राजग सहयोगियों के बदलते तेवर क्या रंग दिखाएंगे

Edited By Pardeep,Updated: 07 Jul, 2018 04:07 AM

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एक तरफ देश का राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदल रहा है और अधिकांश विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ  लामबंद हो रहे हैं। दूसरी तरफ राजग में शामिल घटक दलों के बदले हुए सुर भी राजनीतिक पटकथा को नया मोड़ दे रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा के तमाम...

एक तरफ देश का राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदल रहा है और अधिकांश विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ  लामबंद हो रहे हैं। दूसरी तरफ राजग में शामिल घटक दलों के बदले हुए सुर भी राजनीतिक पटकथा को नया मोड़ दे रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा के तमाम छोटे-बड़े नेता भले ही पुन: सत्ता में वापसी की हुंकार भर रहे हों लेकिन भाजपा के लिए वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं होंगे। 

शिवसेना ने तो खुले तौर पर ऐलान कर दिया है कि वह अगला चुनाव भाजपा के साथ गठबंधन करके नहीं बल्कि स्वतंत्र रूप से लड़ेगी। 2004 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने महाराष्ट्र में 62 व भाजपा ने 54 सीटें जीती थीं और शिवसेना का भाजपा पर अप्पर हैंड था लेकिन 2014 की मोदी लहर में महाराष्ट्र की 280 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा 122 सीटें जीत गई जबकि शिवसेना के हिस्से आधी यानी 63 सीटें आईं। तब से शिवसेना नेताओं को लगातार अपनी पार्टी का अस्तित्व खतरे में नजर आ रहा है और उन्हें लगता है कि भाजपा के साथ गठबंधन उनके लिए घाटे का जबकि भाजपा के लिए फायदे का सौदा साबित हो रहा है। यही वजह है कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों को देखते हुए शिवसेना ने अपने तेवर कड़े कर लिए हैं। 

बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी जद (यू) और खुद नीतीश कुमार ने भी अपने सुर बदलने अब शुरू कर दिए हैं। उनके संकेत और भाव-भंगिमाएं यह बता रही हैं कि भाजपा के साथ अब उनका मोहभंग हो रहा है। जद (यू) ने अभी से ऐसे संकेत देने शुरू कर दिए हैं कि बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 25 पर वह स्वयं चुनाव लड़ेगी। नीतीश का वह बयान भी राजनीतिक क्षेत्र में चर्चा में है कि नोटबंदी से गरीब आदमी को आखिर क्या मिला। अभी भाजपा इस स्थिति से उबरी भी नहीं थी कि नीतीश कुमार ने केन्द्र पर बिहार की उपेक्षा करने का आरोप लगाने के साथ-साथ बिहार को विशेष राज्य के दर्जे का मसला उठाकर भाजपा को सफाई देने के लिए मजबूर कर दिया है। पिछले दिनों पटना में बैंक अधिकारियों की एक बैठक में नीतीश कुमार ने एक मंझे हुए सियासी खिलाड़ी की तरह गुगली फैंकते हुए इस बात पर हैरत जताई कि बैंकों को इतनी बड़ी रकम का चूना लगाकर कितनी सफाई से लोग देश से बाहर चले जाते हैं और ‘‘हाई लैवल’’ को पता तक नहीं चलता। अब राजनीति में दिलचस्पी रखने वाला आम आदमी भी यह समझ सकता है कि ‘‘हाई लैवल’’ से उनका मतलब बैंक प्रबंधन से न होकर सीधे-सीधे केन्द्र सरकार पर तंज था। 

