Edited By ,Updated: 10 Jun, 2016 01:19 AM
कांग्रेस पार्टी को क्या अपने कार्यकत्र्ताओं तथा नेताओं के निरंतर हो रहे क्षरण को लेकर चिंतित होना चाहिए? क्या चूहे डूब रहे जहाज को छोड़ रहे हैं?
(कल्याणी शंकर): कांग्रेस पार्टी को क्या अपने कार्यकत्र्ताओं तथा नेताओं के निरंतर हो रहे क्षरण को लेकर चिंतित होना चाहिए? क्या चूहे डूब रहे जहाज को छोड़ रहे हैं? इसमें कोई संदेह नहीं कि पार्टी अपनी संगठनात्मक गहराई खो रही है, विशेषकर मोदी के सत्ता में आने के बाद से। विभिन्न राज्यों में विद्रोह के स्वर उठ रहे हैं।
केवल इसी सप्ताह दो वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने पार्टी छोड़ दी-छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी तथा महाराष्ट्र में गुरदास कामत कांग्रेस नेतृत्व (राहुल गांधी पढ़ें) से निराश हो गए। जहां छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री जोगी ने अपनी खुद की पार्टी का गठन कर लिया है, कामत राजनीति को ही छोडऩा चाहते हैं। दुविधा को और बढ़ाते हुए कांग्रेस के 6 विधायकों ने सोमवार को त्रिपुरा में पार्टी छोड़ दी।
महत्वपूर्ण है कि यह क्षरण 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले ही शुरू हो गया था जब बीरेन्द्र सिंह (हरियाणा), जी.के. वासन (तमिलनाडु), जयंती नटराजन (तमिलनाडु), गोमांगो (ओडिशा), के.एस. राव, आर. सम्बाशिवा राव, किरण रैड्डी तथा जगन रैड्डी (सभी आंध्र प्रदेश से), जगदम्बिका पाल (उत्तर प्रदेश) तथा सतपाल महाराज (उत्तराखंड) जैसे नेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी थी। दिवंगत एन.टी. रामाराव की बेटी पुरंदेश्वरी ने भाजपा के लिए कांग्रेस को धोखा दिया था। कृष्णा तीरथ (दिल्ली), दत्ता मेघे (महाराष्ट्र), जगमीत सिंह बराड़ (पंजाब), अवतार सिंह भडाना (हरियाणा) तथा मंगत राम शर्मा (जम्मू-कश्मीर) जैसे अन्य ने भी पार्टी छोड़ दी थी।
नेतृत्व ने गत 2 वर्षों से उभर रहे तूफान को पहचानने से इंकार कर दिया, वह इस खुशफहमी में है कि सब कुछ ठीक है। जोगी की बगावत असम तथा उत्तराखंड में विद्रोह के बाद हुई जहां बागियों ने नेतृत्व पर यह आरोप लगाकर कांग्रेस छोड़ दी कि उनकी समस्याओं की सुनवाई नहीं होती। हेमंत बिस्व सरमा असम में भाजपा की विजय के लिए जिम्मेदार थे जबकि उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा रावत सरकार को लगभग गिरने की कगार पर ले आए थे।
कामत का सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय एक बड़ा धक्का है क्योंकि वह बहुत से वफादार पार्टी नेताओं की आहत भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी विदाई अगले वर्ष होने वाले स्थानीय निकाय चुनावों से पहले पार्टी के लिए एक बड़ा आघात होगा। कांग्रेस नेतृत्व के लिए चिंता की बड़ी बात यह होनी चाहिए कि इनमें से अधिकांश नेता किसी न किसी समय प्रदेश कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष अथवा महासचिव रहे हैं।
पार्टी को इस संकट का सामना क्यों करना पड़ रहा है? यह हैरानी की बात है कि देश के विभिन्न हिस्सों में बागियों द्वारा अपनी गतिविधियां तेज करने के बावजूद अभी भी कांग्रेस नेतृत्व स्थिति की गम्भीरता को समझने में असफल रहा है। पार्टी राहुल गांधी तथा उनके चुने हुए लैफ्टीनैंटों, जिनमें से अधिकतर बाहर से ‘इम्पोर्ट’ किए गए हैं, की भूमिका को लेकर असमंजस में है। क्या वह पार्टी की कमान संभालने वाले हैं और यदि ऐसा है तो कब? फिर सोनिया गांधी को क्या हुआ है?
