पहले जैसे नहीं हैं आज के राजनीतिज्ञ व अफसर

Edited By ,Updated: 02 Apr, 2021 01:30 AM

today s politicians and officers are not the same as before

सुचरिता तिलक ने मुझे अमरीका के न्यूजर्सी से फोन किया। वह मुझे अपने पिता वसंत विनायक नागरकर को याद रखने के लिए धन्यवाद कहना चाहती थी, जिन्होंने उस समय मेरा मार्गदर्शन किया जब मुझे 1955 में सहायक पुलिस अधीक्षक के तौर पर मेरी प्रैक्टिकल ट्रेनिंग

सुचरिता तिलक ने मुझे अमरीका के न्यूजर्सी से फोन किया। वह मुझे अपने पिता वसंत विनायक नागरकर को याद रखने के लिए धन्यवाद कहना चाहती थी, जिन्होंने उस समय मेरा मार्गदर्शन किया जब मुझे 1955 में सहायक पुलिस अधीक्षक के तौर पर मेरी प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के लिए भड़ूच (अब गुजरात में) में भेजा गया था। मुझे सुचरिता एक बच्ची के तौर पर याद है। वह 6 माह की थी और मैं उसे अपनी गोद में उठाकर घुमाया करता था। उसका भाई रवि 6 वर्ष का था। उसके साथ जो खेल मैं खेलता था, वे भिन्न थे। उनके पिता ने एस.पी. कार्निक का स्थान लिया जो भड़ूच के एस.पी. के तौर पर पहले नियमित रिक्रूटमैंट बैच के एक अन्य विलक्षण अधिकारी थे। 

मैं नगर के बाहर स्थित एक बंगले में ठहरा हुआ था जिसके मालिक एक पारसी थे और जो काफी लम्बे समय से खाली था। कार्निक ने मेरे लिए इसकी व्यवस्था की थी। नागरकर ने मुझे अपने परिवार सहित उनको आबंटित बंगले में स्थानांतरित होने के लिए कहा क्योंकि वह न केवल मेरा पुलिसिंग बल्कि बहुत से अन्य गुणों के लिए भी मार्गदर्शन करना चाहते थे जो एक पुलिस अधिकारी को लोगों का सच्चा सेवक बनाते हैं। घर पर तथा दौरे के दौरान नागरकर मुझसे बहुत-सी चीजों पर बात करते थे। 

हमारा आपस में बिताया गया समय काफी कम था। मगर उसका प्रभाव स्थायी है। मैं कभी भी अपने पुराने बॉस तथा मार्गदर्शक को नहीं भूल सकता और मैंने फोन पर सुचरिता को यह बताया भी। एक सबक जो उन्होंने मुझे सिखाया था वह था कि चुने हुए राजनीतिज्ञों, जो सत्ता में हैं या विपक्ष में, के प्रति विनम्र रहो। 

मगर मैं उनके द्वारा अपने पसंदीदा लोगों को पुलिस स्टेशनों में प्रभारी के तौर पर बिठाने के प्रयासों का समर्थक नहीं था क्योंकि इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता। पुलिस बल का नियंत्रण गैर-पेशेवर हाथों में जाने की बजाय अपना बोरिया-बिस्तर तैयार करके रखना बेहतर। यदि ऐसा होता तो वे कानून के अनुसार नहीं बल्कि अपनी पार्टी के हितों अथवा अपने निजी फायदे के लिए अन्याय करते। उन लोगों को यह कितना ‘दैवी’ लगता जो 21वीं शताब्दी के तीसरे दशक में रह रहे हैं। महाराष्ट्र में राज्य के गृहमंत्री तथा अब पद से हटाए गए शहर के पुलिस कमिश्नर के बीच एक युद्ध शुरू हो गया है जिसमें मंत्री अपने पसंदीदा अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठा रहे थे। 

