आज के मतदाता ‘बुद्धू’ नहीं

Edited By Pardeep,Updated: 03 Jun, 2018 02:37 AM

todays voters are not stupid

कांग्रेसजन तथा अन्य विपक्षी पार्टियों के लोग यदि अपने सिलवटों भरे बंद गला कोटों को शपथ ग्रहण समारोह के लिए प्रैस करवाते हैं तो उन्हें इस पर बहुत अधिक इतराने की जरूरत नहीं। उपचुनावों का नवीनतम दौर नि:संदेह मोदी और शाह के लिए ऐन समीचीन चेतावनी है...

कांग्रेसजन तथा अन्य विपक्षी पार्टियों के लोग यदि अपने सिलवटों भरे बंद गला कोटों को शपथ ग्रहण समारोह के लिए प्रैस करवाते हैं तो उन्हें इस पर बहुत अधिक इतराने की जरूरत नहीं। उपचुनावों का नवीनतम दौर नि:संदेह मोदी और शाह के लिए ऐन समीचीन चेतावनी है लेकिन इसका किसी भी तरह यह अर्थ नहीं कि दोनों किसी और को सत्ता सौंप कर फिर से ‘आपरो गुजरात’ (साडा गुजरात) को लौट जाएंगे। 2019 अभी कुछ महीने दूर है और आप इस बात को बहुत बार सुन चुके होंगे कि राजनीति में एक सप्ताह की अवधि भी बहुत लम्बी होती है। 

और आप इस बात को गांठ मार लें कि यदि आम चुनावों से पूर्व होने वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में इसकी कारगुजारी उल्लेखनीय नहीं रहती तो भी संसदीय चुनाव बिल्कुल ही अलग तरह की कवायद होते हैं। फिलहाल भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। पता नहीं भाग्य देवी किसका स्तुतिगान करने को लालायित है। उपरोक्त घटनाक्रमों का सबसे सम्भावी कारण यह है कि मतदाता अब छोटे-छोटे अंतर समझने की कला सीख गए हैं। मोटे तौर पर उन्हें यह समझ लग गई है कि राज्य और केन्द्र की सरकारों के बीच क्या अंतर होता है?

वे इस तथ्य के प्रति भी सजग हैं कि वर्तमान परिदृश्य में जितने भी उम्मीदवार प्रधानमंत्री पद के सपने देख रहे हैं उनमें से केवल मोदी ही स्थिर, मजबूत और समस्यामुक्त सरकार का नेतृत्व करने में सक्षम हैं। मीडिया के हर रोज बढ़ते दायरे और पहुंच के कारण 70 वर्षों से चला आ रहा गणतांत्रिक लोकराज अपनी जड़ें अधिकतम गहराई और दूरी तक फैला चुका है। ऐसे में सत्तारूढ़ पार्टी तथा केन्द्र सरकार की प्रोपेगंडा मशीन द्वारा जो सतत् प्रचार किया जा रहा है वह यह सुनिश्चित करेगा कि संख्या बल में कमी आने के बावजूद पार्टी सत्ता पर कब्जा बनाए रखे। 

कर्नाटक में बेशक तीसरे नम्बर पर आने वाली पार्टी को फटाफट मुख्यमंत्री का पद परोस दिया गया तो भी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के स्थानीय नेतृत्व ने अडंग़े लगाने शुरू कर दिए जिससे मंत्रिमंडल विस्तार में विलंब हो गया। यह काम किसी छोटे-मोटे गुट ने नहीं बल्कि एक बड़ी पार्टी ने किया था। जरा कल्पना करें कि 2019 में जाति, मजहब, पंथ, इलाके तथा क्षेत्रीय पहचान पर आधारित 20 से भी अधिक पार्टियों की खिचड़ी किस तरह पकेगी? इस आपाधापी के प्रति क्या मतदाताओं के मन में घृणा पैदा नहीं होगी? 

आज मतदाता इस बात से अवगत हैं कि खिचड़ी बीमार तथा कमजोर लोगों द्वारा खाई जाती है। यह तब खाई जाती है जब भूख से परेशान व्यक्ति को अन्य कोई चीज उपलब्ध ही न हो या वह किसी अन्य चीज को खा ही न सकता हो। 2019 में भी यही बात सत्य सिद्ध होने जा रही है। जांचे-परखे और विश्वास पर पूरे उतरे मोदी की लोकप्रियता अभी भी काफी हद तक यथावत बनी हुई है और वह प्रधानमंत्री की गद्दी के लिए अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से कोसों आगे हैं। ऐसे में मतदाताओं को कौन इस बात के लिए तैयार कर पाएगा कि वे ऐसे लोगों की खिचड़ी के लिए मतदान करें जिसका प्रत्येक सदस्य न केवल भारी महत्वाकांक्षाओं से ग्रसित है बल्कि अपने अहंकार के सामने उसे अपने सभी साथी तुच्छ दिखाई देते हैं। इन लोगों में केवल एक ही बात की सहमति है कि उनके अंदर किसी भी कीमत पर सत्ता हथियाने की ज्वाला धधक रही है। लेकिन क्या मतदाता बुद्धू हैं? 

