बेरोजगारी से ‘राजनीति की फैक्ट्री’ तक की यात्रा

Edited By ,Updated: 26 Jun, 2019 04:55 AM

travel from unemployment to  factory of politics

तीन साल पहले हुए एक आकलन के अनुसार भारत में हर 15 परिवारों में से एक का सदस्य किसी न किसी चुनाव प्रक्रिया में सीधे या परोक्ष रूप से संलग्न रहता है। यानी चुनाव लड़ता है या लड़ाता है। यानी 1.70 करोड़ लोग राजनीति की फैक्टरी में हैं, जो सच में कोई...

तीन साल पहले हुए एक आकलन के अनुसार भारत में हर 15 परिवारों में से एक का सदस्य किसी न किसी चुनाव प्रक्रिया में सीधे या परोक्ष रूप से संलग्न रहता है। यानी चुनाव लड़ता है या लड़ाता है। 

यानी 1.70 करोड़ लोग राजनीति की फैक्टरी में हैं, जो सच में कोई उत्पादन नहीं करती। ये अपने को प्रत्याशी बनाने या जीतने की प्रक्रिया में मतदाताओं को लुभाने के लिए अपने को अधिक सबल, सक्षम और जरूरत पर साथ में खड़ा होने वाला बताने के लिए बचे हुए समय में क्या करते हैं, अगर इसका विश्लेषण हो जाए तो यह भी समझ में आ जाएगा कि डॉक्टर, दलित, कमजोर अल्पसंख्यक, कम संख्या में पुलिस और गाहे-ब-गाहे पत्रकार पर हमला क्यों कर रहे हैं और हाल के वर्षों में यह हमला बढ़ा क्यों है।

संसाधनों की कमी व भ्रष्टाचार
आबादी घनत्व के हिसाब से भारत दुनिया में 31वें स्थान पर है, लिहाजा मानव विकास सूचकांक में अभी भी 130वें स्थान पर कराह रहा है। देश के 416 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर के राष्ट्रीय औसत के मुकाबले पूरी दुनिया का औसत 58 है, जबकि अमरीका का 34 और ऑस्ट्रेलिया का मात्र 3.20 है। राज्यों में सर्वाधिक आबादी घनत्व वाले तीन राज्य हैं बिहार (1104), उत्तर प्रदेश (828) और पश्चिम बंगाल (1029)। 

संसाधनों की बेहद कमी, भ्रष्टाचार और सामान्य व्यावहारिक मूल्यों को तो छोडि़ए, सैंकड़ों साल से प्रचलित कानूनों को तोडऩे को ही शक्ति व प्रभुता का प्रतीक मानना इस समस्या की जड़ में है। दुर्भाग्यवश समाज को भी इनमें से किसी से भी परहेज नहीं है। अगर स्थानीय सभासद या ग्राम प्रधान (मुखिया) वोट देने वाली जाति, समूह या मोहल्ले को अपने ही चुनाव क्षेत्र के अन्य मोहल्ले के मुकाबले तीन घंटे अधिक पानी दिला देता है या सरकारी गोदाम से कुछ कम ब्लैक के पैसे देकर खाद, तो उन्हें एतराज नहीं अच्छा लगता है। 

अगर स्थानीय विधायक अपने वोटर के 14 साल के बेटे को, जिसे बगैर लाइसैंस कार चलाते हुए सड़क पर चल रहे किसी बूढ़े व्यक्ति को घायल करने के आरोप में पकड़ कर थाने लाया गया है, कुछ ले-देकर मामला रफा-दफा करवा देता है तो यह उसकी शक्ति-सम्पन्नता, प्रभुत्व या संकट के समय साथ खड़े रहने की योग्यता मानी जाएगी और पूरा इलाका उसे वोट देगा। अगर अपने मोहल्ले के किसी घायल वृद्ध को वह भावी प्रत्याशी मदद के नाम पर सरकारी अस्पताल ले गया और वहां डॉक्टर रोगियों की संख्या के कारण उसे तत्काल नहीं देख सका तो यह  भावी प्रत्याशी अपने चार गुर्गों के साथ उस पर हमला कर देगा, थोड़ी देर में मीडिया डॉक्टरों की लापरवाही को लेकर अस्पताल के सामने से लाइव देते हुए जार-जार रोएगा, गुस्सा करेगा और उस प्रत्याशी की बाइट लेगा, फायदा दोहरा- मोहल्ले में रुतबे से वोट पक्का और फ्री में इमेज बिल्डिंग। 

