यू.पी. के उपचुनावों और त्रिपुरा की हार में छिपी हैं समानताएं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 19 Mar, 2018 03:24 AM

up by elections and tripuras defeat are hidden in parallels

त्रिपुरा के निवर्तमान मुख्यमंत्री माणिक सरकार और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में कुछ समानताएं हैं। सबसे बड़ी समानता है सादगी। माणिक जब तक मुख्यमंत्री रहे तब तक आम आदमी की तरह पेश आए। सरकारी ताम-झाम से दूरी बनाए रखी। ईमानदारी की मिसाल...

त्रिपुरा के निवर्तमान मुख्यमंत्री माणिक सरकार और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में कुछ समानताएं हैं। सबसे बड़ी समानता है सादगी। माणिक जब तक मुख्यमंत्री रहे तब तक आम आदमी की तरह पेश आए। सरकारी ताम-झाम से दूरी बनाए रखी।

ईमानदारी की मिसाल पेश की। इसी तरह आदित्यनाथ भी सादगी भरा जीवन जीते हैं। कोई सरकारी ठाठ-बाट नहीं। करीब 1 साल के कार्यकाल में भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं लगा। पूर्व में सांसद रहते हुए भी उनकी ईमानदारी पर कभी सवाल नहीं उठे। गेरूआ वस्त्र पहनना और बगैर एयरकंडीशन के रहना, उनकी एक खास छवि भी बन गई। सार्वजनिक मंचों पर खुल कर अपने हिन्दू होने पर गर्व करना। 

सादगी और ईमानदारी जैसे दुर्लभ गुणों के बावजूद माणिक त्रिपुरा राज्य और योगी गोरखपुर सीट के साथ फूलपुर संसदीय सीट गंवा बैठे। दोनों की चुनावी पराजय में एक बुनियादी समानता है। दरअसल दोनों ही भारतीय लोकतंत्र में मतदाताओं के बदलते मिजाज को समझने में नाकामयाब रहे। माणिक सरकार पूरे 20 साल मुख्यमंत्री रहे। इस अवधि में त्रिपुरा तरक्की नहीं कर पाया। देश के विकसित राज्यों की कतार में नहीं आ सका। बावजूद इसके साक्षरता की दर बेहतर रही। 20 साल की इस अवधि में एक नई युवा पीढ़ी तैयार हो गई, जिसके पंख दुनिया के साथ उडऩे के लिए बेताब हो उठे। इस वर्ग की आकांक्षाएं  हिलोरें लेने लगी। बदलाव की धारा तटबंध तोडऩे को मचलने लगी। प्रौद्योगिकी तकनीकी के इस दौर में युवा वर्ग सहज ही समझने लगा कि मंजिल कहीं और है। 

माणिक सरकार परंपरा के खोल से बाहर नहीं आ सके। पार्टी के पोलित ब्यूरो के बंधन से बंधे रहे। बंधन ढीले नहीं करने की वजह रही कि कम्युनिस्ट पार्टी केरल तक सिमट कर रह गई। यही वजह भी रही कि युवा वर्ग जिस वैश्विक तरक्की की बयार के स्पर्श को महसूस कर रहा था, माणिक सरकार पार्टी के निर्धारित सांचे में ढले होने के कारण उसका अंदाजा नहीं लगा सके। या यूं कहें कि अंदाजा होते हुए भी उस सांचे से बाहर आने का साहस नहीं कर सके। उधर, सोशल मीडिया से जुड़ा त्रिपुरा का युवा वर्ग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के देश और विश्व में लगातार आगे बढऩे को समझ रहा था। आई.टी. और दूसरे क्षेत्रों में युवाओं को प्रेरित करने में मोदी की महत्वपूर्ण भूमिका में कहीं न कहीं अपना स्थान खोज पाने की विफल कोशिश में लगा हुआ था। यही वजह रही कि उच्च पद पर असाधारण मानवीय गुणों के बावजूद त्रिपुरा में माणिक सरकार को भाजपा के हाथों पराजय का मुंह देखना पड़ा। भाजपा ने सुदूर प्रांत में कमल खिला दिया। 

