‘पेयजल संकट’ के लिए हम सब जिम्मेदार

Edited By ,Updated: 03 Feb, 2020 05:00 AM

we are all responsible for the drinking water crisis

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के पेयजल संकट की गंभीरता को समझा और इसीलिए पिछले वर्ष ‘जलशक्ति  अभियान’ प्रारंभ किया। इसके लिए काफी मोटी रकम आबंटित की और अपने अति विश्वासपात्र अधिकारियों को इस मुहिम पर तैनात किया है पर सोचने वाली बात यह है कि जल...

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के पेयजल संकट की गंभीरता को समझा और इसीलिए पिछले वर्ष ‘जलशक्ति  अभियान’ प्रारंभ किया। इसके लिए काफी मोटी रकम आबंटित की और अपने अति विश्वासपात्र अधिकारियों को इस मुहिम पर तैनात किया है पर सोचने वाली बात यह है कि जल संकट जैसी गंभीर समस्या को दूर करने के लिए हम स्वयं कितने तत्पर हैं? 

दरअसल पर्यावरण के विनाश का सबसे ज्यादा असर जल की आपूर्ति पर पड़ता है, जिसके कारण ही पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। पिछले दो दशकों में भारत सरकार ने तीन बार यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि हर घर को पेयजल मिलेगा। तीनों बार यह लक्ष्य पूरा न हो सका। इतना ही नहीं, जिन गांवों को पहले पेयजल की आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर माना गया था, उनमें से भी काफी बड़ी तादाद में गांव फिसल कर ‘पेयजल संकट’ वाली श्रेणी में आ गए। 

सरकार ने पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए ‘राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना’ शुरू की थी जो कई राज्यों में केवल कागजों में सीमित रही। इस योजना के तहत राज्यों के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का दायित्व था कि वे सभी गांवों में जल आपूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करें। उनकी समिति गठित करें और उन्हें आत्मनिर्भर बनाएं। यह आसान काम नहीं है। एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गांव रहते हैं, जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। इन विषम परिस्थितियों में एक अधिकारी कितने गांवों को प्रेरित कर सकता है? मुट्ठीभर भी नहीं। इसलिए तत्कालीन भारत सरकार की यह योजना विफल रही। 

सरकार की योजनाएं
इसके  बाद सरकार ने हैंडपम्प लगाने का लक्ष्य रखा। फिर चैकडैम की योजना शुरू की गई और पानी की टंकियां बनाई गईं पर तेजी से गिरते भूजल स्तर ने इन योजनाओं को विफल कर दिया। हालत यह हो गई है कि अनेक राज्यों के अनेक गांवों में कुएं सूख गए हैं। कई सौ फुट गहरा बोर करने के बावजूद पानी नहीं मिलता। पोखर और तालाब तो पहले ही उपेक्षा के शिकार हो चुके हैं। उनमें कैचमैंट एरिया पर अंधाधुंध निर्माण हो गया और उनमें गांव की गंदी नालियां और कूड़ा डालने का काम खुलेआम किया जाने लगा। फिर ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार योजना’ के तहत कुंडों और पोखरों के दोबारा जीर्णोद्धार की योजना लागू की गई पर इसमें भी राज्य सरकारें विफल रहीं। बहुत कम क्षेत्र हैं जहां नरेगा के अंतर्गत कुंडों का जीर्णोद्धार हुआ और उनमें जल संचय हुआ, वह भी पीने के योग्य नहीं। 

दूसरी तरफ पेयजल की योजना हो या कुंडों के जीर्णोद्धार की, दोनों ही क्षेत्रों में देश के अनेक हिस्सों में अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं ने प्रभावशाली सफलता प्राप्त की है। कारण स्पष्ट है। जहां सेवा और त्याग की भावना है, वहां सफलता मिलती ही है, चाहे समय भले ही लग जाए पर जहां नौकरी ही जीवन का लक्ष्य है, वहां बेगार टाली जाती है। 

वर्षा जल संचयन का अभाव
पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण की रक्षा के लिए सतर्क रहने का कितना ही दावा क्यों न करे, पर सच्चाई तो यह है कि जमीन, हवा, वनस्पति जैसे तत्वों की रक्षा तो बाद की बात है, पानी जैसे मूलभूत आवश्यक तत्व को भी हम बचा नहीं पा रहे हैं। दुख की बात तो यह है कि देश में पानी की आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, वर्षाकाल में जितना जल इन्द्र देव इस धरती को देते हैं, वह भारत के 125 करोड़ लोगों और अरबों पशु-पक्षियों व वनस्पतियों को तृप्त करने के लिए काफी है पर अरबों रुपया बड़े बांधों व नहरों पर खर्च करने के बावजूद हम वर्षा के जल का संचयन तक नहीं कर पाते हैं। नतीजतन बाढ़ की त्रासदी तो भोगते ही हैं, वर्षा का मीठा जल नदी-नालों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है। हम घर आई सौगात को संभाल कर भी नहीं रख पाते। 

पर्यावरण का विनाश जारी
पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सैनीटेशन के मद पर सवा लाख करोड़ रुपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सब कुछ मालूम है पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आई हो, वहां पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। सरकार और लोग, दोनों बराबर जिम्मेदार हैं। सरकार की नियत साफ  नहीं होती और लोग समस्या का कारण बनते हैं, समाधान नहीं। हम विषम चक्र में फंस चुके हैं। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब बहुत देर हो चुकी होगी। 

पर्यावरण के विषय में देश में चर्चा और उत्सुकता तो बढ़ी है पर उसका असर हमारे आचरण में दिखाई नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को समझे नहीं। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुओं, कुंडों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुआं छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। जब प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आएगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहां भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोडऩा चाहिए  तब कहीं यह विनाश रुक पाएगा। अन्यथा जापान की सुनामी, आस्ट्रेलिया के जंगलों में भीषण आग, केदारनाथ में बादलों का फटना इस बात के उदाहरण हैं कि हम कभी भी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।-विनीत नारायण
 

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