आज स्वतंत्रता दिवस पर विशेष भारतीय सेना का 71 वर्षों का सफर

Edited By Pardeep,Updated: 15 Aug, 2018 04:10 AM

today 71 years of special indian army journey on independence day

भारतीय सेना देश की सबसे बड़ी गैर-राजनीतिक, गैर-साम्प्रदायिक, शक्तिशाली आचरण नियमावली वाली  संस्था है जिसमें देश के हर धर्म, वर्ग, जाति, मत तथा विभिन्न क्षेत्रों के नागरिकों की सहभागिता अनेकता में राष्ट्रीय एकता की प्रतीक है। सेना ही एकमात्र सरकारी...

भारतीय सेना देश की सबसे बड़ी गैर-राजनीतिक, गैर-साम्प्रदायिक, शक्तिशाली आचरण नियमावली वाली  संस्था है जिसमें देश के हर धर्म, वर्ग, जाति, मत तथा विभिन्न क्षेत्रों के नागरिकों की सहभागिता अनेकता में राष्ट्रीय एकता की प्रतीक है। सेना ही एकमात्र सरकारी नौकरी है जिसके सदस्य अथवा कर्मचारी संविधान की शपथ लेकर देश की खातिर मर-मिटने का जज्बा रखते हैं। 

आज जब देश स्वतंत्रता के 72वें वर्ष में दाखिल हो रहा है तो जरूरत इस बात की है कि सेना के 71 वर्षों के चुनौती भरे सफर की भीतरी पड़ताल की जाए। गुलामी की जंजीरों में जकड़े देश को स्वतंत्रता दिलाने की खातिर जहां स्वतंत्रता सेनानियों ने लम्बी जंग लड़ी, वहीं भारतीय सैन्य भाईचारे ने भी अपना योगदान डाला। यह घटना 10 मई 1857 की है जब सिपाही मंगल पांडे व उसके साथियों ने कारतूस पर चर्बी लगी देखी तो वे भड़क उठे और यह समाचार आग की तरह फैल गया तथा इस घटना ने विद्रोह का रूप धारण कर लिया। दो दिन के भीतर लगभग 70,000 विद्रोहियों ने दिल्ली को घेर लिया। विद्रोह तो कुचल दिया गया, बहुत से सैनिक भी मारे गए मगर इसने ब्रिटिश इंडिया सरकार को हिला कर रख दिया। राष्ट्रवादियों ने इस आंदोलन को स्वतंत्रता की पहली लड़ाई का दर्जा दिया। 

दूसरे विश्व युद्ध के समय नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में इंडियन नैशनल आर्मी (आई.एन.ए.) ने जन्म लिया, जिसमें सेना के भगौड़े अफसर, जवान तथा जापानियों द्वारा मलाया में कई जंगी कैदी भी शामिल हुए। इसके बाद मुम्बई तथा कराची में तैनात नौसेना में भी विद्रोह हुआ। फिर जबलपुर में सेना तथा कराची की वायुसेना की यूनिट में आंदोलन की लहर पैदा हो गई। इन सभी घटनाओं के कारण बस्तीवादियों को जल्दी भारत छोडऩे के लिए मजबूर होना पड़ा। 

सेना का लेखा-जोखा: देश के विभाजन के समय सेना के जवानों, अधिकारियों की गिनती लगभग 4 लाख थी, जिसमें से 2.80 लाख भारत के हिस्से आए तथा बाकी पाकिस्तान के। 16 सितम्बर 1947 को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आदेश दिया कि सेना की गिनती घटाकर 1.50 लाख कर दी जाए मगर किसी भी सूरत में 1.75 लाख से अधिक नहीं होनी चाहिए। 

जनरल सर लोकहार्ट, जो तब कमांडर-इन-चीफ (सी.एन.सी.) थे, उन्होंने सेना के इस्तेमाल संबंधी योजना बनाते समय नेहरू से यह पूछा कि देश को खतरे बारे आपका प्रत्यक्ष ज्ञान क्या है। जवाब मिला, ‘‘हमारा पूर्व अनुमान है कि देश को कोई सैन्य खतरा नहीं।’’ इसलिए यह निर्णय हुआ कि 44 रजवाड़ाशाही रियासतों के 75311 सिपाहियों तथा अधिकारियों को जोड़ कर सेना की गिनती 2 लाख तक सीमित कर दी जाए। हमारे दिशाहीन शासकों को पता ही तब लगा जब 22 अक्तूबर 1947 को 250 ट्रकों में लगभग 50,000 अफ्रीकी तथा महसूद समुदाय के कबायली तथा सेना के जवान मेजर जनरल अकबर खान के नेतृत्व में जेहलम वाली सड़क के रास्ते कश्मीर घाटी में दाखिल हो गए और घिनौने कांड होने लगे। 

