जलवायु परिवर्तन तथा अर्थव्यवस्था को लेकर हमें जल्द पछताना पड़ेगा

Edited By ,Updated: 10 Jan, 2022 05:34 AM

we will have to regret soon about climate change and the economy

कुछ बदलाव हम तक इतने धीरे से पहुंचते हैं कि वर्तमान पीढ़ी उनके परिणामों की जिम्मेदारी नहीं लेती। स्वाभाविक तौर पर जलवायु परिवर्तन एक ऐसा मुद्दा है जिसे हम इस परिप्रेक्ष्य में ले सकते हैं। हमें याद है कि 1980 के दशक में ‘ग्रीनहाऊस गैस’,...

कुछ बदलाव हम तक इतने धीरे से पहुंचते हैं कि वर्तमान पीढ़ी उनके परिणामों की जिम्मेदारी नहीं लेती। स्वाभाविक तौर पर जलवायु परिवर्तन एक ऐसा मुद्दा है जिसे हम इस परिप्रेक्ष्य में ले सकते हैं। हमें याद है कि 1980 के दशक में ‘ग्रीनहाऊस गैस’, ‘क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स’ तथा ‘ओजोन परत में छेद’ जैसे शब्द सुनते थे। इनका इस्तेमाल स्कूल में भी किया जाता है अर्थात लगभग 35 वर्ष पूर्व भी इस मुद्दे बारे सबको पता था। फिर भी इस बारे बहुत कम काम किया गया है और यही रवैया जारी है। 

इसका एक कारण 2 लॉबियां हैं जो चाहती हैं कि कार्बन उत्सर्जन जारी रहे। तेल तथा गैस उद्योग विश्व का सबसे बड़ा व्यवसाय है तथा ऑटोमोबाइल निर्माता विश्व के दूसरे सबसे बड़े व्यवसाय हैं। और निश्चित तौर पर ये दोनों कार्बनडाइऑक्साइड उत्र्सजन के प्रमुख स्रोत भी हैं, जो हम जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारण है। 

दूसरा कारण यह है कि एक दौड़ के तौर पर हमने इस खतरे को गंभीरतापूर्वक नहीं लिया है क्योंकि हम महसूस करते हैं कि यह सीधे तौर पर हमारी पीढ़ी के लिए चिंता का विषय नहीं है। जरा-सी अधिक गर्मी तथा जरा अधिक ठंडा मौसम हमें अपने जीवन के तरीके में नाटकीय बदलाव लाने तथा चीजों के लिए अधिक दाम चुकाने व अपने लिए असुविधा पैदा करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं हैं। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि 1985 से लेकर अब तक बड़े पैमाने पर वैचारिक प्रक्रिया ने कैसे काम किया तथा यही एकमात्र कारण है कि क्यों हमने जलवायु परिवर्तन को एक घटना के तौर पर स्वीकार किया लेकिन इसके बारे में बहुत अधिक करने में हिचकिचा रहे हैं। समस्या यह है, तथा एक बार फिर विशेषज्ञ हमारे कानों में चिल्ला रहे हैं कि यदि हमने इन चीजों पर काम नहीं किया तो अगले कुछ वर्षों में हमारे ग्रह को बहुत खराब स्थितियों से जूझना पड़ेगा। मगर हम निश्चितता  के साथ कह सकते हैं कि हमने इस खतरे के खिलाफ निर्णायक तौर पर कार्य नहीं किया है। 

एक अन्य क्षेत्र हमारी अर्थव्यवस्था है, जहां ऐसा ही हो रहा है। मैंने पहले भी लिखा है कि हमारे सरकारी आंकड़े हमें बताते हैं कि हम किस ओर जा रहे हैं। आज जितने लोग काम कर रहे हैं 2014 में इनसे 5 करोड़ अधिक भारतीय काम कर रहे थे (और यह मामला महामारी से पहले भी था)। 80 करोड़ लोग (जनसंख्या का 60 प्रतिशत) प्रतिमाह 6 किलो मुफ्त अनाज पर निर्भर हैं। 2 वर्षों तथा महामारी से 3 महीने पहले से जी.डी.पी. की विकास दर में गिरावट आई है। इस वर्ष हमारी अर्थव्यवस्था उसी आकार की रहेगी जैसी यह 2019 में थी लेकिन 2019 में यह पहले ही कमजोर थी। बंगलादेश, जो 2014 में प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. के मामले में हमसे लगभग 50 प्रतिशत पीछे था अब हमसे आगे है। 

