मोदी की चीन यात्रा से भारत को क्या मिला

Edited By Pardeep,Updated: 03 May, 2018 04:15 AM

what did india get from modis visit to china

अगर विक्रम-बेताल की कहानी होती तो बहुत अच्छा सवाल बनता था। आखिर चुनावी साल में अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच मोदी अचानक चीन क्यों गए? वह भी एक अनौपचारिक बातचीत के लिए? वह भी तब जब कुछ हफ्ते में उन्हें दोबारा चीन जाना ही था? और आखिर मोदी जी ने शी साहब...

अगर विक्रम-बेताल की कहानी होती तो बहुत अच्छा सवाल बनता था। आखिर चुनावी साल में अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच मोदी अचानक चीन क्यों गए? वह भी एक अनौपचारिक बातचीत के लिए? वह भी तब जब कुछ हफ्ते में उन्हें दोबारा चीन जाना ही था? और आखिर मोदी जी ने शी साहब को घोड़े की पेंटिंग क्यों भेंट की? 

इन सीधे से सवालों का जवाब मोदी-शी वार्ता के बारे में लिखे तमाम अखबारी विश्लेषण में नहीं मिलता। पता नहीं क्यों विदेश नीति पर लिखने वाले भी विदेश नीति करने वालों की तरह घुमावदार जलेबियां बनाते रहते हैं। इशारे ही इशारे में बात करते हैं और अक्सर पहेलियां बुझाते रहते हैं, इसलिए मुझे लगा कि मुझ जैसे गैर एक्सपर्ट को इस सवाल का सीधा-सा जवाब ढूंढना चाहिए। 

सवाल रोचक तो है ही, अहम भी है। पाकिस्तान की फौज कितनी भी खुराफात कर ले, सच यह है कि पाकिस्तान के पास न तो वह आर्थिक हैसियत है, न ही सामरिक क्षमता और न ही कोई दीर्घकालिक सोच जो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को बड़ी चुनौती दे पाए। श्रीलंका, बंगलादेश और नेपाल से संबंध की मिठास घटने-बढऩे की चुनौती है लेकिन सुरक्षा की चुनौती नहीं है। हमारे पड़ोस में सिर्फ  चीन है जिसके पास आज अभूतपूर्व आर्थिक ताकत है, जिसकी सामरिक क्षमता आज दुनिया में किसी से भी लोहा ले सकती है और जिसके नेतृत्व के पास अगले 100 साल सोचने की क्षमता है इसलिए जब भारत के प्रधानमंत्री और चीन के राष्ट्रपति मिलते हैं तो यह दीर्घकालिक महत्व का सवाल बनता है। 

प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी की मुलाकात कोई साधारण समय में नहीं हो रही थी। पिछले कुछ साल भारत-चीन संबंधों में तनातनी के रहे हैं। कूटनीति की दुनिया में कभी स्टेज पर आकर एक-दूसरे से कुश्ती नहीं होती लेकिन यह बात किसी से छुपी नहीं है कि पिछले कुछ समय से भारत और चीन की विदेश नीति में नेपथ्य से काफी रस्साकशी चल रही है। अमरीका चाहता है कि चीन के खिलाफ  एक बड़ा गठबंधन खड़ा करने में भारत उसका पार्टनर बने। उधर, भारत सरकार चीन के आॢथक विस्तार से चिंतित रहती है। पिछले कुछ समय से दक्षिण एशिया के तमाम मोर्चों पर भारत और चीन आमने-सामने रहे हैं। चीन की दुनियाभर में असर बढ़ाने की महत्वाकांक्षी योजना ‘बैल्ट’ में भी भारत सरकार ने फच्चर लगा दिया। 

यह दबी-छुपी तनातनी पिछले साल डोकलाम में खुलकर सामने आ गई। कहने को मामला चीन और भूटान के बीच था क्योंकि चीन एक ऐसे इलाके में अपनी फौज भेज रहा था जिस पर भूटान का दावा रहा है लेकिन दरअसल भूटान के पीछे भारत खड़ा था। मामला यहां तक पहुंचा कि भारत और चीन की सेनाओं में हाथापाई की नौबत आ गई। बात सुलझ गई लेकिन उस वक्त भारत सरकार ने कुछ ऐसा प्रचार किया कि हमने चीन के दांत खट्टे कर दिए हैं, चीनी फौज को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया है। 

बात सच नहीं थी और ये प्रचार चीन को अखर गया। अब पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक की कहानियां बनाना एक बात है और चीन से पंगा लेकर उसकी दुनिया में हेठी करवाना बिल्कुल दूसरी बात है। यहां विदेश नीति में मोदी जी की अनुभवहीनता और बड़बोलापन भारी पड़ गया। उसी समय से चीन ने अपनी सैनिक तैयारी शुरू कर दी, तमाम सुरक्षा विशेषज्ञों ने अब गूगल मैप की मदद से दिखा दिया है कि चीन ने डोकलाम के नजदीक अच्छा-खासा सैनिक जमावड़ा कर लिया है। वहां अपनी सड़कें बेहतर कर ली हैं और 7 हैलीपैड भी बना लिए हैं। उस समय चीन का नेतृत्व पार्टी की अंदरूनी खींचतान में व्यस्त था लेकिन जैसे ही राष्ट्रपति शी ने अपनी कुर्सी को आजीवन सुरक्षित कर लिया तो उनका ध्यान पड़ोस पर जाना स्वाभाविक था। 

