हम ‘पड़ोसी देशों’ की आशंकाओं और अविश्वास को दूर नहीं कर पाए

Edited By Punjab Kesari,Updated: 28 May, 2017 10:52 PM

we could not overcome the fears and distrust of neighboring countries

इस बात को लगभग 30 वर्ष होने को आए हैं जब प्रधानमंत्री बनने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह .....

इस बात को लगभग 30 वर्ष होने को आए हैं जब प्रधानमंत्री बनने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह (वी.पी. सिंह) श्रीलंका के राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदास को मिले थे। प्रेमदास बहुत ही विनम्र स्वभाव के व्यक्ति थे। वी.पी. सिंह को तब बहुत हैरानी हुई जब प्रथम सवाल में ही प्रेमदास ने पूछा कि भारत अपनी सेना को वापस कब बुला रहा है? उनका इशारा भारतीय सेना के उन सैनिकों की ओर था जो तमिल टाइगरों (लिट्टे) से लडऩे के लिए 10,000 की संख्या में तैनात किए गए थे। 

इनमें से 1000 तो तमिल टाइगरों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे और हम अभी तक इस भ्रम में हैं कि श्रीलंका के लिए शहीद हुए थे लेकिन वी.पी. सिंह का मानना था कि एक सीमा के बाद श्रीलंकाइयों ने इसे हस्तक्षेप के रूप में देखना शुरू कर दिया था और वे चाहते थे कि भारत उनके देश में से निकल जाए। श्रीलंका गृह युद्ध तो समाप्त हो गया लेकिन जीत सिंहली राष्ट्रवादियों को ही मिली और आज 30 वर्ष पहले की तुलना में श्रीलंका भारतीय प्रभाव क्षेत्र का पहले जैसा हिस्सा नहीं रह गया। यदि अनेक श्रीलंकाई किसी देश को दखलंदाज के रूप में देखते हैं तो वह है चीन। चीन द्वारा कोलंबो तथा हम्बणतोटा में इतनी दैत्याकार बंदरगाहें विकसित की जा रही हैं जिनका भारत सपना भी नहीं देख सकता। 

लेकिन चीन की यह परियोजनाएं एक सौदेबाजी के तहत आई हैं। यानी कि इनके साथ विकास का चीनी माडल श्रीलंका में आया है। यहां इसके विवरण नहीं दिए जा सकते लेकिन इतना अवश्य बताया जा सकता है कि कुछ हद तक यह श्रीलंकाई भूमि पर चीनी उपनिवेश बनाने जैसा ही है। व्यापक परिप्रेक्ष्य में इसका तात्पर्य है कि श्रीलंका को चीन से कर्ज लेना पड़ेगा जिसे वापस कर पाने में श्रीलंका पता नहीं सक्षम होगा भी नहीं। वर्तमान में चीन वाले दुनिया की 2 सबसे महत्वपूर्ण और बड़ी आधारभूत ढांचा परियोजनाएं पूरी कर रहे हैं। इसका नाम है ‘वन बैल्ट वन रोड’। जहां ‘बैल्ट’ राजमार्गों की एक शृंंखला होगी और ‘रोड’ का तात्पर्य है बंदरगाहों एवं समुद्री मार्गों का नैटवर्क। 

चीन ने मई माह में अपनी परियोजना के भविष्य की झांकी दिखाने के लिए एक मीटिंग आयोजित की थी जिसका भारत ने बायकाट किया था। वैसे भूटान को छोड़कर भारत के सभी पड़ोसी देशों ने इस मीटिंग में हिस्सा लिया था। जिस प्रकार श्रीलंका, म्यांमार, बंगलादेश, मालदीव और नेपाल ने इसमें हिस्सेदारी की उससे उस समुदाय में घेराबंदी की आशंकाएं पैदा हो गई हैं जो भारत के रणनीतिक मामलों के बारे में चिंतन करता है। इस मीटिंग में हिस्सा लेने वालों को भारत ने आगाह किया था कि चीन के साथ भागीदारी उन्हें बहुत ही महंगी पड़ेगी लेकिन किसी ने भी हमारी बात नहीं सुनी। 

