लोकसभा उपचुनाव में डा. अब्दुल्ला के बदले स्वर: ‘जीतने के लिए कुछ भी करूंगा’

Edited By ,Updated: 07 Apr, 2017 11:12 PM

voice for dr abdullah in lok sabha elections  i will do anything to win

केन्द्रीय मंत्री एवं जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री समेत कई महत्वपूर्ण पदों पर आसीन रहे...

केन्द्रीय मंत्री एवं जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री समेत कई महत्वपूर्ण पदों पर आसीन रहे नैशनल कांफ्रैंस के अध्यक्ष डा. फारूक अब्दुल्ला के राजनीतिक जीवन में निस्संदेह बहुत उतार-चढ़ाव आए। इसके बावजूद वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव हारने तक उनकी छवि कश्मीर के उदार नेता की रही, लेकिन पिछले कुछ समय से उनके द्वारा की जा रही बयानबाजी ने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में डा. फारूक को अलगाववाद समर्थक विवादास्पद नेता के तौर पर स्थापित किया है। 

चौंकाने वाली बात यह है कि जिस जमायत-ए-इस्लामी की स्थापना ही कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार की राजनीतिक जड़ें खोखली करने के लिए हुई थी, लोकसभा उपचुनाव जीतने के लिए डा. फारूक आज उसी संगठन का सहयोग मांग रहे हैं और वर्ष 1996 से 2002 तक रही डा. फारूक अब्दुल्ला सरकार के कार्यकाल में घाटी में सबसे ज्यादा आतंकवादी ढेर किए गए थे, आज डा. फारूक उन आतंकवादियों एवं पत्थरबाजों को कश्मीर के हित में कुर्बान होने वाला करार दे रहे हैं। कुल मिलाकर बात की जाए तो केंद्रीय मंत्री एवं मुख्यमंत्री रहते देशभक्ति और साम्प्रदायिक सद्भाव से ओत-प्रोत तराने गाने वाले डा. फारूक अब्दुल्ला का एक ही मंत्र है कि 9 अप्रैल को होने वाला श्रीनगर-बडग़ाम लोकसभा उपचुनाव जीतने के लिए वह कुछ भी करेंगे। 

वर्ष 2014 में जब से डा. फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर-बडग़ाम संसदीय क्षेत्र में तत्कालीन पी.डी.पी. प्रत्याशी तारिक हमीद कर्रा के हाथों शिकस्त हासिल की है, तब से शायद उनका मुद्दा आधारित चुनावी राजनीति से विश्वास ही उठ गया है, क्योंकि यह पहला मौका था जब उन्होंने किसी चुनाव में पराजय का मुंह देखा था। शेर-ए-कश्मीर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की विरासत को संभालकर राजनीतिक क्षेत्र में धूम मचाने वाले डा. फारूक अब्दुल्ला ही नहीं, बल्कि उन्हें जानने वाले दूसरे लोगों ने भी शायद कभी नहीं सोचा होगा कि वह अपनी पुश्तैनी सीट पर भी चुनाव हार सकते हैं, लेकिन राजनीति में अजेय नेता विरले ही होते हैं और डा. फारूक उस सूची में शामिल नहीं हो पाए। 

चुनाव के बाद कुछ समय लंदन में आराम फरमाने के बाद वर्ष 2016 में ‘टाइगर इज बैक’ की तर्ज पर डा. फारूक फिर सक्रिय हुए और कभी पाकिस्तान पर हमला करने की वकालत करने वाले नैकां अध्यक्ष ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि भारत एवं पाकिस्तान के बीच नियंत्रण रेखा को ही अंतर्राष्ट्रीय सीमा स्वीकार कर लेना चाहिए और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को भारतीय सेनाएं कभी नहीं छुड़ा सकतीं। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि पाक अधिकृत कश्मीर भारत के बाप का नहीं है। इसके बाद तो चारों ओर आलोचना होती रही और इन आलोचनाओं से बेपरवाह डा. फारूक अब्दुल्ला एक से एक भड़काऊ बयान देते रहे। कभी उन्होंने पत्थरबाजों को उकसाया तो कभी अलगाववादियों एवं आतंकवादियों की कार्रवाइयों को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया। 