इसका कारण क्या है तथा हम किस ओर चल पड़े हैं? हम इन प्रश्रों का उत्तर तभी दे सकते हैं यदि हम पहले यह स्वीकार करें कि जिस तरह से अर्थव्यवस्था का प्रबंधन किया जा रहा है उसमें कुछ न कुछ गलत है। एक प्रक्रिया में तभी सुधार किया जा सकता है यदि हम स्वीकार कर लें कि हम एक गलत दिशा में जा रहे थे। चूंकि हम यह सोचते हैं कि हम सही हैं, हम वहीं पहुंचेंगे जहां हमें रास्ता ले जाएगा। 

एक तीसरा क्षेत्र, जिसके परिणामों के बारे में हम पूरी तरह से नहीं समझे तथा उस पर परिपक्व तरीके से चर्चा नहीं कर रहे, वह समाज का सम्प्रदायीकरण, जो पूर्ण है। आज अल्पसंख्यकों पर हमले, चाहे वे मुसलमान हों अथवा ईसाई, इतने सामान्य हो गए हैं कि वे समाचार पत्रों को पहले पृष्ठों पर भी जगह नहीं बनाते। प्रतिदिन कुछ न कुछ नया होता है  जो आमतौर पर सरकार अथवा सत्तासीन पार्टी द्वारा शुरू किया जाता है। अल्पसंख्यक भारतीयों का अनुमान यह है कि ङ्क्षहसा ने हमारे समाज में काफी तेजी से स्थान बना लिया है। जलवायु परिवर्तन की तरह और संभवत: अर्थव्यवस्था के विपरीत इसे एक जबरन थोपे गए आचरण के तौर पर देखा जा सकता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकार जानबूझ कर जी.डी.पी. की वृद्धि को नाकाम कर रही है। मगर यह कहना सटीक होगा कि आज भारत को जानबूझ कर एक ऐसे चरण की ओर ले जाया जा रहा है जब साम्प्रदायिकता पूरी तरह से इसे संक्रमित कर देगी। 

हमारे लिए इसके क्या परिणाम हैं? निम्र बातों पर गौर किया जा सकता है। एक कमजोर अर्थव्यवस्था के कारण कुल विश्वास के स्तर नीचे हैं जिसका अर्थ यह हुआ कि निवेश कम रहेंगे। इस पर कानून को तोडऩे तथा भीड़ों को सशक्त करने तथा समूहों को हिंसक बनाने का और भी असर पड़ेगा। भारत जैसे बड़े आकार का देश एक बाहरी विश्व से घुसपैठ को नजरअंदाज नहीं कर सकता जो इसके भोजन के हिस्से को खाना शुरू कर दे। यह पहले ही हो चुका है तथा भारत उन देशों की सूची में शामिल है जिनके खिलाफ 2019 से प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव किया गया है (हालांकि इसे सक्रिय नहीं किया गया)।

युवाओं की एक पीढ़ी और संभवत: दो पीढिय़ों को नुक्सान पहुंचाया जा रहा है जिनका आंतरिक दुश्मनों को लेकर सोच बारे ‘ब्रेन वॉश’ किया जा रहा है। फिर संस्थाओं को नुक्सान पहुंचाया जा रहा है जिन्हें दशकों के दौरान नाजुकता से खड़ा किया गया। इनमें न्यायपालिका तथा चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक इकाईयां शामिल हैं जो 2014 के बाद से कार्यपालिका के निर्देशों पर काम कर रही हैं। इनके अतिरिक्त सिविल सॢवसेज तथा सशस्त्र बलों जैसी संस्थाएं हैं जो सरकार तथा सत्ताधारी पार्टी की सोच के मुताबिक इतिहास में पहले से कहीं अधिक  काम कर रही हैं। हमने यह अपने साथ खुशी मनाते हुए किया है और इसलिए इस पर रुकना और वापस मुडऩा आसान नहीं होगा। अंग्रेजी की एक कहावत है कि ‘जल्दीबाजी में काम करना और फुर्सत में पछताना’। जलवायु परिवर्तन तथा अर्थव्यवस्था के मामले में हमें जल्दी ही पछताने का अवसर मिलेगा। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि हम ऐसा फुर्सत में करने में सक्षम होंगे।-आकार पटेल

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!