भारत-चीन संबंध-मैत्री के बीच ‘अविश्वास’

Edited By ,Updated: 15 Oct, 2019 12:23 AM

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पड़ोसी या दुश्मन? दोनों। वास्तव में भारत और चीन के संबंध पोकर के खेल की तरह हैं जिनमें भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है और हर खिलाड़ी अपनी रणनीति के अनुसार खेलता है, अपने रुख पर कायम रहता है और जीतने के लिए जुआ खेल लेता है। भारत और चीन दोनों ही ऐसा...

पड़ोसी या दुश्मन? दोनों। वास्तव में भारत और चीन के संबंध पोकर के खेल की तरह हैं जिनमें भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है और हर खिलाड़ी अपनी रणनीति के अनुसार खेलता है, अपने रुख पर कायम रहता है और जीतने के लिए जुआ खेल लेता है। भारत और चीन दोनों ही ऐसा कर रहे हैं और दोनों ही यह संदेश दे रहे हैं कि हमारे मामलों में दखल मत दो। 

डोकलाम के बाद प्रधानमंत्री मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की वुहान शिखर वार्ता से दोनों देशों के संबंधों में आई गति को और बढ़ाने के लिए पिछले सप्ताह तमिलनाडु में 8वीं सदी के पल्लव युगीन तटीय शहर मामल्लापुरम में भारत-चीन अनौपचारिक शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया और यह शिखर सम्मेलन कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद संबंधों में ठंडेपन को दूर करने के लिए किया गया। 

वस्तुत: इस अनौपचारिक वार्ता में नेताओं के बीच सुचारू वार्ता सम्पन्न हुई और द्विपक्षीय मुद्दों पर 5 घंटे से अधिक तक चर्चा की गई। जिनपिंग ने कहा कि इस वार्ता में दोनों नेताओं ने दिल से दिल की बात कही तो मोदी ने इसे द्विपक्षीय संबंधों में एक नए युग की शुरूआत कहा। इस वार्ता के दौरान व्यापार और निवेश के लिए एक नए तंत्र की स्थापना के प्रस्ताव पर सहमति हुई। 53 बिलियन डालर के व्यापार घाटे को कम करने पर चर्चा की गई, आतंकवाद का सामना करने के लिए मिलकर कार्य करने, सीमा पर शांति स्थापित करने और क्षेत्रीय तथा वैश्विक मुद्दों पर सहयोग करने के बारे में चर्चा हुई। 

वस्तुत: इस अनौपचारिक शिखर सम्मेलन में आर्थिक सहयोग के ढांचे को तैयार करने में सहायता मिली, विशेषकर तब जब वैश्विक स्तर पर अनिश्चितता व्याप्त है। हुवेई की 5जी टैक्नोलॉजी को लीजिए, यह दोनों देशों के लिए लाभप्रद हो सकती है। इस बारे में भारत का निर्णय इस बात पर निर्भर होगा कि क्या चीन के साथ कार्य कर उसके लोगों को लाभ मिलेगा और क्या यह राष्ट्रीय सुरक्षा हितों के अनुरूप होगा और क्या उसकी पिछले दरवाजे से प्रवेश की चिंता को दूर किया जाएगा क्योंकि इस कम्पनी के पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के साथ संबंध हैं। या भारत अमरीका के दबाव के समक्ष झुक जाएगा। इससे चीन के व्यावसायिक हित पूरे होंगे क्योंकि अमरीका हुवेई के विरुद्ध अपने सहयोगी देशों में अभियान चला रहा है और उसने अमरीकी कम्पनियों को इस कम्पनी के साथ कारोबार करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। 

