यू.पी. में किसी भी पार्टी के लिए आसान नहीं रास्ता

Edited By ,Updated: 20 Jan, 2022 06:00 AM

u p in no easy way for any party

देश में 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है, लेकिन देशभर की नजरें उत्तर प्रदेश के चुनाव पर टिकी हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यू.पी. के चुनावी नतीजे काफी हद तक 2024 के

देश में 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है, लेकिन देशभर की नजरें उत्तर प्रदेश के चुनाव पर टिकी हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यू.पी. के चुनावी नतीजे काफी हद तक 2024 के आम चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। यू.पी. में पिछले 5 साल से भाजपा का शासन है। 2017 में पार्टी ने पहली बार अपने दम पर जबरदस्त बहुमत हासिल किया था। उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मोदी लहर के चलते भारी सफलता हासिल हुई। उसके बाद से यह माना जाने लगा था कि यू.पी. में भाजपा चुनौतीविहीन हो चली है। 

2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव और राहुल गांधी के गठबंधन ने भाजपा को हराने की कोशिश की, लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश ने मायावती के साथ गठजोड़ किया जिसे बुआ-बबुआ की जोड़ी के तौर पर वजनदार माना जा रहा था लेकिन नतीजा कुछ खास नहीं रहा। उस नतीजे से भाजपा को यह गुमान होने लगा कि वह अजेय हो चली है परन्तु बीते एक साल के भीतर ही माहौल में काफी बदलाव आया है। 

इसमें दो-राय नहीं कि बतौर मु यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कानून-व्यवस्था के साथ ही विकास के काफी काम किए, लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के कहर और फिर किसान आन्दोलन की वजह से यू.पी. में भाजपा विरोधी मुखर हुए और आज आलम यह है कि सभी यह मान रहे हैं कि मुकाबला कड़ा है। राम मंदिर निर्माण की बाधाएं दूर होने और काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के साथ राजमार्गों के जबरदस्त विकास के कारण भाजपा का जो दबदबा अपेक्षित था, वह काफी ठंडा पड़ता दिख रहा है। 

पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी ने सोशल इंजीनियरिंग का जो ताना-बाना बुना, उसने न सिर्फ पिछड़ी अपितु दलित जातियों में भी उसका जनाधार बढ़ा दिया था। लेकिन इस चुनाव के आने से पहले ही पिछड़ी जातियों के कुछ नेताओं के भाजपा का साथ छोड़कर अखिलेश यादव से हाथ मिलाते ही यह अवधारणा फैलने लगी कि यू.पी. में भाजपा और अखिलेश के बीच सीधा मुकाबला है। 

अपने पिता मुलायम सिंह यादव की अस्वस्थता के कारण सपा की पूरी कमान अखिलेश के हाथ में ही है, जो नाराज चाचा को भी मनाने में कामयाब रहे। हालांकि अखिलेश की भाभी अपर्णा यादव ने 19 जनवरी को भाजपा का दामन थाम लिया, मगर चुनावी विश्लेषकों को सपा पर इसका कोई खास असर न पडऩे की आशा है। अखिलेश यादव को सबसे बड़ा फायदा मिला किसान आन्दोलन का, जिसकी वजह से भाजपा को अपने सबसे मजबूत गढ़ पश्चिमी यू.पी. में जाट समुदाय की जबरदस्त नाराजगी झेलनी पड़ रही है, जिसे देखते हुए अखिलेश ने स्व. चौ. चरण सिंह के पौत्र और स्व. अजीत सिंह के पुत्र रालोद नेता जयंत चौधरी से गठबंधन कर लिया। 

इस अंचल में काफी प्रभावशाली माने जाने वाले जाटों के नेता बन कर उभरे किसान नेता राकेश टिकैत के नेतृत्व में गाजीपुर में एक साल तक चले धरने के बाद किसानों में भाजपा के विरुद्ध जो गुस्सा खुल कर सामने आया, उसने पूरे राज्य में योगी-मोदी की जोड़ी की एकतरफा जीत पर संशय उत्पन्न कर दिए। वहीं योगी जी के कथित ठाकुर प्रेम के कारण ब्राह्मण भी भाजपा से छिटके हैं। यादव और मुसलमान तो सपा की जेब में ही माने जाते हैं। इसलिए यह कहने वाले काफी हैं कि अखिलेश सत्ता में लौट रहे हैं। 