अब मोदी जी को समझ आया कि चीन से पंगा लेना भारी पड़ सकता है। यह आशंका खड़ी हुई कि इस साल चीन डोकलाम में बेहतर तैयारी के साथ एक सीमित और सांकेतिक बदला ले सकता है। आज हमारी स्थिति इतनी कमजोर नहीं है जितनी 1962 में थी लेकिन फिर भी चीन के हमले के क्या परिणाम हो सकते हैं, यह समझना मुश्किल नहीं है और कुछ हो न हो, 56 इंच छाती वाले राष्ट्रीय सुरक्षा के पहरेदार के दावों की हवा निकल सकती थी, इसलिए मोदी सब कुछ छोड़ उल्टे पांव चीन गए थे। 

यह सिर्फ  मेरा कयास नहीं है। दबी-छुपी शालीन भाषा में विदेश नीति के तमाम एक्सपर्ट्स भी इसी बात को कह रहे हैं। पिछले 2-3 महीने से भारत सरकार शीर्षासन करके चीन को मनाने-पटाने में जुटी है। मालदीव में राजनीतिक उथल-पुथल और भारत से हस्तक्षेप की अपील के बावजूद चीन को नाराज करने के डर से भारत सरकार ने वहां कोई हस्तक्षेप नहीं किया। मालाबार में ऑस्ट्रेलिया और भारत का संयुक्त नौसेना अभ्यास होना था, चीन के इशारे पर ऑस्ट्रेलिया को बाहर रखा गया। दलाईलामा और उनके साथ आए तिब्बती शरणार्थी भारत सरकार को धन्यवाद करने के लिए आयोजन करना चाहते थे। सरकार ने इस आयोजन को दिल्ली से हटवाया और लिखित निर्देश दिए कि कोई सरकारी अफसर या मंत्री वहां दिखाई नहीं देगा, कहीं चीन नाराज न हो जाए! 

मुलाकात हुई, क्या बात हुई? फिलहाल हम नहीं जानते लेकिन अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं है। मोदी जी ने शी को कहा होगा ‘भाईजान, पता नहीं कैसे यह गलतफहमी हो गई डोकलाम में। आप तो जानते ही हैं मेरा और आपका तो पुराना रिश्ता है। आपकी शान में गुस्ताखी करना मेरा इरादा थोड़े हो सकता है? वैसे भी आपने देखा होगा कि हमने दलाईलामा और आपके तमाम विरोधियों को टाइट कर दिया है। आप चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा। हमने अपनी फौज को कह दिया है कि कुछ ऊटपटांग नहीं होना चाहिए। बस जरा आप भी...’ आगे की बात शायद अनकही रह गई होगी, इशारों में समझ ली गई होगी। ‘और हां, पाकिस्तान और हमारे संबंध के बारे में तो आप जानते ही हैं।  हमें कभी-कभार वहां कुछ करना पड़ जाता है। मैं जानता हूं कि पाकिस्तान आपका मित्र है लेकिन फिर भी...’  यानी  मोदी जी अगले चुनाव तक चीन से डोकलाम में अभयदान और पाकिस्तान के मामले में चुप्पी की फरियाद करने गए थे। 

यह तो वक्त बताएगा कि चीन ने प्रधानमंत्री मोदी की बात को किस हद तक माना लेकिन दोनों तरफ के  बयान से लगता है कि कुछ तो हासिल हुआ है। सवाल है कि चीन की इसमें क्या गरज है? दुनिया को सुनाने के लिए हम सभ्यता के पुराने रिश्ते की चाहे कितनी भी दुहाई दें, सच यह है कि चीन को इससे कोई मतलब नहीं है। व्यापार और आर्थिक स्तर संबंध गहरे हों, इसके लिए चीन व्यग्र नहीं है। उसकी अर्थव्यवस्था भारत के बिना भी चलती है। चीन की असली ङ्क्षचता सिर्फ यही है कि वैश्विक स्तर पर अमरीका, जापान और अन्य कुछ सहयोगी मिलकर जो चीन विरोधी खेमा बना रहे हैं कहीं भारत उसमें शामिल न हो जाए। चुनावी साल में मोदी जी की कमजोरी को भांपते हुए चीन ने वैश्विक मोर्चे पर भारत सरकार से कुछ ठोस आश्वासन लिए होंगे। कुछ सैटिंग तो हुई होगी। 

दोनों के बीच क्या समझ बनी, यह तो हम नहीं जानते लेकिन यह जानते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री ने चीन के राष्ट्रपति को एक चीनी चित्रकार शू बाईहोंग की पेंटिंग भेंट की। कभी शांति निकेतन में रहे इस चित्रकार की पेंटिंग में उन्मुक्त घोड़े हैं। क्या यह महज संयोग है कि ये दोनों नेता इस वक्त अपने-अपने तरह के अश्वमेध यज्ञ में जुटे हैं? चीन के राष्ट्रपति दुनिया भर में चीन का आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने मेंं जुटे हैं तो भारत के प्रधानमंत्री फिलहाल देश को कांग्रेस मुक्त बनाने में जुटे हैं। क्या यह पेंटिंग एक इशारा थी कि तुम्हारे वैश्विक यज्ञ में हम तुम्हारे साथ रहेंगे, बस मेरे चुनावी यज्ञ में तुम विघ्न मत डालना? अगर यह सच है तो इस ‘सैटिंग’ की कीमत क्या है? मोदी जी को तो अभयदान मिल गया लेकिन भारत को क्या मिला? यह सवाल और भी बड़ा है और इसका उत्तर विक्रम से बेताल को अगली बार मांगना होगा।-योगेन्द्र यादव

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