कश्मीर पर चीनी नीति स्पष्ट नहीं
तथापि दोनों देशों के बीच संबंधों में जटिलता है, गहरा अविश्वास है और सुरक्षा की चिंताएं हैं, जो भारत-चीन संबंधों के खोखलेपन को दर्शाता है और इसका कारण सीमा विवाद का समाधान न होना है तथा कश्मीर पर चीन की नीति निश्चित नहीं है, हालांकि मामल्लापुरम में इस बारे में कोई चर्चा नहीं की गई। एक ओर चीन पाकिस्तान के रुख का समर्थन करता है और कहता है कि चीन पाकिस्तान के मूल हितों और उसके वैध अधिकारों के संबंध में उसका पूरा समर्थन करता है और आशा करता है कि इस मुद्दे का समाधान संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के आधार पर शांतिपूर्ण ढंग से किया जाएगा। दूसरी ओर वह भारत के इस रुख पर बल देता है कि यह एक द्विपक्षीय मुद्दा है और इसका समाधान भारत और पाकिस्तान को करना चाहिए। 

चीन पूर्वी सैक्टर में मैकमोहन रेखा पर प्रश्न चिन्ह लगाकर भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमा को अस्वीकार करता है और अरुणाचल प्रदेश में 90 हजार वर्ग कि.मी. क्षेत्र पर अपना दावा करता है, जिसे वह दक्षिण तिब्बत कहता है। चीन ने पाक अधिकृत कश्मीर में 38000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र पर अवैध कब्जा किया हुआ है और हिमाचल और उत्तराखंड में 2000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र पर अपना दावा करता है। हालांकि दोनों देशों के बीच में सीमा विवाद को लेकर 21 दौर की वार्ता हो गई है किंतु कोई खास प्रगति नहीं हुई है। इसके साथ ही भारत को चीन-पाकिस्तान आॢथक कॉरीडोर को लेकर भी आपत्ति है, जो चीन के सबसे बड़े प्रांत जिनयांग को पाकिस्तान के बलूचिस्तान में ग्वादर पत्तन से जोड़ता है और यह पाक अधिकृत कश्मीर से गुजरता है तथा भारत की प्रादेशिक अखंडता का उल्लंघन करता है। 

देश के सामरिक हितों से समझौता नहीं
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और परमाणु आपूर्तिकत्र्ता समूह की सदस्यता आदि के चलते भारत देश की राष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक हितों के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता है। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या इस क्षेत्र में चीन की सर्वोच्चता स्थापित करने के प्रयासों का भारत के पास कूटनयिक जवाब है? क्या भारत उस पर अंकुश लगा सकता है? भारत के पास क्या विकल्प हैं? क्या भारतीय विदेश नीति की वर्तमान वर्चस्ववादी प्रवृत्ति का कोई आक्रामक परिणाम निकल सकता है? चीन की चाल क्या है? क्या वह भारत को घेरना चाहता है? क्या वह अपने परम मित्र इस्लामाबाद के गिरे हुए मनोबल को उठाना चाहता है? 

भारत चीन की उसे घेरने की रणनीति का जवाब देने में व्यस्त है और इसलिए वह चीन के पड़ोसी देशों के साथ गठबंधन कर रहा है। अपनी पूर्व की ओर देखो नीति के अंतर्गत वह म्यांमार और वियतनाम आदि देशों के साथ संबंध सुदृढ़ कर रहा है। भारत जानता है कि चीन ने म्यांमार में अपनी पैठ बना ली है इसलिए वह वहां के सैनिक जनरलों को अपने पक्ष में लाने का प्रयास कर रहा है। चीन अपने छोटे पड़ोसी देशों को मौद्रिक सहायता और सैनिक प्रभाव से अपने प्रभाव में ले आता है और इसके चलते वह भारत के छोटे पड़ोसी देशों में उसके प्रभाव को कम करने का प्रयास कर रहा है। चीन नेपाल की घरेलू राजनीति को प्रभावित कर रहा है, बंगलादेश में नए पत्तनों का वित्त पोषण कर रहा है ताकि भविष्य में उसका दोहरा उपयोग किया जा सके। पाक अधिकृत कश्मीर में सड़कों का निर्माण कर रहा है, श्रीलंका को ऋण जाल में फंसा रहा है ताकि वहां की राजनीति प्रभावित की जा सके। 

