‘हम जलियांवाला बाग का राष्ट्रीयकरण करना चाहते हैं’

Edited By ,Updated: 22 Nov, 2019 01:06 AM

we want to nationalize jallianwala bagh

जलियांवाला बाग हर भारतवासी के लिए किसी भी तीर्थ से कमतर नहीं है। यह जगह हमारे लिए जीवित तीर्थ है। जलियांवाला बाग हिन्दुस्तान के लोगों के बलिदान, संघर्ष का गवाह है। वह तपस्या, वह संघर्ष जो हमने सालों किया है। जिसे हमने अपना जीवन देकर जीवित रखा है।...

जलियांवाला बाग हर भारतवासी के लिए किसी भी तीर्थ से कमतर नहीं है। यह जगह हमारे लिए जीवित तीर्थ है। जलियांवाला बाग हिन्दुस्तान के लोगों के बलिदान, संघर्ष का गवाह है। वह तपस्या, वह संघर्ष जो हमने सालों किया है। जिसे हमने अपना जीवन देकर जीवित रखा है। जलियांवाला बाग की मिट्टी सिर्फ मिट्टी नहीं है।

हमारे लिए ऐसा चंदन है जिसे हर भारतीय माथे पर लगाकर गौरवान्वित होता है और बलिदानियों की श्रद्धा में अपना सिर झुका लेता है। इस मिट्टी के हर कण में हमारे पुरखों का खून शामिल है। इस मिट्टी से शहीदों के बलिदान की आज तक खुशबू आती है। यही वजह थी कि सरकार ने फैसला किया कि इस पवित्र मिट्टी को हमारे राष्ट्रीय संग्रहालय में होना चहिए। जिसका दर्शन करके हमारे देशवासी अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर सकें, आने वाली पीढिय़ां इस बलिदान से परिचित हो सकें। बलिदान और देशभक्ति की प्रतीक यह मिट्टी हमारी राष्ट्रीय धरोहर के रूप में स्थापित हो सके। 

कुछ स्थान राजनीति से ऊपर होते हैं
जलियांवाला बाग जैसे पवित्र तीर्थ स्थल के लिए ट्रस्ट का गठन राजनीतिक सोच को आधार बनाकर नहीं किया जा सकता है। समाज में या देश में कुछ स्थान राजनीति से बहुत ऊपर होते हैं। लिहाजा हमें भी इनके बारे में राजनीति और दल से ऊपर उठकर सोचना चाहिए। यही वजह थी कि इस ट्रस्ट के गठन के समय हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ध्यान आया कि इस ट्रस्ट पर हर देशवासी का हक है, बजाय किसी एक राजनीतिक दल के। और हमने पुनर्गठन का विचार किया। हमने कहा कि किसी भी एक राजनीतिक दल के व्यक्ति को नामित करना न केवल इस ट्रस्ट के साथ बल्कि पूरे देश के साथ अन्याय होगा। 

13 अप्रैल 1919 को हुई इस अमानवीय त्रासदी की सिर्फ याद ही हमारी आत्मा तक झकझोर देती है। जब अंग्रेजों ने निहत्थे देशवासियों का नरसंहार किया था जिसमें महिलाएं, बच्चे, बुजुर्ग सभी शामिल थे। इस तरह की तानाशाही, अमानवीय कार्रवाई की पूरी दुनिया में कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। इस दर्दनाक हादसे के बाद देश के लोगों ने तय किया कि इस जगह पर एक स्मारक बनाया जाए। इसकी अगुवाई मोतीलाल नेहरू ने की। उनकी अध्यक्षता में दिसम्बर 1919 में अमृतसर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 34 वां सत्र आयोजित किया गया था। 49 कनाल और 17 मरला माप वाले जलियांवाला बाग (करीब 6.24 एकड़) को इसके 34 निजी मालिकों से 50 हजार रुपए में खरीदा गया। यह राशि लोगों के सहयोग से जमा की गई। इस भूमि का पंजीकरण 20 सितम्बर 1920 को किया गया।

1920 से 1951 तक बाग का स्वामित्व और प्रबंधन न्यासियों के पास रहा। जलियांवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक अधिनियम 2 मई 1951 से प्रभावी हुआ था। न्यास की पहली बैठक 9 दिसम्बर 52 को आयोजित की गई। इस बैठक में खाली मकानों के अधिग्रहण के लिए 50 हजार रुपए की रकम स्वीकार की गई। न्यास की अगली बैठक 29 दिसम्बर 53 को आयोजित की गई। इस बैठक में 14 हजार 988 रुपए की लागत से अतिरिक्त 12 खाली मकानों के अधिग्रहण का अनुमोदन किया गया। मकानों के अधिग्रहण के लिए स्वीकृत पिछली निधियों में से 2 हजार 572 रुपए की राशि बच गई थी। इसलिए 12 हजार 416 रुपए की शेष राशि केन्द्र सरकार और पंजाब सरकार ने सांझा की थी। 29 दिसम्बर 53 को आयोजित बैठक में दीवार के चारों तरफ लोहे की बाड़ लगाने के लिए 577 रुपए की राशि भी स्वीकृत की गई। भारत सरकार ने स्मारक के पुनर्विकास के लिए 2006-07 के दौरान 7.51 करोड़ रुपए की राशि स्वीकृत की। 