ठीक इसी तरह की पराजय योगी आदित्यनाथ की रही। मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री जैसी प्रतिष्ठा की संसदीय सीट भाजपा हार बैठी। बदलाव के जिस पदचाप को माणिक सरकार महसूस नहीं कर सके, उसी तरह योगी भी उसे भांपने में नाकामयाब रहे। इस हार की पटकथा गुजरात चुनाव में ही लिख दी गई थी। गुजरात चुनाव जीतने में भाजपा को पसीने आ गए जबकि यह प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का गृह राज्य है। दोनों ने ही दर्जनों सभाएं कीं। पार्टी पहले से ही 2 दशक से सत्ता में रही। इसके बावजूद भाजपा की किश्ती हिचकोले खाते हुए किनारे लगी। यह सबक सीखने का पहला अध्याय था। इसके बाद राजस्थान में हुए उप-चुनावों में भी हार का मुंह देखना पड़ा। हालांकि इन पराजयों से पार्टी की सत्ता में ज्यादा अंतर नहीं आया किन्तु हार की लघु सुनामी अपने निशान जरूर छोड़ गई। 

देश के मतदाताओं के सोचने का तरीका बदल रहा है। 5 साल की अवधि के दौरान मौका मिलते ही मतदाताओं ने अपनी भावनाओं का इजहार कर दिया। मतदाताओं ने यदि कांग्रेस या दूसरे दलों के बजाय भाजपा को सत्ता सौंपी है तो इसकी वजह धार्मिक या सांस्कृतिक मुद्दे नहीं, बल्कि दिखाए गए वे ख्वाब हैं, जिन्हें पाने के लिए सबमें छटपटाहट नजर आती है। भारत को विश्व शक्ति बनाने का सपना है। योग्यता के बावजूद वजूद खोजने की जद्दो-जहद है। भाजपा के लिए दूसरे दल और दूसरे दलों के लिए भाजपा अछूत हो सकती है, पर मतदाताओं के लिए नहीं। उन्हें जब लगता है कि जिंदगी जीने की बुनियादी सुविधाओं के लिए फिर से वही संघर्ष करना पड़ेगा, तब दलों का विभेद समाप्त हो जाता है। किसी की सादगी और ईमानदारी या फिर कम्युनिस्ट और हिन्दुत्व के चोले से उनकी समस्याओं का समाधान नहीं होगा। उनके सपने पूरे नहीं होंगे।

बुनियादी ढांचे में परिवर्तन के लिए जिस जोश से सत्ता सौंपी थी, वह धीरे-धीरे मायूसी में बदलने लगता है। फिर वही निराशा और हताशा का कोहरा छाने लगता है। तब कहीं न कहीं लगने लगता है कि विकास की ठोस इबारत लिखने की बजाय बेवजह के मुद्दों का वातावरण तैयार हो रहा है। जनाकांक्षाओं के नाम पर तुष्टीकरण की राजनीति हो रही है। मंदिर-मस्जिद, मठ, गौवंश और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परिभाषा तय करने में ही सारी ऊर्जा व्यर्थ जा रही है। इनसे हर दिन होने वाली परेशानियों का समाधान नहीं हो रहा है। इस दिशा में कोई ध्यान हीं नहीं दे रहा है। सिर्फ भावनात्मक मुद्दों के सहारे जिंदगी जीने का दिलासा दिलाया जा रहा है। जिस बदलाव और तरक्की की उम्मीद थी, उसे विवादित मुद्दों की आड़ में दरकिनार किया जा रहा है। ऐसे में मतदाताओं के सब्र का पैमाना छलकना निश्चित है। 

मतदाता बेशक दूसरे दलों को पसंद नहीं करते हों किन्तु मौका मिलने पर उनके पास अपनी खीझ और हताशा को जताने का कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। उत्तर प्रदेश उप चुनावों में भाजपा की हार में आने वाले तूफान के छिपे संकेत हैं, जोकि आक्रोश के बुलबुलों के जरिए एक बार फिर फूटे हैं। इसकी अनदेखी कहीं चुनावी सुनामी साबित नहीं हो, भाजपा ही नहीं अन्य राजनीतिक दलों को भी अपनी किश्ती संभालनी होगी।-योगेन्द्र योगी

India

397/4

50.0

New Zealand

327/10

48.5

India win by 70 runs

RR 7.94
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!