चर्चाएं तो यहां तक हैं कि नीतीश कुमार राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के नेता व केन्द्र में मंत्री उपेंद्र कुशवाहा व रामविलास पासवान के साथ नजदीकियां बढ़ाकर राजनीति की शतरंज पर नई चालें चलने का संकेत दे रहे हैं और भाजपा को यह संदेश भी दे रहे हैं कि बिहार में जो वह चाहेंगे यानी जो नीतीश चाहेंगे, वही होगा। जद (यू) ने हाल ही में बिहार के उपचुनाव में हुई हार का ठीकरा जिस तरह भाजपा के सिर फोड़ा है, उससे भी नीतीश कुमार व भाजपा के रिश्तों में आई खटास साफ झलकती है। 

भाजपा के सहयोगी दलों में अकाली दल भी अब पंजाब में अपना भाव बढ़ा रहा है और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों में पंजाब की उन सीटों पर भी अभी से अपना दावा ठोंकने में लगा है जो गठबंधन के समझौते के तहत पिछली बार भाजपा के हिस्से आई थीं। हालांकि अकाली नेता यह अच्छी तरह समझते हैं कि पंजाब में गठबंधन तोडऩे का फैसला उनके लिए आत्मघाती कदम होगा क्योंकि भाजपा के समर्थन के बिना अकाली भी पंजाब में कांग्रेस को टक्कर देने की स्थिति में नहीं हैं। हाल ही में विभिन्न राज्यों से लोकसभा व विधानसभा की रिक्त सीटों पर हुए उपचुनाव के आए नतीजों में भाजपा अपने ही गढ़ों में नेस्तोनाबूद हुई है, उससे भाजपा के भीतर भी अब गहरी हलचल है और भाजपा के कई दिग्गज भी पुन: जीतकर संसद में पहुंचने को  लेकर आश्वस्त नहीं हैं। विपक्षी एकजुटता ने उन्हें अपने भविष्य को लेकर आशंकित कर दिया है। 

इस साल मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं और इन तीनों राज्यों में भाजपा सरकारें एंटी इनकम्बैंसी से जूझ रही हैं। इन राज्यों में हाल ही में हुए उपचुनावों में जिस तरह भाजपा के प्रत्याशी बड़े अंतर से हारे हैं, उससे भाजपा शिविर में हड़कम्प का माहौल है। अगर ये तीनों राज्य भाजपा के हाथों से निकल जाते हैं तो इसका सीधा असर अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों में पड़ेगा और भाजपा के लिए केन्द्र में मिशन रिपीट की राह और मुश्किल हो जाएगी। पार्टी में एक तरह से हाशिए पर धकेल दिए गए यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा सरीखे भाजपा के वरिष्ठ नेता इशारों-इशारों में कई बार सार्वजनिक रूप से मोदी व अमित शाह के नेतृत्व पर सवालिया निशान लगा चुके हैं और पिछले दिनों से तो दोनों नेता और भी मुखर हो उठे हैं। ये अंतर्विरोध अब मीडिया के माध्यम से देशवासियों के समक्ष जाहिर  होने से भाजपा नेतृत्व की चिंताएं व परेशानियां निश्चित रूप से बढ़ रही हैं। 

2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान मोदी व भाजपा नेताओं ने देश की जनता को अच्छे दिन लाने के जो सपने दिखाए थे, वे सपने महज मृगतृष्णा साबित होने से जनता में उपजे आक्रोश को सहज ही भांपा जा सकता है। महंगाई और बेरोजगारी के मोर्चे पर तो केन्द्र सरकार बैकफुट पर है ही, देश के युवा वर्ग ने भी अब सोशल मीडिया पर मोदी सरकार की कोरी लफ्फाजी की खिल्ली उड़ानी शुरू कर दी है। कई राज्यों में क्षेत्रीय दल भी अब भाजपा के खिलाफ  आपस में हाथ मिलाने लगे हैं यानी भाजपा की मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रहीं और लोकसभा चुनावों की उलटी गिनती अलग से शुरू हो गई है। ऐसे में राजग के सहयोगी दलों के बदले हुए सुर देश की राजनीति की पटकथा में कोई नया अध्याय जोड़ सकते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है।-राजेन्द्र राणा(विधायक हिमाचल प्रदेश)

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