सत्ताधारी राजनीतिज्ञ गत 3 दशकों से पुलिस बल को चलाने के लिए तड़प रहे हैं। यदि पुलिस प्रमुखों की नियुक्ति लॉबिंग, गुणवत्ता तथा व्यावसायिकता और यहां तक कि अधिक महत्वपूर्ण निष्ठा को नजरअंदाज करके की जाती है तो इसका परिणाम विनाश के रूप में ही निकलेगा। सचिन वाजे की कहानी उस क्षरण का स्पष्ट सबूत है, जो बन गया। जब 1953 में मैं भारतीय पुलिस सेवा (आई.पी.एस.) में शामिल हुआ, राजनीतिज्ञ अलग तरह के थे। वे आई.सी.एस./आई.ए.एस. अधिकारियों तथा आई.पी./आई.पी.एस. अधिकारियों का सम्मान करते थे जो प्रशासन के शीर्ष स्तरों पर बैठे थे। बदले में अधिकारी अपने राजनीतिक आकाओं को सम्मान देते थे और सुनिश्चित करते थे कि आम जनता के साथ कोई अन्याय न हो। राजनीतिज्ञ उनकी भूमिका को ऐसे लोगों की तरह देखते थे जो कार्यपालिका की शक्तियों के दुरुपयोग द्वारा उन्हें चुनने वालों को बचाते थे। 

आह, अब ऐसा नहीं होता। राजनीतिज्ञों की ऐसे लोगों को बिठाने में रुचि होती है जिन्होंने उन्हें धन दिया हो या तानाशाही की स्वतंत्रता का वायदा किया हो। पुलिस महानिदेशक निजी तौर पर प्रत्येक आई.पी.एस. अधिकारी को जानता है। उसे पता है कि कौन कितना सक्षम है। उसे उनकी ताकत तथा कमजोरियों बारे जानकारी है। आज पुलिस महानिदेशक को महज एक कठपुतली के तौर पर सीमित कर दिया गया है। उनके सुझावों तथा लिखित प्रस्तावों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। महाराष्ट्र में राजनीतिज्ञ प्रैस में यह फुसफुसाते हैं कि डी.जी.पी. स्थानांतरणों में दखलअंदाजी करते थे। 

मैं पुराने समय के अपने बॉसेज को प्रेम तथा प्रशंसा के साथ याद करता हूं। उन दिनों कोई डी.जी.पी. नहीं था। बल की कमांड एक आई.जी.पी. (पुलिस महानिरीक्षक) के हाथों में थी। काईकुश्रो जहांगीर नानावती एक ऐसे आई.जी.पी. थे जिन्हें मैं सर्वाधिक पसंद करता था। वह छड़ी की तरह सीधे थे, न केवल अपनी शारीरिक अवस्था में बल्कि अपने कनिष्ठों के साथ व्यवहार के मामले में भी। जितने वह सख्त थे उतने ही न्यायप्रिय थे। उनके बेेटे रुस्तम को आई.एम.ए. (इंडियन मिलिट्री एकैडमी) में सोर्ड ऑफ ऑनर के साथ सम्मानित किया गया और उनकी उन्नति हमारे नार्दर्न आर्मी कमांडर के तौर पर हुई। 

यशवंतराव चव्हाण की खूबियां अब दिखाई नहीं देतीं। यह बहुत दुख की बात है। यशवंत राव अपने अधिकारियों के साथ व्यवहार में हमेशा सही थे-विनम्र लेकिन कभी भी अंतरंग न होने वाले। कभी भी कोई निजी मांग नहीं की गई और न ही पक्षपात के लिए कहा गया। यदि नौकरशाही में से किसी अधिकारी को चुनने के लिए कहा जाए तो वह बरजोर पेमास्टर, आई.सी.एस., होंगे जो गृह सचिव थे और बाद में मुख्य सचिव बन गए। उनकी न्याय तथा पारदर्शिता की भावना उल्लेखनीय थी। यदि कोई मौका आता तो शिकारी वरिष्ठों से कनिष्ठ अधिकारियों को बचाने के लिए वह किसी भी सीमा तक चले जाते। सेवा में आने वाले नए रंग रूटों के लिए यह जानना बहुत आरामदायक होता कि मंत्रालय में एक ऐसा व्यक्ति है जो उन्हें अन्याय से बचा सकता है। 

आज हम कम शिष्ट समय में रह रहे हैं। ऐसा दिखाई देता है कि राजनीतिज्ञ, नौकरशाह तथा पुलिस नेतृत्व एक ऐसी दुनिया के अनुकूल हो गया है जहां नियमित रूप से गले काटे जा रहे हैं। पुराने दिनों के सपने लेने वाला 90 से अधिक आयु का व्यक्ति क्या करेगा? अपने पोतों तथा पड़पोतों को केवल पीड़ा देगा।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)

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