अच्छे शासन के सभी मानदंडों की धज्जियां उड़ाता उत्तर प्रदेश

Edited By Pardeep,Updated: 05 Dec, 2018 04:56 AM

uttar pradesh blasts all norms of good governance

गौकशी की अफवाह के चलते अराजक हिन्दू संगठनों की भीड़ ने बुलंदशहर में एक पुलिस इंस्पैक्टर की हत्या कर दी जबकि एक सिपाही जख्मी है। ऐसी ही भीड़ ने कुछ दिनों पहले दिल्ली से सटे गौतमबुद्धनगर के बिसहरा गांव में अखलाक को इसी अफवाह के चलते मार दिया था। कुछ...

गौकशी की अफवाह के चलते अराजक हिन्दू संगठनों की भीड़ ने बुलंदशहर में एक पुलिस इंस्पैक्टर की हत्या कर दी जबकि एक सिपाही जख्मी है। ऐसी ही भीड़ ने कुछ दिनों पहले दिल्ली से सटे गौतमबुद्धनगर के बिसहरा गांव में अखलाक को इसी अफवाह के चलते मार दिया था। 

कुछ माह पहले उधर यू.पी. पुलिस के एक सिपाही ने तथाकथित चैकिंग के दौरान प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक मल्टीनैशनल कम्पनी के मैनेजर को गोली मार दी थी। बुलंदशहर की घटना में आरोप है कि इंस्पैक्टर के साथी हमला देख कर भाग खड़े हुए जबकि लखनऊ की घटना में उस सिपाही की उस आपराधिक कृत्य पर कार्रवाई के खिलाफ पुलिस का सामूहिक दबाव देखने में आया। अगर ट्रेनिंग सही होती तो स्थिति उलटी होती। इंस्पैक्टर को बचाने के लिए सभी सिपाही जान पर खेल जाते। देखने में ये तीनों घटनाएं गैर-सम्बद्ध और विपरीत लगती हैं लेकिन गहरे विश्लेषण से पता चलेगा कि इनमें एक घनिष्ठ रिश्ता है। 

राज्य और उसके अभिकरणों की संवैधानिक व्यवस्था के तहत निश्चित परिमाण में एक भूमिका होती है, उसे कम या ज्यादा करना कई समस्याओं को जन्म देता है। अगर राजनीतिक आकाओं के इशारे पर कोई बड़ा पुलिस अधिकारी राम या शिव भक्त कांवडिय़ों पर पुष्प-पंखुडिय़ां बरसाएगा तो उन्हीं भक्तों में से कुछ अगले पड़ाव पर किसी ट्रैफिक के सिपाही को पीट-पीट कर मार सकते हैं या सड़क पर जा रहे वाहन को आग लगा सकते हैं। गौ-रक्षक अगर शासन और उसकी एजैंसियों की नजरों में भी पूजनीय हैं तो बुलंदशहर की घटना उसकी तार्किक परिणति। दरअसल उद्दंड गौ-भक्त या उतने ही आक्रामक ओवैसी समर्थक जानते हैं कि अगले चुनाव में उन्हीं में से किसी को टिकट मिलेगा और वह जन-उन्माद के बहाव में जीत कर देश या प्रदेश का कानून भी बनाएगा और मंत्री बन संविधान में निष्ठा की शपथ भी लेगा। 

कानून भी सत्ता का इशारा समझता है
गौकशी के खिलाफ सत्ताधारी दल और उसके सभी सम्बद्ध संगठन दिन-रात बयान देते हैं। इन बयानों के तहत जो भी दुस्साहस के साथ कानून हाथ में लेते हुए हिंसा करता है वह यह जानता है कि कानून भी सत्ता का इशारा समझता है तभी तो पुलिस का शीर्ष अफसर फूल बरसाता है। तमाम अफसर समाज के एक वर्ग के लम्पटीकरण के कारणराजनीतिक, सामाजिक व कई बार आर्थिक होते हैं और राज्य अभिकरणों की भूमिका उन्हें रोकने में धूमिल पड़ जाती है। लेकिन जब इन अभिकरणों का लम्पटीकरण होने लगता है तो शायद संविधान, कानून, सिस्टम और प्रजातंत्र सब बेमानी हो कर टुकुर-टुकुर देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकते।

उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनाव के बाद सत्ता परिवर्तन हुआ जैसे कि 2014 में देश में हुआ था। शुरू में लगा कि एक बेबाक ‘गेरुआ संत का’ नेतृत्व भले ही विचारधारा के प्रति अटूट प्रतिबद्धता रखता हो, गवर्नैंस में आने के बाद कल्याणकारी राज्य के मूल्यों के प्रति अपनी श्रद्धा को सभी प्राथमिकताओं से ऊपर रखेगा। लेकिन शायद ‘वारांगनेव नृपनीति : अनेक रूपा’ यानी तवायफ की तरह राजनीति के भी अनेक रूप होते हैं। लिहाजा या तो योगी के रूप में मुख्यमंत्री सक्षम नहीं हैं या उनकी क्षमता पर ‘अन्य ताकतों’ ने ग्रहण लगा दिया है। नतीजा यह रहा कि जहां राज्य की व्यवस्था बनाए रखने वाली पुलिस नृशंस और अमानवीय होती गई, वहीं विकास में लगी एजैंसियां फर्जी आंकड़े जुटाने में और हकीकत छुपाने में लग गईं और मोदी-योगी का ‘इकबाल’ इस नई ‘अमानवीय, रीढ़ विहीन लिहाजा फरेबी’ ब्यूरोक्रेसी की वेदी पर दम तोडऩे लगा। 

