Edited By ,Updated: 13 Nov, 2019 12:54 AM
टी. एन. शेषण की मृत्यु पर मीडिया और राजनीतिक हलकों में सीमित जगह ही क्यों मिली, क्या उन्हें विशेष जगह नहीं मिलनी चाहिए थी, उनकी लोकतांत्रिक सुधार की वीरता पर विस्तृत चर्चा नहीं होनी चाहिए थी? देश की वर्तमान पीढ़ी को यह नहीं बताया जाना चाहिए था कि...
टी. एन. शेषण की मृत्यु पर मीडिया और राजनीतिक हलकों में सीमित जगह ही क्यों मिली, क्या उन्हें विशेष जगह नहीं मिलनी चाहिए थी, उनकी लोकतांत्रिक सुधार की वीरता पर विस्तृत चर्चा नहीं होनी चाहिए थी? देश की वर्तमान पीढ़ी को यह नहीं बताया जाना चाहिए था कि टी.एन. शेषण की लोकतांत्रिक वीरता क्या थी, लोकतंत्र को उन्होंने कैसे समृद्ध बनाया था, वोट के महत्व को उन्होंने कैसे समझाया था, वोट लूट को उन्होंने कैसे रोका था, बूथ कब्जा की राजनीतिक संस्कृति उन्होंने कैसे जमींदोज की थी, लोकतंत्र का हरण कर राजनीतिक सत्ता पर विराजमान होने वाले लठैत-अपराधी किस्म के राजनीतिज्ञों की आंख के किरकिरी वे कैसे बने थे, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी थी।
आज चुनाव सुधार की जितनी भी प्रक्रिया चल रही है, चुनाव सुधार के जितने भी कानून अस्तित्व में आए हैं, उसकी बुनियाद में टी.एन. शेषण की ही वीरता रही है। उसके पूर्व चुनाव आयोग को रीढ़विहीन, दंतविहीन संस्थान का दर्जा प्राप्त था, जिसके पास न तो कोई विशेष अधिकार थे और न ही चुनाव आयोग के सिर पर बैठे अधिकारियों की कोई अपनी पैनी दृष्टि होती थी, ये सिर्फ और सिर्फ सरकार के गुलाम के तौर पर खड़े होते थे, सरकार की इच्छाओं को ही सर्वोपरि मान लेते थे। खास कर सत्ताधारी दल यह नहीं चाहता था कि चुनाव आयोग रीढ़शील बने, दंतशील बने, अगर ऐसा होता तो सत्ताधारी दल के लिए फिर से सत्ता में लौटने की सभी आशाएं चुनाव से पूर्व ही समाप्त हो जातीं। हथकंडों को अपनाकर चुनाव जीतना सत्ताधारी पार्टी का प्रमुख राजनीतिक एजैंडा होता था। हथकंडों में विरोधी वर्ग और विरोधी क्षेत्रों में वोटर पंजीकरण में धांधली कराना, फर्जी वोटर पंजीकरण कराना, बूथ कब्जा कराना और कमजोर वर्ग के लोगों को मतदान केन्द्रों से दूर रखने के लिए षड्यंत्र रचना आदि शामिल थे।
गुमनामी में शेष जिंदगी गुजारी
टी.एन. शेषण ने गुमनामी में शेष जिंदगी क्यों गुजारी, यह भी एक प्रश्न है? इस प्रश्न पर भी गंभीरता के साथ चर्चा करनी जरूरी है। देखा यह गया है कि शीर्ष नौकरशाही के पद पर बैठा शख्स सेवानिवृत्ति के बाद भी गुमनामी में नहीं जाता है, ख्यात जिंदगी में ही वह सक्रिय होता है, कोई नौकरशाह राज्यपाल बन जाता है, कोई नौकरशाह प्राधिकरणों में जज हो जाते हैं, तो कोई नौकरशाह राज्यसभा और लोकसभा के सदस्य बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त भी नौकरशाह खेल खेलते रहते हैं। कोई नौकरशाह रिलायंस का सलाहकार तो कोई नौकरशाह अडानी का सलाहकार बन जाता है, इनके बनाए संस्थानों का चीफ बन जाता है। इस प्रकार नौकरशाह शेष जिंदगी भी आराम और धाक के साथ गुजारता है।
