हत्या होते देख मुंह फेर लेना संविधान और कानून की कमजोरी

Edited By ,Updated: 03 Jun, 2023 05:04 AM

turning away from seeing a murder is the weakness of the constitution and law

सरेआम हिंसा, अपहरण, लूटपाट, डकैती और दंगा-फसाद करने वालों को रोकना, उनका सामना करने की हिम्मत दिखाना तो दूर, नजर बचाते हुए घटनास्थल से हट जाना या अपने घर के खिड़की-दरवाजे बंद कर लेना और ऐसे छिपना कि कहीं कोई देख न ले कि हमारे सामने यह वारदात हुई,...

सरेआम हिंसा, अपहरण, लूटपाट, डकैती और दंगा-फसाद करने वालों को रोकना, उनका सामना करने की हिम्मत दिखाना तो दूर, नजर बचाते हुए घटनास्थल से हट जाना या अपने घर के खिड़की-दरवाजे बंद कर लेना और ऐसे छिपना कि कहीं कोई देख न ले कि हमारे सामने यह वारदात हुई, किसी कमजोरी, हृदयहीनता या अपने सामाजिक दायित्व और कत्र्तव्य से पीछे हटना नहीं है बल्कि संविधान और कानून द्वारा सामान्य और साधारण जीवन जीने वाले व्यक्तियों की सुरक्षा की कोई गारंटी या व्यवस्था न होना है। 

विश्लेषण : एक बस्ती में एक बीस साल का लड़का सोलह साल की लड़की पर चाकू से वार पर वार कर रहा है। चाकू शरीर में धंस गया और बाहर नहीं निकाल पाया तो उसने आसपास से पत्थर उठाकर मारने शुरू कर दिए और पैर के जूते से भी प्रहार करता रहा। यह संतोष होने पर कि लड़की मर चुकी है, वह वहां से सीना तानकर निकल जाता है। वहां जमा हुए लोग भी चले जाते हैं, अपने घरों में बंद हो जाते हैं। 

सोचिए कि ये लोग क्या कर सकते थे और क्यों नहीं किया-ये लोग उसे ललकार सकते थे, कुछ लोग मिलकर उसे पकड़ सकते थे या लाठी, चाकू जैसी चीज या कहीं से पत्थर उठाकर उस पर वार कर सकते थे। सब मिलकर उसे पकड़ कर बेबस कर सकते थे और उस पर घातक हमला कर सकते थे, यहां तक कि लड़की को बचाने के लिए उसकी जान भी ले सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया और तमाशबीन की तरह देखते रहे। क्या यह इसलिए हुआ होगा कि वे संवेदनहीन थे-जी नहीं, उनमें संवेदना थी, डर से सहमे होंगे, घबराए होंगे और हत्यारे के जाने के बाद चैन की सांस ली होगी, आपस में कुछ बातें बनाई होंगी और चले गए होंगे। 

एक दूसरी घटना है। आप सड़क पर पैदल या किसी वाहन से जा रहे हैं और पास से गुजरती किसी गाड़ी से लड़की के चीखने और बचाओ जैसी आवाजें सुनाई देती हैं। आप चाहते हुए भी उस गाड़ी का पीछा नहीं करते बल्कि अपनी चाल या गाड़ी को धीमा कर देते हैं। यह भी सोचते हैं कि टी.वी. या अखबार में इसका विवरण मिल ही जाएगा। यह हत्या, अपहरण, बलात्कार की घटना हो सकती है। ऐसा नहीं है कि हम सब लोगों में मानवीयता नहीं है, किसी के दर्द से दुखी नहीं होते, कुकर्मियों और अत्याचारियों को रोकना या उनके खिलाफ बोलना या कोई कदम नहीं उठाना चाहते, हम सब अपनी जुबान पर ताला इसलिए लगा लेते हैं क्योंकि संविधान और कानून हमारी रक्षा करने में असमर्थ हैं। 

गवाही देना संकट को न्यौता : सबसे पहली बात यह कि गवाह को हर समय अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा का भय सताता रहता है। जब वह टी.वी. और अखबारों में अपराधियों द्वारा गवाह की हत्या करा दिए जाने की बात सुनता है तो उसकी रूह तक कांप जाती है। गवाही के लिए अदालत जाता है तो वह वहां  तारीख पर तारीख का सामना करता है। उसे चपरासी धकेलता हुआ भीड़ से निकाल कठघरे तक ले जाता है। अपराधी और उसके गुर्गे उसकी पहचान कर लेते हैं। वकील ऐसे-ऐसे सवाल पूछते हैं कि अच्छे-भले आदमी को चक्कर आ जाएं। 

यह तक सिद्ध करने की कोशिश होती है कि यह गवाह तो गवाही के ही काबिल नहीं है, यह कहां का दूध का धुला है, उस पर दबाव पड़ता है कि या तो पीछे हट जाए वरना उसकी बर्बादी निश्चित है। यही नहीं मानव अधिकारों के वकील भी आ जाते हैं। एक मामले में तो एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड़ तक अपराधी के मानवीय अधिकारों की रक्षा करने अदालत जा पहुंचीं।

जब यह नौबत आ जाए कि जो पीड़ित है उसके परिवार वालों के अधिकारों और सुरक्षा के स्थान पर अपराधी के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों की रक्षा की बात अदालतों में होने लगे, किसी न किसी बेतुके और बेहूदे साक्ष्य को सामने रखकर अपराधी की जमानत से लेकर उसे संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया जाए तो ऐसे सिस्टम को क्या नपुंसक नहीं कहा जाएगा? एक मामले में तो न्यायाधीश को यह कहना पड़ा कि हालांकि मैं व्यक्तिगत रूप से मानता हूं कि तुम ही हत्यारे हो लेकिन तुम्हें बरी करता हूं क्योंकि संविधान और उसके तहत बने कानून तुम्हारी मदद करते हैं। 

एक बात और कि पुलिस को जब असली गवाह नहीं मिलते तो उसे मामले को आगे बढ़ाने के लिए नकली यानी स्टाक विटनैस तैयार करने पड़ते हैं और मुकद्दमों का फैसला हो जाता है। यह कैसी विडम्बना है कि हमारे देश में केवल दस प्रतिशत के आसपास ही क्रिमिनल मुकद्दमों का फैसला समय पर हो पाता है और उनमें से भी 90-95 प्रतिशत स्टाक विटनैस की गवाही से तय होते हैं। 

क्या कोई उपाय है : हमारे यहां बहुत शोर-शराबे के बाद गवाह सुरक्षा योजना तो बनी लेकिन वह बेअसर है क्योंकि न तो उसे कोई कानूनन अधिकार है न कोई सुविधा, और सुरक्षा के नाम पर अगर पुलिसकर्मी मिल भी गया तो वह अपराधियों की फौज और आधुनिक हथियारों के सामने कहां टिक पाएगा। गवाह की पहचान गोपनीय रखने का कोई बंदोबस्त नहीं तो उस पर मौत का साया मंडराता रहता है। सरकार, प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था को मिलकर इस समस्या का हल निकालना होगा कि नागरिक बेखौफ होकर अपने सामने हो रहे कुकृत्य की भत्र्सना कर सकें, उसे अंजाम देने वाले को रोकने के लिए साहसिक कदम उठा सकें और बिना किसी डर के अपराधी को दंड दिलाने में अपनी भूमिका निभा सकें।-पूरन चंद सरीन 
 

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