‘हिंसा के प्रश्न’ बंदूक की गोली की तरह जख्म दे रहे

Edited By ,Updated: 14 Jan, 2020 01:05 AM

violence questions  wound up like gunfire

हम भारतीयों को क्या हो गया है? हम हिंसक आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों में इतनी रुचि क्यों लेते हैं? हम तोड़-फोड़ को क्यों पसंद करते हैं? उपद्रवी हमेशा हमसे आगे क्यों रहते हैं? क्या यह देश में अराजकता का लक्षण है जिसके शिकंजे में आज देश जकड़ा हुआ है?...

हम भारतीयों को क्या हो गया है? हम हिंसक आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों में इतनी रुचि क्यों लेते हैं? हम तोड़-फोड़ को क्यों पसंद करते हैं? उपद्रवी हमेशा हमसे आगे क्यों रहते हैं? क्या यह देश में अराजकता का लक्षण है जिसके शिकंजे में आज देश जकड़ा हुआ है? क्या हिंसा आम बात हो गई है? देश में चल रहे उपद्रव, विरोध प्रदर्शनों और हिंसा को देखते हुए ये प्रश्न हमें बंदूक की गोली की तरह जख्म दे रहे हैं।

 
पिछले तीन सप्ताहों में नागरिकता संशोधन कानून,राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर या जे.एन.यू. में फीस वृद्धि के मुद्दों पर चल रहे विरोध प्रदर्शन इस स्थिति पर प्रकाश डालते हैं। इन विरोध प्रदर्शनों में उत्तर प्रदेश में 24 लोगों की मौत हुई, 58 नागरिक और 269 पुलिस कर्मी घायल हुए तथा 405 देशी पिस्तौल पकड़े गए। इसके अलावा पश्चिम बंगाल, बिहार, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में भी इन प्रदर्शनों में कुछ लोग मारे गए और घायल हुए। किन्तु देश की राजधानी दिल्ली में इन आंदोलनों ने विकराल रूप ले लिया जब नागरिकता संशोधन कानून और जे.एन.यू. में फीस वृद्धि के मुद्दे पर जामिया मिलिया, अलीगढ़ विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और जे.एन.यू. के छात्रों ने हिंसक प्रदर्शन किए।

पिछले रविवार को अज्ञात मुखौटा पहने गुंडे जे.एन.यू. में घुसे और उन्होंने वहां तीन-चार घंटे तक मारपीट की जिसमें अनेक छात्र और अध्यापक घायल हुए। छात्रावासों में तोड़-फोड़ की गई और वहां से भाग निकले। पुलिस तब तक मूकदर्शक बनी रही जब तक विश्वविद्यालय प्रशासन ने सहायता की मांग नहीं की। सात लोगों के विरुद्ध मामला दर्ज किया गया और जांच के लिए एक समिति का गठन किया गया। विपक्ष को मोदी सरकार को हाशिए पर लाने का एक और मौका मिला और इसके माध्यम से वे लोगों के आक्रोश और भावनाओं का फायदा उठा रहे हैं और आशा कर रहे हैं कि उससे लोग उनकी ओर आकर्षित होंगे और उन्हें वोट देंगे।
 
विरोध एक उत्साहजनक शब्द है
विपक्षी दलों का कहना है कि सरकार जनता की आवाज नहीं सुन रही है और विरोध को दबाने के लिए बल का प्रयोग कर रही है। विरोध एक उत्साहजनक शब्द है। यह लोकतंत्र को जीवंत रखता है। यह वाक् स्वतंत्रता का पर्याय है किन्तु इसका तात्पर्य प्राधिकारियों द्वारा किए गए अन्याय, किसी कानून के विरुद्ध, पुलिस के दमन के विरुद्ध, प्राधिकारियों की निष्क्रियता के विरुद्ध शांतिपूर्ण मार्च माना जाता है। 

आज उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम कहीं भी चले जाएं यही स्थिति है। कोई भी ऐसा दिन नहीं बीतता जब देश में कहीं हड़ताल और विरोध प्रदर्शन न होते हों। चाहे कोई मोहल्ला हो, जिला हो या राज्य। कुछ लोग इसे ‘सब चलता है’ कहकर और कुछ लोग इसे ‘की फर्क पैंदा है’ कहकर नजरअंदाज कर देते हैं। कारण महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि यदि आपका विरोध प्रदर्शन जोर-शोर से हो रहा हो तो बेहतर है और इसकी सफलता का पैमाना लोगों को अधिकाधिक असुविधा पहुंचाना है।
 
हिंसा आज आम बात हो गई
दुखद तथ्य यह है कि आज हिंसा आम बात हो गई है। किसी भी दिन का अखबार उठा लें या टी.वी. चैनल खोलें तो सामाजिक आक्रोश और विभाजन सुर्खियों में रहता है। आज यह किसी न किसी उद्देश्य से किया जाता है। भारत में आज विरोध प्रदर्शन फल-फूल रहे हैं और यहां जिसकी लाठी, उसकी भैंस चलती है, किन्तु विरोध प्रदर्शन हिंसक नहीं हो सकते। इनका उद्देश्य किसी को नुक्सान पहुंचाना, ब्लैकमेल करना या राजनीतिक अवसरवादिता नहीं हो सकता। इन मुद्दों पर तीन सप्ताह से अधिक समय से विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। सड़कों पर लाठी, पत्थर, ईंट, पैट्रोल बम और हथियारों को लेकर जलने के दृश्य दिखाए जा रहे हैं। व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर ने इसके प्रभाव को और बढ़ा दिया है। 