हमारा प्रजातंत्र हाल के दौर में सड़ांध की चरम स्थिति पर आ पहुंचा है। लम्पटवादिता से सामाजिक पहचान और स्वीकार्यता राजनीति की फैक्टरी में लगे लोगों का प्रोफैशनल स्किल बन चुका है। कभी एम्स जाकर देखें तो 90 प्रतिशत मरीज व उनके रिश्तेदार बिहार के होते हैं। ये स्थानीय विधायक/मुखिया से चि_ी लिखवाकर या फोन करवा कर सांसद महोदय के यहां आते हैं और फिर सिफारिश पर अस्पताल में इलाज के लिए दबाव डलवाते हैं? अगर सांसद बाहुबली भी है तो डॉक्टर की खैर नहीं क्योंकि वे बिहार में ये सब आसानी से करके बच जाते हैं। 

क्यों चलता है यह धंधा
आखिर इन दलालनुमा उभरते नेताओं का धंधा क्यों चलता है? इसका कारण संसाधनों पर दबाव, लोगों का सिस्टम पर विश्वास कम, दबाव पैदा करने पर ज्यादा होना है। कोलकाता के एन.आर.एस. अस्पताल में या हाल में दिल्ली के एम्स में आखिर मरीज के परिजनों को डॉक्टरों की प्रोफैशनल निष्ठा पर अगर शक है भी तो क्या हमला उसका इलाज है? अगर इसके सामाजिक मनोविज्ञान पर जाएंगे तो पता चलेगा जो भाव हाईवे पर ट्रकों को रोक कर गौवंश मिलने पर किसी पहलू खान को मारने में होता है या जो भाव किसी बाहुबली या जातिवादी नेता की पार्टी के सत्ता में आने के बाद उस वर्ग का होता है जो पार्टी का झंडा लगा कर किसी महिला को सरे राह उठवा लेता है, वही डॉक्टर को अस्पताल में पीटने के पीछे भी होता है। 

अगर राज्य के मुख्यमंत्री को चौराहे पर गाली देने वाले यादव सिपाही को कोई लालू यादव या अखिलेश अगले चुनाव में टिकट देने के लिए उपयुक्त समझते हैं तो बहुत से ऐसे सिपाही गाली देकर सस्पैंड होने को तैयार हो जाएंगे। अल्पसंख्यकों को सरेआम धमकी देने वाले को अगर भारतीय जनता पार्टी टिकट देगी तो समाज का बड़ा तबका लम्पटवादी हरकतें करेगा। 

उधर मुजफ्फरनगर दंगों के मुख्य आरोपी में भारतीय जनता पार्टी को भी वही टैलेंट दिखा। दंगे में नाम आना क्या था, तमाम हिन्दू संगठनों ने इस व्यक्ति को हिन्दू हृदय सम्राट की पदवी से विभूषित किया और भाजपा ने टिकट देकर। विधायक होने पर इस नेता ने मुजफ्फरनगर का नाम ‘लक्ष्मीनगर’ रखने की  मांग उठाई। आज विधायक बन कर वह ‘जैड प्लस’ सिक्योरिटी लेकर कहीं भी जाता है तो बेरोजगारी के मारे तमाम युवाओं को ‘सम्मान’ से जीने का नया ‘मंत्र’ मिल जाता है। 

राजनीति की फैक्टरी में वैमनस्यता और लम्पटवादिता की फसल लगातार पैदावार बढ़ा रही है। यह गलती न तो केवल राजनीतिक दलों के नेता की है न ही नेताओं की नई पौध की जो डॉक्टर को मार कर या पुलिस वाले को सत्ता के नाम पर डरा कर या भ्रष्टाचारी समझौता कर समाज में रोबिनहुड इमेज बनाता है। समस्या उस आम सोच की है जिसमें अपने बेटे को बगैर लाइसैंस गाड़ी चलाकर एक्सीडैंट करने के बाद भी थाने से कुछ ले-देकर छुड़वा देने वाले छुटभैये  नेता-दलाल को भी मान्यता देता है और फिर वोट भी। जब तक यह भाव समाज का रहेगा राजनीति की फैक्टरी से यही माल निकलेगा और डॉक्टर पिटता रहेगा तथा लम्पट प्रजातंत्र के मंदिर को अपवित्र करते रहेंगे।-एन.के. सिंह   
 

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