खुद को मुस्लिम कहने वाले हिंसक गिरोह भी कम ‘काफिर’ नहीं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 23 Jun, 2017 10:54 PM

violent gangs who call themselves muslims are not less infidels

कुछ समय पूर्व मैंने कराची में चाय बेचने वाले एक वयोवृद्ध के बारे में लिखा था जो 1967....

कुछ समय पूर्व मैंने कराची में चाय बेचने वाले एक वयोवृद्ध के बारे में लिखा था जो 1967 के मिस्र-इसराईल युद्ध दौरान इसराईली सेना के विरुद्ध लडऩे के लिए मिस्र गया था। केवल 6 दिन तक चले युद्ध के बाद उसने देखा कि रूसी समर्थन प्राप्त मिस्री सेना का इसराईलियों ने किस तरह सफाया कर दिया था। फिर वह यासिर अराफात के फिलस्तीन मुक्ति संगठन (पी.एल.ओ.) में शामिल होने के लिए जॉर्डन चला गया। जल्दी ही उसे लेबनान सीमा पर इसराईली सीमा गार्डों पर गुरिल्ला हमले करने के लिए एक गांव में भेजा गया। 

ऐसे ही एक हमले की योजना दौरान पी.एस.ओ. की जिस टुकड़ी में वह शामिल था, उसमें इस बात को लेकर मतभेद पैदा हो गया कि ऐसा गुरिल्ला हमला करने के फलस्वरूप आम नागरिक भी हताहत हो सकते हैं। इस पाकिस्तानी ने मुझे बताया कि उसके स्क्वायड के अधिक सदस्य नागरिकों के मारे जाने के पक्ष में नहीं थे इसलिए उन्होंने ऐसे गुरिल्ला हमले में हिस्सा लेने से इन्कार कर दिया। आखिर इस योजना का परित्याग कर दिया गया। तदोपरांत यह शख्स पाकिस्तान लौट आया और कराची के आई.आई. चुंदरीगर रोड पर चाय का स्टाल स्थापित कर लिया। इस कहानी को यहां दोहराने का मेरा उद्देश्य यह प्रसंगबद्ध करना है कि आधुनिक मुस्लिम मिलीटैंसी की परिकल्पना किस प्रकार बदलती आई है और गत 4 दशकों दौरान इसने किस तरह बिल्कुल ही एक नया रूप ग्रहण कर लिया है।

अमरीका की इंडियाना यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफैसर जेम्स लुट्ज ने अपनी पुस्तक ‘टैरोरिज्म: ओरिजिन एंड एवोल्यूशन’ में 2005 में लिखा था कि 1960 तथा 1970 के बीच यूरोप के अधिकतर वामपंथी गुट तथा फिलस्तीनी गुरिल्ला समूह काफी हद तक आम नागरिकों को कोई जिस्मानी नुक्सान पहुंचाने से परहेज करते थे क्योंकि वे मीडिया व जनता की हमदर्दी अपने साथ जोडऩा चाहते थे। ऐसा कहने का तात्पर्य यह नहीं कि सिविलियन मौतें हमेशा पूरी तरह  टाली जा सकती थीं। 

फिर भी यह सत्य है कि इस मुद्दे पर अक्सर बहुत से मिलीटैंट गुटों में फूट पड़ जाती थी। इस संदर्भ में (और मुस्लिम मिलीटैंसी  के मामले में भी) सबसे अधिक उल्लेखनीय फूट 1974 में पी.एल.ओ. के यासिर अराफात और अबू निडाल गुटों के बीच भड़की थी। अराफात ने सशस्त्र मिलीटैंसी को अलविदा कहने का फैसला ले लिया और अधिक राजनीतिक झुकाव वाला रास्ता अपना लिया। दूसरी ओर निडाल ने न केवल मिलीटैंसी के मार्ग पर डटे रहने बल्कि इसे और भी प्रचंड बनाने का रास्ता अपनाया। उसने बहुत ही ङ्क्षहसक अबू निडाल आर्गेनाइजेशन (ए.एन.ओ.) का गठन कर लिया जोकि 1980 के दौर में लीबिया, ईराक और सीरिया जैसे गर्मदलीय देशों के लिए भाड़े के टट्टुओं का एक बदनाम समूह बन गया था। 