वहीं कांग्रेस भी प्रियंका वाड्रा की अगुवाई में यू.पी. में अपना खोया जनाधार वापिस प्राप्त करने के लिए काफी हाथ-पांव मार रही है और हैदराबाद से आकर असदुद्दीन ओवैसी भी मुस्लिम मतदाताओं को दूसरी पार्टियों का दुमछल्ला बनने की बजाय अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम करने के लिए उकसा रहे हैं। किन्तु उसके बाद भी साधारण तौर पर यह मान लिया गया है कि अखिलेश ने भाजपा के सामने जबरदस्त मोर्चेबंदी करते हुए सत्ता परिवर्तन की स भावना को मजबूती प्रदान कर दी है। 

इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जिस तरह 2017 में सपा-बसपा छोड़ कर नेता भाजपा में आ रहे थे, उसी तरह इस बार भाजपा में भगदड़ जारी है और सपा का ग्राफ ऊपर जाते देख सारे नेता अखिलेश में संभावनाएं देख रहे हैं। कहा जा रहा है कि अखिलेश ने राजभर, मौर्य, सैनी आदि पिछड़ी जातियों को अपनी तरफ खींच कर भाजपा की हवा निकाल दी है।लेकिन समूचे परिदृश्य में कांग्रेस की उपेक्षा तो एक बार सही भी लगती है क्योंकि उसका प्रदर्शन चुनाव दर चुनाव निराशाजनक ही रहा है, किन्तु तमाम राजनीतिक समीक्षक बसपा को जिस तरह उपेक्षित कर रहे हैं वह आश्चर्यचकित करता है, क्योंकि 2017 के चुनाव में जब उसे 19 सीटें मिलीं थीं, तब भी उसका 22 फीसदी मत प्रतिशत बरकरार रहा था। 

दरअसल मायावती बीते कुछ समय से जिस तरह सार्वजनिक तौर पर कम दिखाई दीं, उससे बसपा को कमजोर माना जाने लगा। अखिलेश और भाजपा गत कई महीनों से चुनावी मैदान में सक्रिय हैं लेकिन मायावती ने न कोई रैली की और न ही अन्य आयोजन। गठबंधन के बारे में भी बसपा पूरी तरह से उदासीन नजर आ रही है, लेकिन हाल ही में मायावती ने पत्रकार वार्ता में सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारने का संकेत देकर बसपा की उपस्थिति दर्ज करवा दी। 

चुनाव विश्लेषक यह मानने लगे हैं कि राज्य में भाजपा के अलावा किसी और के पास समर्पित और स्थायी कैडर है तो वह है बसपा। सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों में दलित वर्ग के लोग बसपा को पर्दे के पीछे से समर्थन देते हैं।

भले ही आर्थिक संसाधनों की कमी के नाम पर मायावती ने बड़े आयोजन न करने का ऐलान किया, लेकिन उनके कार्यकत्र्ताओं का काम चुपचाप शुरू हो गया है। जैसी जानकारी मिल रही है, उसके अनुसार बसपा की सोच यह है कि यू.पी. में त्रिशंकु विधानसभा बनने जा रही है और उस स्थिति में वह सौदेबाजी करने में कामयाब हो जाएगी। सबसे बड़ी बात यह है कि उसने यदि अपने पर परागत जनाधार को बनाए रखा तो अखिलेश के अरमानों पर पानी फिर सकता है। 

मायावती ने जिस ठंडे अंदाज में चुनाव में उतरने की घोषणा की, वह राजनीतिक विश्लेषकों को इसलिए हैरान कर रहा है क्योंकि वह तामझाम पसंद करने वाली नेता हैं। उनकी शैली में आक्रामकता का अभाव रणनीति में बदलाव है या परदे के पीछे चल रहे किसी खेल का हिस्सा, यह फिलहाल कह पाना कठिन है किन्तु मायावती किसी भी सूरत में अखिलेश को दोबारा मुख्यमंत्री बनते नहीं देखना चाहेंगी, क्योंकि वैसा होने पर यू.पी. में उनका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। भाजपा भी इसीलिए बसपा पर हमले करने से बच रही है। कुल मिलाकर ये चुनाव भाजपा, सपा, बसपा किसी के लिए भी आसान दिखाई नहीं देता।-राजेश महेश्वरी
 

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