अकेलेपन के शिकार थे शेषण
अब यहां यह प्रश्न भी उठता है कि सेवानिवृत्ति के बाद भारत सरकार या फिर राज्य सरकारों ने भी टी.एन. शेषण की सेवाएं वैसी जगह क्यों नहीं लीं जहां पर उनकी ईमानदारी, उनकी कर्मठता और उनके समर्पण की जरूरत थी और उनकी ईमानदारी, उनकी कर्मठता और उनके समर्पण से आम जनता को लाभ होता, आम जनता को न्याय मिलता? सेवानिवृत्ति के बाद टी.एन. शेषण एक तरह से गुमनामी की जिंदगी जीने के लिए विवश थे। एक तरह से वे अकेलेपन के शिकार थे। वे दिल्ली छोड़कर चेन्नई चले गए थे। दिल्ली की पांच सितारा संस्कृति और लूट-खसोट की दुनिया उन्हें पंसद नहीं थी, उनकी ईमानदारी यह सब पसंद नहीं करती थी। चेन्नई में भी वे अकेला ही महसूस करते थे। उनका कोई परिवार नहीं था। उनके बच्चे नहीं थे। परिवार से भी उनका विशेष लगाव नहीं था। शायद उनका अपना कोई आवास भी नहीं था। अनाथालय में वे रहते थे, सेवानिवृत्ति से मिलने वाली अंशराशि से उनका जीवन चलता था। जब आप ईमानदार होंगे, जब आप सिद्धांतशील होंगे, जब आप लूट-खसोट की संस्कृति से दूर रहेंगे, किसी को वर्जित ढंग से लाभ नहीं कराएंगे तो फिर आपका इस दुनिया में कोई मित्र भी नहीं होगा, आपको पसंद करने वाले सीमित लोग होंगे। सीमित लोग भी आसपास नहीं होते हैं, वे दूर-दूर रहकर ही प्रेरणा लेते हैं। ऐसी श्रेणी के वीर शख्स को भी लोग पागल कह कर अपमानित करते हैं। लुटेरे वर्ग और राजनीतिक हलके भी टी.एन. शेषण को पागल ही कहा करते थे।
लोकतांत्रिक सेनानी होने के कारण मैंने ही नहीं बल्कि टी.एन. शेषण की वीरता को देखने वाली पीढ़ी यह जानती थी कि हमारी लोकतांत्रिक पद्धति कितनी दुरूह और मकडज़ाल व फरेब से भरी पड़ी थी। कमजोर वर्ग चुनाव लडऩे का साहस नहीं कर सकता था, चुनाव पर बड़े लोगों, बड़ी जातियों, धन पशुओं और अपराधियों का राज रहता था, ये जिसे चाहते थे वही चुनाव लड़ सकते थे, इनकी इच्छा के बिना कोई चुनाव नहीं लड़ सकता था। कोई चुनाव लडऩे का साहस करता तो उसकी हत्या होती , उसकी प्रताडऩा निश्चित थी, नामांकन प्रक्रिया को दोषपूर्ण ठहरा कर नामांकन रद्द करा दिया जाता था।
सबसे बड़ी बात यह थी कि दलित, आदिवासी और कमजोर जातियों के क्षेत्र में मतदान प्रक्रिया में अपराधी हावी होते थे, बूथ कब्जा आम होता था। दलित, आदिवासियों और कमजोर जातियों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता था। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि चुनाव जीत चुके उम्मीदवारों को भी चुनाव जीतने के प्रमाण पत्र मिलने के पूर्व हेराफेरी में हरा दिया जाता था और हारे हुए प्रत्याशी को जिता दिया जाता था। इस अपराध क्रम की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती थी, न्यायिक प्रक्रिया लंबी होने के कारण सब बेअर्थ हो जाती थी। लोमहर्षक बात यह थी कि चुनाव कर्मचारी बेलगाम होते थे, उनकी मर्जी ही चुनाव नियम होते थे। इनकी मर्जी अनियंत्रित हुआ करती थी। इनके खिलाफ सुनवाई कहीं नहीं होती थी। केन्द्रीय चुनाव पूरे देश में एक ही दिन हुआ करते थे, राज्य चुनाव भी एक ही दिन हुआ करते थे। ऐसी स्थिति में चुनाव सुरक्षा नाम की कोई चीज नहीं हुआ करती थी।