अलकायदा जैसे विनाशकारी ‘इस्लामी’ गुटों के पूर्वज रह चुके अफगानिस्तान के रूस विरोधी ‘मुजाहिद्दीन’ भी इस बात के प्रति सचेत रहते थे कि उन्हें मीडिया में अच्छी कवरेज मिले और लोग उनके साथ हमदर्दी बनाए रखें। इसी कारण वे सिविलियनों के जान-माल को सुरक्षित रखने का प्रयास करते थे। बेशक अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सी.आई.ए. तथा साऊदी पैसे पर पलने वाले मौलवी उनके दिमाग में कूट-कूट कर ऐसे विचार भरते थे कि मौत को गले लगाना उनका मजहबी कत्र्तव्य है तो भी मुजाहिद्दीन ने आत्मघाती हमलावरों का प्रयोग नहीं किया था- यहां तक कि सोवियत सेनाओं के विरुद्ध भी नहीं। 

मुस्लिम मिलीटैंटों की भागीदारी पर आधारित प्रथम आत्मघाती हमला 1983 में लेबनान की राजधानी बेरूत में हुआ था जब आतंकी संगठन हिज्बुल्ला के एक सदस्य ने विस्फोटक पदार्थों से भरा हुआ एक ट्रक अमरीकी सेना के एक परिसर में घुसा दिया था। फिर भी 1990 के दशक में ही ऐसा हो सका कि खुद को इस्लामी मिलीटैंट कहने वाले जिन लोगों में से अधिकतर ने अफगान गृह युद्ध के दौरान भी सिविलियनों के विरुद्ध हिंसा प्रयुक्त नहीं की थी, उन्होंने विभिन्न मुस्लिम बहुल देशों में निहत्थे नागरिकों को अपना लक्ष्य बनाना शुरू कर दिया। 

अपनी बहुत ही शानदार बी.बी.सी. दस्तावेजी फिल्म ‘पावर ऑफ नाइटमेयर्ज’ (दु:स्वप्नों की शक्ति) में 2004 में एडम कर्टिस ने यह नोट किया कि जो लोग अफगानिस्तान में लड़े थे उनके दिमाग में अमरीका और साऊदी अरब से संबंधित उनके सरगनाओं द्वारा यह बात बैठाने का प्रयास किया जाता था कि वे एक ‘मजहबी लड़ाई’ (यानी जेहाद) लड़ रहे हैं और इसी के बूते उन्होंने रूस जैसी महाशक्ति को धराशाही कर दिया। इनमें से बहुत से लोग अपने-अपने मूल देशों को लौट गए थे और वहां जाकर उन्होंने स्थानीय सरकारों का तख्ता पलट करने के प्रयास शुरू कर दिए। उस समय से वे लोग नास्तिक कम्युनिस्टों को नहीं बल्कि मुस्लिम शासनों को पटखनी देने के प्रयास में लगे हुए हैं।

क्रिटिस ने यह संकेत दिया है कि इन लोगों का यह मानना था कि वे भ्रष्ट मुस्लिम सत्तातंत्रों के विरुद्ध समाज में क्रांतिकारी अफरा-तफरी फैलाकर लोगों को बगावत के लिए भड़का सकते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि सार्वजनिक स्थलों पर कार बम विस्फोट होने शुरू हो गए। लेकिन जब ऐसी गतिविधियों से जनता के अंदर वांछित उभार पैदा नहीं हुआ तो आत्मघाती हमले रोजमर्रा की बात बन गए क्योंकि उग्रवादी हताश हो गए थे। यह संज्ञान लेना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि इस्लाम में दो-टूक शब्दों में आत्महत्या की मनाही की गई है क्योंकि जिंदगी और मौत पर इस्लाम में केवल खुदा का ही अधिकार माना गया है। यानी कि इस्लाम के दृष्टिकोण से आत्मघाती हमले करना या खुद आत्महत्या करना दोनों को ही मजहबी विरोधी माना गया है, इसके बावजूद आत्मघाती बम हमले जारी हैं। 

1990 से लेकर 2005 तक के दौर में ऐसी वारदातें बड़े पैमाने पर हो रही थीं क्योंकि अधिकतर मुस्लिम उग्रपंथियों के मन में प्राचीन मुस्लिम योद्धाओं की बहादुरी को महिमामंडित करती वे कहानियां छाई हुई थीं जो अमरीकी सी.आई.ए. तथा मौलवियों ने उन्हें बार-बार दृढ़ करवाई थीं ताकि वे नास्तिक रूसी कम्युनिस्टों के विरुद्ध अंतिम सांस तक लड़ते रहें। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान में 2014 तक भी आत्मघाती हमलों की ङ्क्षनदा नहीं की गई थी। बेशक 2004 से लेकर 2014 के बीच आत्मघाती हमलों के फलस्वरूप 50,000 लोगों की जान जा चुकी है तो भी गैर-मिलीटैंट मजहबी हस्तियों, प्रतिक्रियावादी मीडिया हस्तियों और कथित विशेषज्ञों द्वारा विशुद्ध नकारवादी हिंसा को मजहब के नाम पर सरकारी दमन, गरीबी, भ्रष्टाचार, ड्रोन हमलों इत्यादि के विरुद्ध जवाबी कार्रवाई करार दिया जा रहा है। 