बेशक मतदाता का व्यवहार निर्धारित करने में न तो वृद्धि दर ने और न ही गवर्नैंस की गुणवत्ता ने अब तक कोई महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यदि ऐसा हुआ होता तो नेहरू 1957 में ही सत्ता से बाहर हो गए होते। व्यावहारिक रूप में निर्णायक तो यह बात है कि वास्तविक संदेश क्या है। इस बात पर कोई विवाद नहीं उठाया जा सकता कि मोदी का संदेश प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में न केवल बढिय़ा है बल्कि प्रभावशाली भी है। सीधी टक्कर में आप मोदी को चित नहीं कर सकते। इसके अलावा आर्थिक वृद्धि और गवर्नैंस की डिलीवरी के दोनों ही मामलों में मोदी की कारगुजारी कोई बुरी नहीं। 

छिटपुट मौकों पर हाशिए पर विचरण कर रहे संघ परिवार के जुनूनी तत्व अवश्य कुछ शोर मचाते हैं लेकिन गत कुछ समय से इन्हें मुंह बंद रखने का आदेश भी दिया गया है। आर.एस.एस.-भाजपा का संगठन तो सदैव तैयार-बर-तैयार तथा युद्ध की मुद्रा में होता है इसलिए भांति-भांति की खिचड़ी को इसके विरुद्ध सफलता मिलने की सम्भावना लगभग शून्य है। इस सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि अगले कुछ महीनों में मोदी यदि घोर गरीबों के लिए सार्वभौमिक आय योजना का श्रीगणेश कर देते हैं तो आगामी चुनाव में उनकी विजय पूरी तरह मोहरबंद तथा प्रमाणित हो जाएगी। 

इस योजना के लिए धन वर्तमान स्कीमों में से होने वाली हेराफेरी को रोककर और बदनामी की हद तक फिजूलखर्ची से भरी योजनाओं को बंद करके एवं अल्पकालिक घाटे के बजट के माध्यम से जुटाया जा सकता है। भाजपा में मोदी ही एकमात्र ऐसे नेता हैं जिनका न केवल शहरी, मध्यवर्गीय और उच्च जातियों बल्कि वंचित लोगों में भी जनाधार है। उनसे पहले भाजपा नेताओं का जनाधार केवल शहरी मध्यवर्ग और उच्च जातियों तक ही सीमित था। वह भाजपा के परम्परागत जनाधार की बजाय गरीब लोगों तक पहुंचने के प्रयास लगातार करते रहते हैं। इसी कारण भाजपा का  दायरा पहले की तुलना में लगातार बढ़ रहा है।

फिर भी उपचुनाव के नतीजे एक बात की चेतावनी अवश्य देते हैं कि मोदी और शाह की सत्तारूढ़ जोड़ी को अहंकारग्रसित तथा अपहुंच होने  की छवि से अपना पिंड छुड़ाना होगा। पार्टी अध्यक्ष शाह यदि हमेशा विनम्र तथा मृदुभाषी तथा हमदर्दीपूर्ण रवैया न दिखाएं तो भी उन्हें क्षमा किया जा सकता है लेकिन मोदी को अविलंब भाजपा सांसदों तथा अन्य पार्टी नेताओं के साथ अपने संबंध सुधारने होंगे और उनके गिले-शिकवों का संज्ञान लेना होगा। यदि पार्टी मुरझाए चेहरे से एक महान चुनावी लड़ाई की ओर प्रस्थान करती है तो यह जीत की सम्भावनाओं के लिए बुरी नजर जैसी सिद्ध हो सकती है। इसी बीच आपने क्या यह नहीं देखा कि एक ‘महान नेता’ ने पहले ही कितनी छूट दी है। 

जिस ढंग से कांगे्रस पार्टी कर्नाटक अथवा यू.पी. में छोटे-छोटे राजनीतिक गुटों की तुलना में दूसरे या तीसरे नम्बर की गौण भूमिका अदा कर रही है उसके चलते परिवार की जागीर समझी जाने वाली प्रधानमंत्री की कुर्सी पर सुशोभित होने का उनका सपना चूर-चूर हो गया है। अब वह मजबूरीवश केवल भाजपा को पराजित होता देखकर सांत्वना हासिल करना चाहते हैं। बेशक इस प्रक्रिया में नेहरू-गांधी परिवार वाली यह पारिवारिक फर्म भारत के चुनावी परिदृश्य से गायब क्यों न हो जाए। ऐेसे योग्य वारिस की परिकल्पना तो नेहरू और इंदिरा गांधी ने भी कभी सपने में नहीं की होगी।-वीरेन्द्र कपूर   

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