसित देश फ्रांस में निर्मित हुई। इसकी कथा यह है कि पांच बच्चों के एक पिता को जो एक घटना उसके बचपन से लेकर अब तक उसे चैन से जीने नहीं दे रही थी, वह थी तीस-पैंतीस वर्ष पहले उसके साथ हुआ यौन शोषण, जो किसी अन्य ने नहीं बल्कि धर्मोपदेशक चर्च के एक पादरी ने किया था। उल्लेखनीय है कि वह अकेला ही इसका शिकार नहीं हुआ था, बल्कि सैंकड़ों नहीं बल्कि हजारों बच्चों को उस पादरी की यौन पिपासा को झेलना पड़ा था। 

उल्लेखनीय यह है कि बचपन में अपने साथ हुए यौन दुव्र्यवहार के पीड़ित वयस्क होने और अपना-अपना परिवार बसा चुके तथा एक तथाकथित सुखी जीवन बिता रहे लोग उस पादरी की हरकत को अभी तक अपने से दूर नहीं कर पाए थे। वे एक प्रकार से अपराध बोध में जी रहे थे कि अपने साथ हुए अत्याचार का कोई बदला नहीं ले सके और वह पादरी अब भी उसी तरह छोटे बच्चों का शोषण करता आ रहा है। हालांकि पादरी के कुकर्मों की जानकारी उसके वरिष्ठ लोगों को थी लेकिन किसी ने उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। फिल्म के नायक ने दसियों वर्ष तक मानसिक संताप झेलने के बाद उससे बाहर निकलने और अपने साथ हुए शोषण का बदला लेने की हिम्मत दिखाई और पादरी की शिकायत अधिकारियों से यह जानते हुए भी की कि वह अकेला है और तंत्र बहुत मजबूत है। उसे भय था कि कहीं उसी को दोषी न मान लिया जाए और झूठा साबित न कर दिया जाए। 

अधिकारियों के सामने वह और पादरी आए जिसमें उसके आरोप का जवाब पादरी ने यह दिया कि वह एक मानसिक रोग से पीड़ित है और छोटे बच्चों को देखते ही उसकी यौन भावनाएं भड़क उठती हैं और वह उनके कोमल अंगों को सहलाने से लेकर मसलने और यौन क्रिया के लिए उत्तेजित हो जाता है। इसके बाद फिल्म के नायक ने ऐसे लोगों से सम्पर्क करना शुरू किया जो यौन पीड़ित थे और अभी तक अपने साथ हुए दुष्कर्म को भूल नहीं पाए थे।

एक व्यक्ति तो ऐसा था जिसका निजी अंग विकृत हो गया था और वह मिर्गी की बीमारी का शिकार हो गया था। इन सब पीड़ितों ने मिलकर अपना संगठन बनाया और अपने साथ हुए कुकर्म का बदला लेने का कानूनी रास्ता अपनाया। यहां यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आरोपी को सजा हुई या नहीं, बल्कि यह है कि बचपन या अल्हड़पन में जब किसी के साथ, चाहे महिला हो या पुरुष, यौन दुव्र्यवहार होता है तो वह जीवन भर उसे भूल नहीं पाता और हमेशा हीनभावना में जीता रहता है और एक ऐसे अपराध के लिए अपने को जिम्मेदार मानता रहता है जो उसके साथ हुआ लेकिन कभी उसका प्रतिकार नहीं कर सका। 

सामाजिक और कानूनी संरक्षण 
अक्सर देखने में आता है कि जो अपराधी है उसे पारिवारिक संरक्षण के साथ समाज का संरक्षण भी आसानी से मिल जाता है। इस तरह के वाक्य ‘भूल जा जो तेरे साथ हुआ’, ‘अगर जुबान खोली तो नतीजा भुगतने को तैयार रहना’, ‘अपने साथ खानदान की इज्जत भी जाएगी’, इस कहावत को सिद्ध करते हैं कि ‘समर्थ को दोष नहीं’। जिस तरह अपने साथ हुए यौन शोषण को नहीं भुलाया जा सकता, उसी प्रकार बचपन में बिना किसी कारण के हुई मारपीट, शारीरिक और मानसिक प्रताडऩा, ङ्क्षलग भेद के कारण हुए अपमान और यहां तक कि पालन पोषण में भी हुए भेदभाव को जीवन भर नहीं भुलाया जा सकता। हो सकता है कि वक्त का मरहम घाव को ढक दे लेकिन जरा सा कुरेदने वाली घटना होते ही घाव फिर हरा होकर टीस देने लगता है। 

घरेलू हिंसा के साथ बाहरी ङ्क्षहसा से बचने के लिए भी कानून का रास्ता होना चाहिए। कानून की कमी के कारण ही सामाजिक अन्याय का प्रतिकार करने के लिए जब एक उम्र निकल जाने के बाद भी तनिक-सा अवसर मिलते ही पीड़ित अपने साथ दशकों पहले हुए शोषण को बयां करने के लिए सामने आ जाते हैं तो इसका एक कारण यह है कि जब उनके साथ यह हुआ था तब ऐसा कोई कानून नहीं था जो जुल्म करने वाले के मन में डर पैदा कर सकता। 

ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, सच्ची घटनाएं हैं और जो निरंतर घटती रहती हैं जिनमें गुरु, शिक्षक, धर्मोपदेशक से लेकर समाज के दबंग लोग अपने अनुयायियों के साथ कैसा भी शोषण, जो शारीरिक, मानसिक, आॢथक कुछ भी हो सकता है, करने के बाद स्वतंत्र घूमते रहते हैं। कार्यस्थल या जहां आप नौकरी करते हैं, वहां होने वाले शोषण से अलग हटकर परिवार और समाज के बीच होने वाले मानसिक और शारीरिक शोषण का निराकरण करने और कानून के प्रति डर पैदा करने वाली व्यवस्था के बारे में सोचने का सही वक्त यही है क्योंकि हम विकासशील देशों की श्रेणी में आते हैं। विकसित देशों में आज भी यह समस्या इसलिए पीछा नहीं छोड़ रही क्योंकि उन्होंने अपनी विकासशील अवस्था में इस ओर ध्यान नहीं दिया था। हमारे पास अभी समय है इसलिए तुरंत इस बारे में सार्थक और मजबूत कानून बनाने की दिशा में कदम बढ़ाना ही अच्छा होगा।-पूरन चंद सरीन
 

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