वास्तव में यह पूरा घटनाक्रम सिवाय नकारवाद तथा अंधी विनाशलीला के और कुछ नहीं है। प्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान और लेखक तथा इस्लामिक मिलीटैंसी पर लंबे समय से विशेषज्ञ चले आ रहे ओलिवर रॉय ने गत 13 अप्रैल को प्रसिद्ध समाचार पत्र ‘द गार्जियन’ में लिखा है कि तालिबान, अलकायदा और खास तौर पर आई.एस.आई.एस. जैसे गुटों की अभूतपूर्व क्रूरता को केवल इसी आधार पर समझा जा सकता है कि विनाशवाद ही ऐसे संगठनों का मूल वैचारिक चरित्र है। इन गुटों के लिए ङ्क्षहसा किसी उद्देश्य की सिद्धि का जरिया नहीं बल्कि अपनी ‘प्रलयकारी ङ्क्षहसा’ से वे सभ्यता के मौजूदा सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक ढांचे और जीवन शैलियों का धरती से सफाया करना चाहते हैं। इससे पहले भी विभिन्न विचारधाराओं के नाम पर और विभिन्न रूपों में ऐसे प्रयास होते रहे हैं। 

नाजियों ने ‘आर्यन श्रेष्ठता’ के नाम पर जर्मनी में यही काम किया था जबकि माओ त्से-तुंग ने चीन में ‘सांस्कृतिक क्रांति’ के नाम पर ऐसा किया। खमेर रूज ने कम्बोडिया में यही रास्ता अपनाया और कम्युनिज्म लाने के नाम पर हजारों कम्बोडियाई नागरिकों को गायब ही कर दिया। लेकिन इस्लामी विनाशवादी व नकारवादी अभी भी बगावत के दौर में से गुजर रहे हैं और किसी भी सत्तातंत्र का स्थायी हिस्सा नहीं बन पाए हैं। रॉय का मानना है कि वे यूरोप और अमरीका के ‘डैथ कल्ट्स’ जैसे ही हैं जो दुनिया के अटल विनाश की मनगढ़ंत भविष्यवाणियों से घबराकर सामूहिक रूप में मौत का वरण कर लेते हैं। फर्क केवल इतना है कि अब की बार ये ‘डैथ कल्ट्स’ ईसाइयत की बजाय इस्लामिक विचारों का बुर्का पहने हुए हैं। ऐसा करने से उन्हें तत्काल मीडिया कवरेज मिलती है। 

रॉय आगे लिखते हैं कि जीवन की परिस्थितियों से परेशान और आक्रोश से भरे हुए किशोर मौत के इन सौदागरों के चंगुल में बहुत आसानी से फंस जाते हैं और इनके हिंसक दस्तों में शामिल हो जाते हैं। उनके मन में यह भ्रम छाया होता है कि किसी आतंकी गुट के करिश्माई नेता के आज्ञाकार बनने से उन्हें एक योद्धा के रूप में एक विशिष्ट पहचान मिलेगी। इन संगठनों में शामिल होकर सभ्यता और स्वयं खुद की हत्या करने वाले युवाओं और युवतियों की अनगिनत प्रोफाइलों का विश्लेषण करने के बाद रॉय इस नतीजे पर पहुंचे कि वास्तव में इन हिंसक जुनूनियों में से बहुत ही कम लोगों ने अतीत में किसी राजनीति आंदोलन में हिस्सा लिया है। अधिकतर लोगों को अचानक ही अपनी एक नई मुस्लिम पहचान का बोध हुआ और वे अपनी मान्यताओं को लेकर बहुत अधिक मुखर हो गए तथा इसी कारण बहुत तेजी से विनाशवादी मतों-पंथों के भर्ती अभियानों के हत्थे चढ़ रहे हैं। 

सबसे उल्लेखनीय बात तो यह है कि मुस्लिम देशों की मजहबी हस्तियां इन विनाशवादियों को अफगानिस्तान की बगावत का ही गरिमापूर्ण विस्तार बताते हुए उन्हें महिमा मंडित कर रही हैं। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें एहसास होने लगा है कि खुद को मुस्लिम कहने वाले ये हिंसक गिरोह भी किसी तरह रूसियों या पश्चिमी लोगों से कम काफिर नहीं हैं।     

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