इन तमाम जानकारियों से साबित होता है कि इस ट्रस्ट के लिए जब भी राशि जुटाई गई या तो इस देश की जनता ने दी या फिर ट्रस्ट ने, कभी राज्य सरकार ने तो कभी केन्द्र सरकार ने, यानी कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने कभी अपने दल के फंड से कोई रकम मुहैया नहीं कराई। कांग्रेस के किसी भी कोषाध्यक्ष या किसी पदाधिकारी की कोई रसीद या चैक देखने को नहीं मिलता। 

जलियांवाला बाग के ट्रस्ट का गठन 1951 में किया गया 
उस समय श्री जवाहरलाल नेहरू, डा. सैफुद्दीन किचलू और मौलाना अबुल कलाम आजाद को आजीवन न्यासी बनाया गया। इसके साथ ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष, पंजाब राज्य के राज्यपाल, पंजाब राज्य के मुख्यमंत्री और केन्द्र सरकार द्वारा नामित 3 व्यक्ति ट्रस्ट के सदस्य होंगे, ऐसा तय हुआ। लेकिन कांग्रेस इस ट्रस्ट के प्रति कितनी गंभीर थी, इसका अंदाजा सिर्फ  इस बात से लगाया जा सकता है कि पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का 27 मई 64 को निधन हो गया। डा. सैफुद्दीन किचलू का निधन 9 अक्तूबर 63 को हो गया। मौलाना अबुल कलाम आजाद का निधन 22 फरवरी 58 को हो गया लेकिन इनकी जगह भरी नहीं गई। इसके साथ ही केन्द्र सरकार ने किन लोगों को इन दिनों नामित किया, इससे संबंधित दस्तावेज सरकार के पास नहीं हैं। 

यह ट्रस्ट किस तरह काम कर रहा था, इसका सबूत 1970 में देखने को मिला। जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने न्यासियों की ओर से न्यास के अध्यक्ष के रूप में 19 फरवरी 70 को एक संकल्प पारित किया। अध्यक्ष के रूप में इस संकल्प पर इंदिरा जी के हस्ताक्षर तो देखने को मिलते हैं, लेकिन वह इस ट्रस्ट में कब शामिल हुईं, किस रूप में शामिल हुईं, इसकी जानकारी नहीं मिलती। उन दिनों वह देश की प्रधानमंत्री थीं और कांग्रेस अध्यक्ष बाबू जगजीवन राम थे। यानी ट्रस्ट में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में बाबू जगजीवन राम शायद शामिल नहीं थे तो इंदिरा जी ट्रस्ट में कैसे थीं, इस पर कांग्रेस चुप है। इसके बाद 7 अगस्त 1998 को फिर ट्रस्ट की एक बैठक हुई। इसकी अध्यक्षता कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी ने की जबकि उस समय देश के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे जिन्हें अध्यक्षता के लिए नहीं बुलाया गया। यानी इस ट्रस्ट को नियम-कायदे की बजाय सुविधा के अनुसार चलाया गया। 

इस ट्रस्ट की संरचना में एक बार फिर 2006 में संशोधन किया गया। माननीय प्रधानमंत्री इसके अध्यक्ष होंगे लेकिन अपने कार्यकाल में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने कभी इसकी अध्यक्षता की हो, इसके प्रमाण नहीं मिलते। इसके अलावा कांग्रेस के अध्यक्ष, संस्कृति के प्रभारी मंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष, पंजाब राज्य के राज्यपाल, पंजाब राज्य के मुख्यमंत्री और केन्द्र सरकार द्वारा नामित 3 सदस्य होंगे, ऐसा तय हुआ। 2005 से 2010 तक के लिए पूर्व प्रधानमंत्री आई.के. गुजराल, पद्म भूषण सरदार उमराव सिंह और वीरेन्द्र कटारिया पूर्व सांसद को नामित किया गया जिन्हें प्रधानमंत्री रहते हुए कभी नहीं बुलाया गया। उन्हीं गुजराल जी को बाद में सदस्य बनाया गया। लिहाजा सरकार को लगा कि इस ट्रस्ट को ज्यादा गम्भीरता से लिया जाना चाहिए और हमारी सरकार ने इसमें कुछ बदलाव करके राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया। लेखक केन्द्रीय संस्कृति और पर्यटन राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार)हैं।-प्रह्लाद सिंह पटेल 

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