क्या राहुल गांधी पार्टी को वोट दिलाने में सक्षम होंगे? यह असमंजस खत्म हो गया है क्योंकि सोनिया गांधी पृष्ठभूमि में चली गई हैं और अपने बेटे को पार्टी का अघोषित अध्यक्ष बना दिया है। संगठन में फेरबदल सम्भावित है मगर इसके साथ ही यह आशंका भी है कि राहुल गांधी संभवत: पुराने कांग्रेसियों को सेवामुक्त कर देंगे। राहुल गांधी का यह प्रयोग युवा कांग्रेस, एन.एस.यू.आई. तथा पार्टी की अन्य इकाइयों के साथ अभी तक सफल नहीं रहा है। इस बात का गुस्सा है कि उनके खुद चुने हुए व्यक्ति वरिष्ठ नेताओं के साथ गलत तरीके से व्यवहार करते हैं। संक्षेप में, राहुल गांधी में आत्मविश्वास का स्तर बहुत ऊंचा नहीं है।
दूसरे, कांग्रेस नेतृत्व अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय तथा उत्तराखंड जैसे पार्टी शासित अधिकतर राज्यों में उभर रहे तूफान को देखने में असफल रहा है। यहां तक कि कर्नाटक भी अधिक स्थिर नहीं है। नेतृत्व बगावत की तरंगों का पता नहीं लगा पाया है जबकि बागी सीधे तौर पर नेतृत्व पर उंगलियां उठा रहे हैं।
तीसरे, स्थिति लगभग वैसी ही है जिसने 90 के दशक के अंत में पार्टी को चोट पहुंचाई थी। 1998 में सोनिया गांधी द्वारा पार्टी नेतृत्व संभालने के निर्णय से ठीक पहले के.सी. पंत, असलम शेर खान तथा दिलीप सिंह भूरिया जैसे बहुत से वरिष्ठ तथा कनिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी थी। ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस का गठन कर लिया।
सोनिया के आने से पार्टी में हो रहा क्षरण थम गया और उन्होंने न केवल पार्टी को एकजुट किया बल्कि कांग्रेस नीत यू.पी.ए. को एक बार नहीं बल्कि 2004 से 2014 तक दो बार सत्ता में लाईं। मोदी के आने के बाद से न तो मां और न ही बेटा पार्टी को यह विश्वास दिलाने में सफल हो पाए हैं कि वे वोट दिला सकते हैं।
चौथे, दूसरे घेरे के नेतृत्व को पोषित करने के लिए अधिक प्रयास नहीं किए गए। महीनों से पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, केरल, हरियाणा तथा छत्तीसगढ़ के कांग्रेस नेता प्रदेश कांग्रेस कमेटियों के अध्यक्षों के खिलाफ शिकायतें कर रहे हैं। पंजाब में नेतृत्व को आखिरकार कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को 2017 के चुनावों के लिए मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में चुनने के लिए मजबूर होना पड़ा। यहां तक कि कपिल सिब्बल, चिदम्बरम तथा अम्बिका सोनी जैसे नेताओं को राज्यसभा के लिए नामांकित करने से दिखता है कि पुराने कांग्रेसी अभी बाहर नहीं हुए।
पांचवें, एक सलाहकार समिति के प्रस्ताव को कुछ लोगों ने मूर्खतापूर्ण बताया है और हैरानी जताई कि कांग्रेस कार्य समिति की भूमिका क्या है अथवा संसदीय बोर्ड को पुनर्जीवित क्यों नहीं किया जाता?
बहुत से वरिष्ठ कांग्रेसी इस स्थिति को लेकर चिंतित हैं और उन्हें डर है कि यदि बहुत देर होने से पहले सुधारात्मक पग नहीं उठाए गए तो कांग्रेस और अधिक डूब सकती है। इस बात की अत्यंत जरूरत है कि सही व्यक्ति को सही कार्य पर लगाया जाए तथा युवा व पुराने लोगों के मिश्रण के साथ संगठन का पुनर्गठन किया जाए। दूसरा है नेतृत्व के कार्य करने के तरीके में बदलाव लाना। तीसरा, जमीनी स्तर पर पार्टी कार्यकत्र्ताओं के लिए कार्यक्रम तथा योजनाएं बनाना। चौथा यह कि राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाकर वर्तमान असमंजस को समाप्त किया जाए ताकि वह 2019 के लिए योजना बना सकें। 130 वर्ष पुरानी पार्टी को इस तरह संकट में नहीं रहने दिया जा सकता है। अतीत में रहना कोई उत्तर नहीं है और भविष्य के लिए काम करना आगे बढऩे का तरीका है। यही समय है मंथन करने का।