चुनाव आयुक्त के पद पर बैठते ही अपनी वीरता दिखाई
टी.एन. शेषण ने चुनाव आयुक्त के पद पर बैठते ही अपनी वीरता दिखाई। खास कर बिहार के जातिवादी राजनीति के उदाहरण लालू प्रसाद यादव से टकरा बैठे। उन्होंने बिहार में चुनाव अधिकारियों को अपने हथियारों का डर दिखाया, पक्षपात करने पर दंड के भागीदार बनाने का हश्र दिखाया, कई चरणों में चुनाव प्रक्रिया करने का नियम बना डाला। कई चरणों में चुनाव होने की खबर सुनते ही बिहार ही क्यों, देश भर में तहलका मच गया। लालू ने अपने व्यवहार के अनुसार प्रतिक्रिया दी थी, उन्होंने कहा था कि शेषणवा पगला गया है, शेषणवा पागल सांढ है, इस पागल सांढ को हम पकड़ कर कमरे में बंद कर देंगे या फिर गंगा में बहा देगे। पर टी.एन. शेषण पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
टी.एन. शेषण ने चुनाव प्रक्रिया के दौरान अपराधियों को जेल भिजवाने का फरमान सुना दिया, चुनाव प्रक्रिया के दौरान अधिकारियों के स्थानांतरण या पदोन्नति को रोक दिया। लालू ही नहीं बल्कि अनेकानेक राजनीतिज्ञ टी.एन. शेषण के चुनाव सुधार दंड प्रक्रिया के शिकार हुए थे। हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल गुलशेर अहमद को अपना इस्तीफा सौंपना पड़ा था। उनका दोष था कि उन्होंने चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश के सतना जाकर अपने पुत्र के लिए चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश की थी। राजनीतिज्ञ और केन्द्रीय मंत्री रहे कल्पनाथ राय को भी टी.एन. शेषण का कोपभाजन बनना पड़ा था। उस दौरान राजनीति में टी.एन. शेषण भयभीत करने वाले शख्स के तौर पर विराजमान थे। राजनीति में एक चर्चा आम थी कि राजनीतिज्ञ सिर्फ भगवान और टी.एन. शेषण से ही डरते हैं। एक नौकरशाह के रूप में भी उनकी ख्याति गजब की थी। मंत्री उनसे पीछा छुड़ाना चाहते थे और उनके नीचे काम करने वाले अधिकारी व कर्मचारी मुक्ति का मार्ग तलाशते थे।
हमें घोर आश्चर्य है कि टी.एन. शेषण की सेवाएं सरकारों ने उनकी सेवानिवृत्ति के बाद भी क्यों नहीं लीं, उनकी सेवाएं ली जानी चाहिए थीं। खासकर देश की अकादमियां उनकी सेवा ले सकती थीं। टी.एन. शेषण देश की भावी पीढ़ी को सजग, कर्मठ और ईमानदार बनाने की शिक्षा दे सकते हैं, उन्हें प्रेरक राह दिखा सकते थे। दुखद यह है कि उन्हें गुमनामी में जिंदगी गुजारने के लिए छोड़ दिया गया। अगर हम ईमानदारी और कर्मठता का सम्मान नहीं करेंगे तो फिर देश में भ्रष्टाचार, बेईमानी और वर्जित कार्य की बढ़ती प्रवृत्ति को कैसे रोक पाएंगे? यह एक यक्ष प्रश्न है। टी.एन. शेषण की लोकतांत्रिक वीरता को बच्चों की पाठ्य पुस्तक में शामिल किया जाना चाहिए। — विष्णु गुप्त guptvishnu@gmail.com