डा. फारूक अब्दुल्ला के व्यक्तित्व को समझने के लिए कुछ दशक पूर्व पीछे जाना जरूरी है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि वर्ष 1953 में तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद का अपमान करने समेत कुछ मामलों से खफा जवाहर लाल नेहरू द्वारा उनके पिता शेख अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया गया था। अप्रैल 1964 में राज्य की जी.एम. सादिक सरकार द्वारा शेख अब्दुल्ला को रिहा कर दिया गया तो 1967 में शेख अब्दुल्ला के संरक्षण में गठित ‘महाजरायशुमारी’ ने कांग्रेस नेताओं को ‘गंदी नाली का कीड़ा’ बताते हुए उनका तरके मवालात (सामाजिक बहिष्कार) करने की घोषणा की। 

60 के दशक में ही कांग्रेस नेताओं ने डा. फारूक अब्दुल्ला पर जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट में शामिल होने का आरोप लगाते हुए उनके कथित शपथ ग्रहण के फोटो बांटे थे। फिर ‘लोहे से लोहा काटने’ की तर्ज पर शेख अब्दुल्ला की इस मुहिम को निष्प्रभावी करने के लिए कांग्रेस नेतृत्व ने परोक्ष सहयोग करके सैफुद्दीन कारी और सैयद अली शाह गिलानी सरीखे नेताओं को लेकर उस जमायत-ए-इस्लामी का गठन करवाया। 

जमायत-ए-इस्लामी ने शुरू में मदरसे खोले और वर्ष 1972 में विधानसभा चुनाव लड़ा, जिसमें सोपोर से गिलानी समेत उसके 5 विधायक जीते। 1977 के चुनाव में केवल गिलानी को ही जीत हासिल हुई, जबकि 1987 में गठित मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के बैनर तले 3 विधायक चुने गए लेकिन चुनावों में धांधली का आरोप लगाते हुए इन विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। फ्रंट के विधायक बने गिलानी आज हुर्रियत कांफ्रैंस के चेयरमैन हैं और सबसे बड़े अलगाववादी नेता हैं जबकि फ्रंट के टिकट पर अमीरा कदल क्षेत्र से हारे सैयद सलाहुदीन उर्फ यूसुफ ने पाक अधिकृत कश्मीर जाकर आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन की स्थापना की। 

वर्ष 1990 में जब कश्मीर घाटी में आतंकवाद चरम पर था तो डा. फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर लंदन चले गए और तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन के नेतृत्व में राज्यपाल शासन लग गया। 1996 के विधानसभा चुनाव में डा. फारूक फिर से मुख्यमंत्री बने और इस कार्यकाल के दौरान उन्होंने सख्ती का परिचय दिया, जिसकी बदौलत राज्य में सबसे ज्यादा करीब 8 हजार आतंकवादी मारे गए। इसी दौरान उन्होंने केंद्र की वाजपेयी सरकार में अपने पुत्र उमर अब्दुल्ला को विदेश राज्यमंत्री बनवाया। 

भाजपा से नाता तोड़ डा. फारूक ने फिर कांग्रेस का दामन थामा और डा. मनमोहन सिंह सरकार में केंद्रीय अक्षय ऊर्जा मंत्री बने। इस दौरान उन्होंने अनेक स्थानों पर राजनीतिक एवं धार्मिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेकर देशभक्ति एवं साम्प्रदायिक सद्भाव का परिचय दिया लेकिन 2014 का लोकसभा चुनाव हारते ही उनके सुर बदल गए। दिलचस्प बात यह है कि चुनाव जीतने के लिए आज उन्हें न तो जमायत-ए-इस्लामी जैसे संगठन का समर्थन लेने में कोई आपत्ति नजर आती है और न पत्थरबाजों, अलगाववादियों एवं आतंकवादियों की पैरवी करने से गुरेज है। 

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