मतभेद दूर करने होंगे
चीन परमाणु आपूर्तिकर्ता ग्रुप में भारत के प्रवेश में अड़चन पैदा कर रहा है। भारत द्वारा वन बैल्ट, वन रोड पहल को अस्वीकार करने को राष्ट्रपति जिनपिंग ने व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न बना दिया है। दोनों देशों के बीच असहमति के क्षेत्र अनेक हैं, संबंधों में अनिश्चितता और उतार-चढ़ाव हैं किंतु फिर भी दोनों देशों को पारस्परिक हितों के मुद्दों पर एक आवाज में बोलना होगा। भारत को अपनी दीर्घकालीन चीन नीति बनानी होगी जिसमें वार्ता और कूटनयिक दबाव को स्थान देना होगा। केवल बात करने से काम नहीं चलेगा। हमें चीन का मुकाबला करना होगा और आमने-सामने बैठकर मतभेदों को दूर करना होगा। चीन को भी अपनी कथनी और करनी में समानता लानी होगी। 

मोदी जानते हैं कि आज की भूराजनीतिक वास्तविकता में व्यावहारिकता सर्वोपरि है और इसमें कोई शार्टकट नहीं है इसलिए भारत को चीन से निपटने के लिए व्यापक बहुकोणीय रणनीति अपनानी होगी तभी दोनों देशों के बीच स्थायी शांति हो सकती है। भारत की वर्चस्ववादी नीति में विवेक, परिपक्वता और संयम का सम्मिश्रण होना चाहिए ताकि भारत-चीन संबंध नियंत्रण में रहें। इस शून्य काटा के खेल में शक्ति प्रदर्शन तब तक चलता रहेगा जब तक दोनों देशों के बीच विश्वास स्थापित न हो। दीर्घकाल में भारत-चीन संबंध क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा वातावरण के परिप्रेक्ष्य में भारत के सामरिक लक्ष्यों द्वारा निर्धारित किए जाएंगे। 

एशिया की इन दो बड़ी शक्तियों के बीच शांति सामरिक आवश्यकता है क्योंकि दोनों देशों को अपनी ऊर्जा और संसाधनों का उपयोग आॢथक विकास के लिए करना होगा। मोदी धीरे-धीरे बचाव की नीति छोड़कर एक कुशल वार्ताकार के रूप में खेल के नियम बदल रहे हैं जिसके चलते अब भारत चीन से कम नहीं अपितु उसके समान है। जब तक दोनों देशों के बीच सीमा प्रश्न का समाधान नहीं हो जाता, तब तक दोनों देशों के बीच विश्वास बनाने और सामान्य संबंधों की बहाली पूर्णतया संभव नहीं है। तब तक उन्हें मतभेद भुलाने होंगे और वार्ता जारी रखनी होगी और बेहतर संबंधों के लिए छोटी-छोटी अड़चनों को दूर करना होगा। 

नमो को अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति निक्सन की किताब ‘द रीयल वार’ से सबक लेना होगा : ‘‘राष्ट्रों का अस्तित्व बचाए रखना या समाप्त होना इस बात पर निर्भर करता है कि वे उनके समक्ष आई किसी विशेष चुनौती का सामना कैसे करते हैं। राष्ट्र के समक्ष ऐसा समय भी आता है जब वह सब कुछ सामान्य समझता है किन्तु उस स्थिति में भी वह असावधान नहीं रह सकता। उसी राष्ट्र का अस्तित्व बचता है जो चुनौतियों का सामना करता है, जो खतरे की पहचान करता है और समय रहते उसका मुकाबला करता है।’’ मोदी चीन के साथ जटिल संबंधों से उलझ रहे हैं तो उन्हें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि इस उपमहाद्वीप में शांति की सर्वोत्तम गारंटी कठोर प्रतिक्रिया और खतरे की स्पष्ट पहचान  है। उन्हें चाणक्य  के बाहुबल की कूटनीति और निर्ममता दोनों का प्रयोग करना होगा। भारत को यह स्पष्ट करना होगा कि केवल समान देशों के बीच में स्थायी शांति स्थापित हो सकती है।-पूनम आई. कौशिश
 

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