यू.पी. में ‘ठाकुर बनाम दलित’

Edited By ,Updated: 14 Oct, 2020 02:04 AM

u p in  thakur vs dalit

हमारे राजनेताआें द्वारा लगभग 3 दशक पूर्व जातिवाद के जिस नाग को पिटारे से खोला गया था वह उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में फिर से अपने जहरीले फन फैलाने लगा है और इसका केन्द्र में भाजपा पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उत्तर प्रदेश में पहले ही इस जातिवाद...

हमारे राजनेताआें द्वारा लगभग 3 दशक पूर्व जातिवाद के जिस नाग को पिटारे से खोला गया था वह उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में फिर से अपने जहरीले फन फैलाने लगा है और इसका केन्द्र में भाजपा पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उत्तर प्रदेश में पहले ही इस जातिवाद की हवा ने दलित और ठाकुरों के बीच और बिहार में दलित और उच्च जातियों के बीच घृणा फैलाना शुरू कर दिया है और इस सप्ताह हमें ऐसा जातीय संघर्ष देखने को भी मिला और ये घटनाएं जातिवाद के आधार पर मतभेद को बढ़ावा देती हैं, किंतु किसे परवाह है। 

आज के जातिवादी समाज में जहां पर जाति बनाम जाति की लड़ाई होती है और जहां पर जातिवाद किसी नेता के भविष्य का निर्धारण करता है वहां पर कोई भी पार्टी जातीय वोट बैंक को खतरे में डालना नहीं चाहती है और आज इस जातीय वोट बैंक को सत्ता के चश्मे से देखा जाता है जहां पर वर्चस्व स्थापित करने और वोट प्राप्त करने की लड़ाई दिखावा और धारणा की राजनीति में बदल गई है। यह आज की वास्तविकता को दर्शाता है और देश में व्याप्त सामाजिक-राजनीतिक स्थिति को चरितार्थ करता है। 

उत्तर प्रदेश को ही लें। राज्य के हाथरस में चार ठाकुर लड़कों द्वारा एक 19 वर्षीय दलित लड़की के साथ बलात्कार की घटना से दोनों जातियां आमने-सामने टकराव के लिए खड़ी हैं और इस टकराव में मुख्यमंत्री ठाकुर योगी आदित्यनाथ और भाजपा फंस गए हैं तथा राज्य में ठाकुर और दलित दोनों की जनसंख्या 20 प्रतिशत है। 2017  के विधानसभा चुनावों में उच्च जातियों का प्रतिनिधित्व 44$ 4 प्रतिशत तक पहुंचा जो 2012 के चुनावों में 32$ 7 प्रतिशत था। 

नि:संदेह उत्तर प्रदेश में जातीय हिंसा का इतिहास रहा है और योगी के शासन में इसमें वृद्धि हुई और दलितों पर हमले बढ़े हैं। गोरखपुर, सहारनपुर, जौनपुर, आगरा, अयोध्या में ऐसी घटनाएं देखने को मिली हैं। इसका कारण यह है कि ठाकुर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं और दलित अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं तो हिंसा बढ़ती है, साथ ही जमींदार अधिकतर ठाकुर हैं जिनका भूमि पर स्वामित्व है और वे दलितों का दमन करते हैं। सत्ता में आने के बाद योगी ने ठाकुरों को अनेक संस्थाआें में नाम-निॢनाम-निर्दिष्ट किया है जिनमें जिला परिषद, सिविल सेवक, थानेदार आदि शामिल हैं और इसके चलते इस ङ्क्षहदी भाषी राज्य में यह धारणा बनी कि ठाकुरवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है और भाजपा के गैर-उच्च जातीय सहयोगियों तथा भाजपा समर्थक ब्राह्मणों मेें असंतोष पैदा हुआ है। 

पिछले मार्च में भाजपा के एक ब्राह्मण सांसद और एक ठाकुर विधायक के बीच बहसबाजी की घटना को ब्राह्मणों द्वारा इस ठाकुरवाद के प्रतिकार के रूप में देखा गया। भाजपा द्वारा परंपरागत उच्च जातियों के प्रति पक्षपात के कारण उसका वह वायदा धरा का धरा रह गया कि वह जाति आधारित पक्षपात नहीं करेगी। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 48$2 प्रतिशत टिकट उच्च जाति के उम्मीदवारों को दिए थे और 31$2 प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों और जाट उम्मीदवारों को दिए थे। दलित तथा गैर-जाटवों को केवल सांकेतिक प्रतिनिधित्व दिया गया था। 

हाथरस की घटना से कांग्रेस के अपने खोए दलित वोट बैंक को प्राप्त करने का एक अवसर मिला है और भाजपा इस बात को लेकर चिंतित है क्योंकि दलित अब उसका समर्थन करने लगे थे। अब यदि भाजपा दलित वोट बैंक को खोती है तो यह न केवल उत्तर प्रदेश में अपितु पूरे भारत में उसके लिए चिंता का विषय होगा। बिहार में यद्यपि मुख्यमंत्री और जद यू अध्यक्ष नीतीश कुमार एक निर्विवाद नेता के रूप में उभरे हैं जिन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता है और उनका भाजपा के साथ गठबंधन है किंतु हाथरस में बलात्कार की घटना के बाद भाजपा के सहयोगी उससे दूर हो रहे हैं। राज्य में राजद लालू यादव अब महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति नहीं रह गए हैं और वे जेल में हैं फिर भी नीतीश की राह आसान नहीं है क्योंकि कोरोना काल में लॉकडाऊन के दौरान प्रवासी मुद्दे को ठीक से न संभाल पाने के कारण उनकी लोकप्रियता में गिरावट आई है। 

राज्य में उच्च जातियों की जनसंख्या 17 प्रतिशत है जिसमें ब्राह्मण 5$ 7 प्रतिशत और राजपूत 5.$2 प्रतिशत हैं। महादलितों सहित दलितों की जनसंख्या 16 प्रतिशत है और यादवों की जनसंख्या 14$ 4 प्रतिशत है। उच्च जाति के अधिकतर लोग भाजपा के समर्थक हैं और वे जद-यू का भी समर्थन करेंगे। एक ऐसे वातावरण में जहां पर जातिवाद हावी हो रहा हो, त्रासदी यह है कि हमारे नेता इस जातिवादी दानव के दुष्प्रभावों को देखना नहीं चाहते हैं हमारे राजनेता इतिहास से भी सबक लेना नहीं चाहते हैं। यदि जाति के स्तर पर राजनीतिक सहमति समाप्त हो जाती है तो विभाजनकारी जातीय समीकरण राजनीति में हावी हो जाएंगे। पिछड़े वर्गों की राजनीतिक आकंाक्षाआें को नजरंदाज करना भी आत्मघाती होगा साथ ही जाति के आधार पर राजनीतिक सत्ता का खेल-खेल खेलना भी खतरनाक होगा।-पूनम आई. कौशिश
 

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