यह खतरनाक विरोध देश को अराजकता में झोंकने का संदेश दे रहा है कि संविधान और संसद सर्वोच्च नहीं हैं। किसी को भी न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करने का धैर्य नहीं है। इसलिए सबसे आसान तरीका है कि हिंसा की जाए और यह अब कार्य लोकतंत्र की रक्षा के लिए किया जा रहा है। विरोध प्रदर्शनों से क्या परिणाम निकलता है? विरोध प्रदर्शनों से केवल समाचार-पत्र की सुर्खियों में रहा जाता है तथा आम आदमी और सुरक्षा बल उसके निशाने पर होते हैं। कोई भी इस बात की परवाह नहीं करता कि हिंसा से कुछ भी प्राप्त नहीं होता है और कानून के शासन की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। हिंसा तथा देश में अराजकता फैलाने के आह्वान को कतई उचित नहीं कहा जा सकता है। 

इसके अलावा हमें अपने हथियारों से जुड़े कानूनों पर भी पुनर्विचार करना होगा। जिस तरह से उत्तर प्रदेश में बंदूकों के लाइसैंस दिए जा रहे हैं वह हिंसा की संस्कृति को दर्शाता है। आज राज्य में लगभग 7.50 लाख लोगों के पास लाइसैंसी बंदूकें हैं और लगभग तीन लाख लोगों के आवेदन लंबित हैं। इन आवेदकों में से अधिकतर के राजनीतिक माई-बाप होते हैं। राज्य के 403 विधायकों में से 165 विधायकों की आपराधिक पृष्ठभूमि है। सुदूर दक्षिण में केरल में भी राजनीतिक दलों द्वारा कानून के शासन की उपेक्षा की जा रही है। केरल पुलिस की खुफिया शाखा की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार राज्य में दंगाइयों को दंडित करने की संभावना 0.2 प्रतिशत है। इसका मतलब है कि ऐसे मामलों में गिरफ्तार किए गए 99.98 प्रतिशत लोग बरी हो जाते हैं। 

हिंसा की प्रवृत्ति जारी रही तो समाज खंडित हो जाएगा
यह सच है कि नागरिकों के अधिकार सर्वोपरि हैं किन्तु साथ ही भीड़ द्वारा हिंसा भी एक खतरनाक प्रवृत्ति है और यदि यह प्रवृत्ति जारी रही तो समाज खंडित हो जाएगा। यह सच है कि हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है और विरोध प्रदर्शन हमारा अधिकार है किन्तु कोई भी व्यक्ति, समूह या संगठन हिंसा नहीं कर सकता है या हिंसा की धमकी नहीं दे सकता है और यदि वे ऐसा करते हैं तो वे अपनी सुनवाई के लोकतांत्रिक अधिकार को खो देते हैं। हमें यह ध्यान में रखना है कि लोकतंत्र न तो भीड़तंत्र है और न ही अव्यवस्था फैलाने का लाइसैंस है। यह अधिकारों और कर्तव्यों, स्वतंत्रताओं तथा दायित्वों के बीच एक संतुलन है। किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे का दायित्व हो सकता है। ध्यान आकर्षित करने के लिए व्यवस्था को पंगु बनाने से जनता को केवल असुविधाएं ही होती हैं। 

साधुवाद की पात्र है सरकार
एक सामाजिक दृष्टि से संशप्त समाज बनाने में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। फिर भारत इस समस्या से कैसे निपटे। आज देश में ऐसा वातावरण बन गया है कि बंद के माध्यम से अपने अधिकार प्राप्त करना हमारी दूसरी प्रवृत्ति बन गई है और इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने का समय आ गया है। सरकार इस बात के लिए साधुवाद की पात्र है कि उसने घोषणा की है कि भीड़ द्वारा हिंसा में जो लोग सार्वजनिक संपत्ति को नुक्सान पहुंचाएंगे उस नुक्सान की भरपाई उन्हीं लोगों से की जाएगी। समय आ गया है कि हम यह महसूस करें कि लोकतंत्र ऐसी वेश्या नहीं है कि जिसे गली में कोई भी बंदूकधारी व्यक्ति पकड़ ले और उसके साथ जबरदस्ती करे। जोर-जबरदस्ती के अनेक समर्थक होते हैं, किन्तु स्वतंत्रता अनाथ है। हमारा देश एक सभ्य लोकतंत्र है और नए भारत के निर्माण के क्रम में इसे नष्ट नहीं किया जा सकता है। हिंसा अस्वीकार्य है। 

पूनम आई कौशिक  pk@infapublications.com

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