विकास:अफसरशाही के फर्जी आंकड़े 
ताजा खबर के अनुसार केन्द्र सरकार की पहल पर की गई एक जांच में उत्तर प्रदेश के 1.88 लाख आंगनबाड़ी केन्द्रों में इस महत्वाकांक्षी कार्यक्रम में पंजीकृत बच्चों में से 14.57 लाख बच्चे इस दुनिया में कभी आए ही नहीं, गर्भ में भी नहीं। लेकिन तमाम वर्षों से और आज भी हर रोज इन बच्चों के नाम मिलने वाले 8 रुपए अफसरशाही उदरस्थ कर लेती है यानी हर वर्ष हजारों करोड़। यही वजह है कि बाल मृत्यु दर उत्तर प्रदेश और बिहार में नीचे आने का नाम ही नहीं ले रही है। मोदी के वायदे ‘सबको स्वास्थ्य’ को चूना लगाने वाले ये आई.ए.एस. अफसर जिलों में या विकास प्राधिकरणों में ही नहीं, विकास करने वाले सभी महत्वपूर्ण विभागों पर कुंडली मार कर बैठे रहते हैं। 

एक साल के शासन की स्थिति
कहते हैं चावल का एक दाना देखने से ही पूरी भात के पकने का जायजा लिया जा सकता है। उत्तर प्रदेश में आज योगी शासन के एक साल के बाद शासन की स्थिति देखने के लिए कुछ घटनाएं और उनके विश्लेषण काफी हैं। प्रदेश की राजधानी लखनऊ में जब एक सिपाही कार में जा रहे दो लोगों में से एक को तथाकथित चैकिंग के दौरान सीधे गोली मार देता है और जब मीडिया और समाज इसके खिलाफ आवाज उठाते हैं तो प्रजातंत्र के मूल सिद्धांत ‘सामूहिक दबाव’ का इस्तेमाल करते हुए पुलिस सामूहिक रूप से विरोध करती है, शायद यह बताने के लिए कि ‘बन्दूक है तो चलेगी ही’, मरना तो उस युवा की किस्मत की बात है। 

अंग्रेजी लेखों में इसे ‘ब्रूटलाइजेशन ऑफ पुलिस’ कहा गया और बताया गया कि अगर शासन के शीर्ष पर बैठे राजनीतिक वर्ग का इशारा ‘एनकाऊंटर’ का होगा तो कप्तान और उसके थानेदार इस वर्ग को खुश करने के लिए किसी को उठा कर रात के अंधेरे में ‘ठोंक’ देंगे। कुछ समय में यही पुलिस जिससे हम यूरोपियन पुलिस की मांनद सेवा भाव की अपेक्षा करते हैं, क्रूरता का स्वभाव ले लेगी। 

लखनऊ की घटना परिवर्तन की तसदीक करती है। शुरू में तो सत्तापक्ष इसे ‘दबंगई’ कह कर प्रभावी करार देता है लेकिन जब यह अपना क्रूर चेहरा लेकर सड़क पर किसी व्यक्ति को गोली मार कर सामूहिक ‘दबंगई’ देखने लगता है तब समझ में आता है कि काफी देरी हो चुकी है। सीतापुर में जब कुछ गुंडे एक महिला को बलात्कार का शिकार बनाना चाहते हैं और वह थाने में शिकायत करती है तो थानेदार के कान पर जूं भी नहीं रेंगती। क्रूरता बलात्कार की परिणति है, लिहाजा उसे कुछ भी असामान्य नहीं लगता। उन गुंडों को भी यह नागवार गुजरता है और उसे इस महिला की ‘हिमाकत’ मानते हुए नाराज हो जाते है। इधर यह पीड़ित महिला मोदी-योगी और भाजपा के ‘नारी सम्मान’ के हर दिन दावे पर भरोसा करते हुए जब दोबारा थाने जा कर पूछना चाहती है तो रास्ते में ही ये गुंडे उसे घेर कर जला देते हैं। 

अभी भी समय है। अगर प्रदेशों में भाजपा की सरकारें भावनात्मक मुद्दे पर ध्यान लगाने की बजाय पक्षपात-शून्य ‘गवर्नैंस’ पर लग जाएं तो न तो बुलंदशहर में कोई पुलिस इंस्पैक्टर मारा जाएगा, न ही लखनऊ में कोई कार यात्री गुस्से में आपा खोए किसी सिपाही की गोली का शिकार होगा। अगर राज्य की पुलिस को शिव भक्त कांवडिय़ों पर हैलीकॉप्टर से फूल बरसाने की बाध्यता हो तो ‘इस्तमा’ में देश के कोने-कोने से आए 8 लाख मुसलमानों जायरीनों पर भी यही भाव रखना होगा।-एन.के. सिंह

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