सवाल पैदा होता है कि भारत की आवाज क्यों नहीं सुनी गई। इस सवाल का उत्तर ढूंढने के लिए हमें इस आलेख के मूल बिंदू की ओर लौटना होगा कि भारत के सभी पड़ोसी देश या तो हमें नापसंद करते हैं या फिर हमारे इरादों को लेकर उनके मन में संदेह है। यहां तक कि हिन्दू नेपाल में भी भारतीय कोई खास लोकप्रिय नहीं रह गए हैं। हमारा एक भी पड़ोसी ऐसा नहीं जिसके साथ हमारा वैसा रिश्ता  हो जैसा अमरीका और कनाडा के बीच है। हमारी सभी सीमाएं अमरीका और मैक्सिको सीमा जैसी दिखाई दे रही हैं या फिर इससे भी बदतर। शायद इस स्थिति के लिए पूरी तरह हमारे पड़ोसी ही जिम्मेदार हैं। औसत भारतीय को निश्चय ही ऐसा लग रहा है कि हम अन्य देशों की शरारतों के शिकार हैं। 

ऊपर से बहुत से पड़ोसी हमारे प्रति कुंठाग्रस्त हैं। बंगलादेशीयों को हम अपने देश में अवैध घुसपैठियों के रूप में देखते हैं जबकि नेपालियों को चौकीदार के रूप में और पाकिस्तानियों को तो सिवाय आतंकवादी के और कुछ समझते ही नहीं। कुछ वर्ष पूर्व नेपाल में भारत विरोधी दंगे भड़के थे जिसमें जान और माल का काफी नुक्सान हुआ था। यह दंगे तब भड़के थे जब एक रिपोर्ट में कहा गया था कि रितिक रोशन ने बयान दिया है कि वह नेपालियों से नफरत करते हैं। रितिक ने ऐसी कोई बात कही ही नहीं थी और यह रिपोर्ट पूरी तरह झूठी थी लेकिन सवाल तो यह पैदा होता है कि नेपालियों ने तत्काल ही इस रिपोर्ट पर भरोसा क्यों कर लिया? 

आज नेपाल के उत्तरी भाग के लोगों का मानना है कि भारत उनके देश में मैदानी और पहाड़ी इलाकों को विभाजित करके घटिया खेल खेल रहा है और उत्तरी क्षेत्र के लोगों (जोकि नेपाली शासन व्यवस्था में अभिजात्य हैं) के विरुद्ध हैं। लंबी और दुखद नाकेबंदी को भड़का रहा है। उनका यह भी मानना है कि भारत उनकी संवैधानिक प्रक्रियाओं में भी हस्तक्षेप कर रहा है। यह संभव है कि नेपाल में भारत की कुछ वैध चिंताएं और हित हों। फिर भी हमें खुद को यह सवाल अवश्य पूछना होगा कि एक हिन्दू देश के साथ हमारे रिश्ते इतने बदहाल क्यों हैं कि हम उन्हें चीन के विरुद्ध अपने पक्ष में नहीं कर सके। 

यहां तक कि चीन के विरुद्ध हमारे एकमात्र दोस्त भूटान के साथ भी हमारे रिश्ते बराबरी पूर्ण नहीं। नेहरू के कार्यकाल में भारत ने भूटान पर ‘दोस्ती की संधि’ जैसी व्यवस्था थोप दी थी जोकि वास्तव में दोस्ती नहीं थी। इस संधि के अंतर्गत भारत को भूटान की विदेश नीति के मामले में वीटो का अधिकार हासिल था। इस संधि में अक्षरश: यूं दर्ज था : ‘‘भूटान की सरकार इस बात के लिए सहमत है कि विदेशी संबंधों के मामले में यह भारत सरकार के परामर्श द्वारा निर्देशित होगी।’’ इस व्यवस्था को कुछ वर्ष पूर्व ही हटाया गया था, शायद वाजपेयी सरकार दौरान ऐसा किया गया था। नेहरू को विरासत में एक विस्तारवादी, साम्राज्यवादी, आक्रामक सत्तातंत्र हासिल हुआ था जिसकी सीमाएं लगातार बदलती रहती थीं। 

पड़ोसी देश ब्रिटिश दौर के भारत से डरते थे और उनका डर निर्मूल नहीं था। हमारी विफलता यह रही है कि हम इन देशों की आशंकाओं, डर और अविश्वास को दूर नहीं भगा पाए और न ही परस्पर सम्मान तथा हितों के आधार पर अर्थपूर्ण रिश्ते ही निर्मित कर पाए। यही विफलता ‘बैल्ट एंड रोड’ शीर्ष वार्ता के मुद्दे पर हमारे अलग-थलग पडऩे का कारण बनी। हमारे पड़ोसियों पर चीन का जो आर्थिक प्रभाव है, भारत लंबे समय तक उसका मुकाबला करने के योग्य नहीं हो सकेगा। लेकिन इसके बावजूद भी हम इन देशों के वास्तविक रूप में मित्र बने रह सकते हैं।    

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