गरीबों के मामलों में दखल देने की इच्छाशक्ति खो चुके हैं वाम दल

Edited By ,Updated: 24 Dec, 2015 12:46 AM

to interfere in the affairs of the poor will power lost left

वैश्वीकृत भारत में ऐसा दिखाई देता है जैसे वामदल निष्क्रियता की स्थिति में हैं जिनमें पहल करने का अभाव और वैचारिक जड़ता है।

(अरुण श्रीवास्तव): वैश्वीकृत भारत में ऐसा दिखाई देता है जैसे वामदल निष्क्रियता की स्थिति में हैं जिनमें पहल करने का अभाव और वैचारिक जड़ता है। जहां सरकार लोगों के समेकित विकास और उनके सशक्तिकरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी से बच रही है, वहीं माकपा, भाकपा तथा अन्य वाम शक्तियों ने गरीबों के मामलों में दखल देने व उनको संगठित करने की अपनी इच्छाशक्ति खो दी है। सुधार लागू करने तथा तेज आर्थिक विकास प्रोत्साहित करने के नाम पर सत्ताधारी वर्ग ने राज्य की रणनीति बदल दी है जिसके तहत अर्थव्यवस्था की बागडोर बाजारी ताकतों को सौंप दी गई है, जिनका नेतृत्व विदेशी निगमों के  करीबी सहयोग से बड़े पूंजीपति कर रहे हैं। इस रणनीति ने कार्य करने वाले लोगों को विस्थापित कर दिया है।

जहां सैद्धांतिक रूप से माक्र्सवादी ताकतें विकास के खिलाफ हैं, वहीं वाम दलों को जमीनी स्तर पर आंदोलन शुरू करना चाहिए था परन्तु ऐसा हो नहीं रहा। बड़े दुख की बात है कि आज भी वे राज्य के किरदार को लेकर दुविधा में हैं कि वर्तमान स्थिति में क्या किया जाना चाहिए। यह एक नंगा सच है कि मध्यमार्गी, जातीय तथा उदार शक्तियों के साथ तालमेल करके वाम दलों ने उन्हें सम्मान प्रदान किया है मगर इस प्रक्रिया में वे अपनी खुद की विश्वसनीयता तथा लोगों का विश्वास खो बैठे हैं।
 
माक्र्सवादी ताकतों के साथ प्रयोग करने में भारतीय वाम दलों की असफलता ही सुधारवादी कार्यक्रमों में उनकी उदासीनता का कारण है। उनका मुख्य लक्ष्य चुनाव जीतना ही बन गया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वे मुलायम सिंह तथा लालू यादव जैसे नेताओं के सामने झुकने लगे। दुर्भाग्य से वे अपने लिए एक स्वतंत्र स्थान बनाने और देश की राजनीतिक संस्थाओं पर कोई प्रभाव छोडऩे में असफल रहे। ग्रामीण इलाकों के गरीब, जिन्हें वाम आंदोलन की धुरी माना जाता था, को मजबूरन जातिवादी राजनीतिक संगठनों में अपने मसीहा को तलाशना पड़ा।
 
एक लम्बे समय के बाद बाध्यताओं का एहसास करते हुए 6 वाम दलों ने बिहार विधानसभा चुनावों के लिए हाथ मिलाए। नि:संदेह उनकी कारगुजारी प्रभावशाली थी। निश्चित तौर पर सर्वाधिक सफल भाकपा-माले रही। इसने बलरामपुर, दारौली तथा तारारी की तीन सीटें जीतीं। माकपा, भाकपा, सुकी, आर.एस.पी. तथा फारवर्ड ब्लॉक बेशक कोई सीट जीतने में असफल रहे मगर उल्लेखनीय बात यह रही कि उनकी संयुक्त मत हिस्सेदारी लगभग 4 प्रतिशत रही।
 
यदि दिल्ली के चुनाव परिणामों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा नरेन्द्र मोदी सरकार को पहला धक्का पहुंचाया था तो बिहार ने एक बार फिर विद्रोह का झंडा बुलंद किया। बिहार विधानसभा परिणामों को भाजपा द्वारा चलाई जा रही साम्प्रदायिक नफरत व धार्मिक असहिष्णुता की विघटनकारी राजनीति की संज्ञा देना जनमत की अत्यंत साधारण समीक्षा होगी। जनादेश पर करीबी नजर डालने से पता चलता है कि यह उच्च जातियों व जमींदारों की तानाशाही के खिलाफ विरोध था।
 