जब 25/26 अक्तूबर की देर रात को महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर को भारत में मिलाने बारे हस्ताक्षर कर दिए तो बड़ी तेजी से भारतीय सेनाएं श्रीनगर पहुंचीं और दुश्मन को खदेडऩा शुरू कर दिया। यदि सेना पर बंदिश न लगाई जाती तो समस्त अधिकृत कश्मीर सर कर लिया जाता और जो खून-खराबा आज कश्मीर में हो रहा है वह न होता तथा समस्या भी हल हो जाती। इसके साथ ही भारतीय सेना ने 1948 में हैदराबाद तथा जूनागढ़ की रियासतों के राजाओं को भारत में शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया। 

वर्ष 1950 में जनरल के.एम. करियप्पा (बाद में फील्ड मार्शल) ने सेना के इस्तेमाल बारे योजना तय करते समय नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) बारे प्रधानमंत्री को यह सूचित किया कि हो सकता है कि इस क्षेत्र में चीन की दिलचस्पी हो तो प्रधानमंत्री ने गुस्से में आकर मेज खड़काते हुए कहा, ‘‘यह सी.एन.सी. का काम नहीं कि वह प्रधानमंत्री को बताए कि कौन कहां हम पर हमला कर सकता है।’’ नेहरू की युद्ध कला वाली सोच की कमी, सेना प्रमुख की नसीहत न लेने के कारण तथा पड़ोसी मुल्क पर अंधविश्वास, सेना की कटौती आदि के कारण देश को 1962 में चीन से शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। 

हमारी भारतीय सेना ने 1961 में गोवा को भी आजाद करवाया। 1965 में पहले रण ऑफ कच्छ तथा फिर पाकिस्तानी फौज को हाजी पीर जैसे ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों से खदेड़ कर उड़ी (बारामूला) को पुंछ से जोड़कर आधा अधिकृत कश्मीर अपने कब्जे में ले लिया। जीते हुए क्षेत्र वापस करके शासकों ने कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान खोजने का दूसरा सुनहरी अवसर भी गंवा दिया। फिर 1971 की भारत-पाक जंग जीत कर सेना ने एक नए मुल्क बंगलादेश का निर्माण किया मगर भारत सरकार ने 93,000 युद्धबंदी पाकिस्तान को सौंप कर कश्मीर समस्या को हल करने का तीसरा अवसर भी खो दिया। हमारे स्वार्थी शासकों ने देश के हितों की रक्षा तो क्या करनी थी, वे भ्रष्टाचार तथा गद्दी कायम करने में जुटे रहे। पाकिस्तान को 1999 में भारतीय फौज ने चौथी बार कारगिल में हराया। कभी डोकलाम विवाद तथा कभी प्राकृतिक आपदाओं के समय और कानून व्यवस्था बहाल करने में सेना ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अफसोस कि सेना की प्राप्तियों को हमारे बेदर्द, मौकापरस्त शासकों ने नहीं समझा। 

समीक्षा तथा सुझाव: सेना में हथियारों, तोपों, टैंकों, जहाजों,समुद्री बेड़ों, जवानों,अधिकारियों तथा अन्य साजो-सामान की कमी बरकरार है, जो इसके आधुनिकीकरण पर असर डाल रही है। स्वतंत्रता के 71 वर्षों बाद भी हम 70 प्रतिशत हथियार विदेशों से आयात कर रहे हैं। कहां गए ‘मेक इन इंडिया’ तथा ‘स्टार्टअप इंडिया’ वाले प्रोजैक्ट? सेना के इस्तेमाल बारे निर्देश तो हैं मगर कोई विशाल सुरक्षा नीति नहीं है। थल सेना को रेल पटरियों के ऊपर पैदल आर-पार जाने के लिए पुल का निर्माण कार्य सौंपना, ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों से पर्यटकों का फैलाया कूड़ा-कर्कट हटाने के निर्देश देना सैन्य सम्मान का उल्लंघन है। देखना कहीं 1962 से पहली वाली स्थिति पुन: उत्पन्न न हो जाए। 

पाकिस्तान की ओर से छद्मयुद्ध भी जारी है, हजारों की संख्या में हमारे सैनिक शहादत दे रहे हैं, जिसकी शासकों को कोई ङ्क्षचता नहीं। इससे पहले 15 अगस्त 1947 से लेकर 28 फरवरी 1999 तक सशस्त्र सेनाओं द्वारा लड़े गए युद्धों के दौरान 18043 जवान तथा अधिकारी शहीद तथा 32498 घायल हुए। कारगिल युद्ध में 527 सैनिक शहीद तथा 1363 घायल हुए। आज जरूरत इस बात की है कि सेना का दर्जा, आन-बान तथा शान बहाल हो।-ब्रिगे. कुलदीप सिंह काहलों (रिटा.)

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