90 के दशक तक बिहार में वाम दलों का मजबूत आधार था मगर गत 25 वर्षों के दौरान इसने मैदान मध्यमार्गी तथा जातिवादी ताकतों तथा पाॢटयों को खो दिया। मुख्य रूप से ग्रामीण गरीबों के साथ अपनी पहचान बनाने में असफलता के कारण इसमें एकमात्र अपवाद भाकपा-माले रही। इसने जमींदारों की निजी सेनाओं के खिलाफ लड़ाई लड़ी और कई संगठनों का नेतृत्व किया। 1991 के विधानसभा चुनावों में इसके अग्रिम संगठन ने लगभग 12 सीटें जीती थीं। 
 
इस बार भाजपा नीत राजग तथा जद (यू)-राजद व कांग्रेस के महागठबंधन के बीच में से भाकपा-माले तीन सीटें झपटने में सफल रहीं। पश्चिम बंगाल के दारौली से इसका उम्मीदवार 13000 वोटों से जीता जबकि बलरामपुर में 22000 वोटों के अन्तर से। सुदामा प्रसाद ने जद (यू) के दबंग सुनील पांडे की पत्नी से तारारी सीट झपट ली।
 
चुनाव परिणामों पर गहरी नजर डालने से यह ज्ञात होता है कि यह ग्रामीण गरीबों तथा सर्वहारा वर्ग के अधिकारों के लिए आंदोलन था। पार्टी बहुत कम अंतर से 22 सीटें हार गई। स्वाभाविक रूप से इसका मतलब यह है कि गरीब लोगों ने जद (यू) तथा राजग से आजादी को अधिमान दिया। उन्होंने वर्ग के आधार पर वोट दिया। इससे यह भी प्रतिबिम्बित होता है कि बिहार में एक नई राजनीतिक रेखा उभरी है। यह विजय इस कारण से भी महत्वपूर्ण है कि यह मंडल तथा कमण्डल जैसी ताकतों के बीच भीषण लड़ाई की पृष्ठभूमि से उभरी है। बिहार के लोगों ने उन राजनीतिक शक्तियों तथा नेताओं के साथ अपनी पहचान बनाने को अधिमान दिया जो उनकी आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
 
जहां इस विजय ने वाम दलों की भीतरी शक्ति को साबित किया है, वहीं इसने इस तथ्य को भी मजबूत किया है कि बिहार के चुनाव वर्ग पर आधारित थे। ग्रामीण गरीब भूमिहीन मजदूर तथा अनुसूचित जाति के लोग उन उच्च जाति के सामंतवादियों की तानाशाही नीति का विरोध करने के लिए वर्ग के आधार पर संगठित हो गए, जो भाजपा के माध्यम से वापसी का प्रयास कर रहे थे।
 
तारारी तथा भोजपुर में भाकपा-माले की विजय के कई महत्वपूर्ण पहलू हैं। पार्टी के उम्मीदवार सुदामा प्रसाद ने राजग के उम्मीदवार को 296 वोटों के अन्तर से पराजित किया, जिनकी पराजय का मुख्य कारण इन्दूभूषण सिंह की हार रही जो जमींदारों की रणवीर सेना के सर्वोच्च कमांडर ब्रह्मेश्वर सिंह के बेटे हैं। 
 
समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने इन्दूभूषण सिंह को मैदान में उतारा था जो उनकी पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर अब संगठन का नेतृत्व कर रहे हैं। महागठबंधन ने राजद के पूर्व सांसद एवं केन्द्रीय मंत्री अखिलेश प्रसाद सिंह को कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतारा था। अखिलेश ने रणवीर सेना प्रमुख ब्रह्मेश्वर सिंह की शवयात्रा के समय दलित तथा मजदूरों का नरसंहार करने वाले को एक ऐसी शख्सियत के रूप में उद्धृत किया था जो 100-200 वर्षों में एक बार पैदा होती है जिसका कद किसी सांसद अथवा विधायक से ऊंचा होता है।
 
रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने दबंग सुनील पांडे, जो तारारी से विधायक थे और जद (यू) की टिकट से चुने गए थे, की पत्नी गीता पांडे को चुनावों में उतारा था। तारारी में अन्य सभी उम्मीदवारों का रणवीर सेना के साथ संबंध रहा था। किसी समय यह सीट बिहार में नक्सल आंदोलन की शुरूआत करने वाले राम नरेश राम के पास थी मगर पार्टी 2010 में हार गई। भाकपा-माले की तारारी में जीत को इसके पारम्परिक गढ़ भोजपुर में इसके पुनरुत्थान के रूप में देखा जा रहा है। 
 
बिहार में किसी समय नक्सलवाद की नर्सरी कहा जाता भोजपुर 1990 के दशक में लालू-राबड़ी शासन के दौरान दलितों तथा दबे-कुचलों की हत्याओं का प्रत्यक्षदर्शी रहा है। दर्जनों संघर्षों के दौरान माले के कई जमीनी स्तर के कार्यकत्र्ताओं को अपना जीवन बलिदान करना पड़ा था।     
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