Edited By Pardeep,Updated: 05 Jun, 2018 03:44 AM
देश के 7 राज्यों के किसान 10 दिनों की हड़ताल पर चले गए हैं। उनका कहना है कि शहरों को न तो सब्जी भेजेंगे और न ही दूध की सप्लाई करेंगे। देश के करीब सवा सौ किसान संगठनों की तरफ से इस हड़ताल का आह्वान किया गया है। किसानों की मुख्य मांग एम.एस.पी. पर...
देश के 7 राज्यों के किसान 10 दिनों की हड़ताल पर चले गए हैं। उनका कहना है कि शहरों को न तो सब्जी भेजेंगे और न ही दूध की सप्लाई करेंगे। देश के करीब सवा सौ किसान संगठनों की तरफ से इस हड़ताल का आह्वान किया गया है। किसानों की मुख्य मांग एम.एस.पी. पर फसलों की सरकारी खरीद की व्यवस्था करना है।
किसान तो फल और सब्जियों की सरकारी खरीद की भी बात कर रहे हैं। अन्नदाता सड़क पर है। वह सड़क पर दूध की नदियां बहा रहा है। सड़क पर टमाटर, आलू, गोभी और अन्य सब्जियां फैंक रहा है। वह नारे लगा रहा है। वह रो रहा है। वह आत्महत्या कर रहा है। वह सरकार को वायदे याद दिला रहा है। वह कह रहा है कि खेती से अब पेट नहीं भरता। वह लागत का हिसाब गिना रहा है।
वह बता रहा है कि कैसे उसका खर्चा तक पूरा नहीं होता है। कैसे आढ़तियों के चंगुल में है। कैसे सरकारी खरीद में धांधली होती है। कैसे बिचौलिए उनका हक छीन रहे हैं। कैसे सरकार समय पर मदद नहीं करती है। कैसे फसल बीमा कम्पनी मुआवजा देरी से देती है और आधा-अधूरा ही देती है। कैसे बम्पर फसल में भी नुक्सान होता है और कम उपज होने पर भी दाम नहीं मिल पाते हैं। किसानों को अन्नदाता कहने वाले तमाम दल विपक्ष में रहते हुए किसानों के सबसे बड़े रहनुमा होते हैं और सत्ता में आने के बाद किसान हाशिए पर छूट जाते हैं। तमाम योजनाएं बनती हैं। हर साल कृषि के बजट में इजाफा होता है। हर साल नई सिंचाई परियोजनाओं की घोषणाएं होती हैं, लेकिन हर साल किसानों की आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं।
हर साल खबरें आती हैं कि हजारों की संख्या में किसान खेती छोड़ मनरेगा के तहत मजदूरी करने लगे हैं। कभी मानसून रूठता है तो कभी सरकारें दगा दे जाती हैं। राजस्थान में अकाल सूखा पडऩा आम बात है। वहां एक कहावत है...राम रूठे, राज न रूठे.. यानी भले ही रामजी रूठ जाएं और मानसून दगा दे जाए लेकिन राज यानी राजा को अपना फर्ज निभाना चाहिए। लेकिन लोकतंत्र के राजा घोषणा पत्र तक ही सीमित नजर आते हैं, ऐसे में किसान सड़क पर नहीं उतरे तो क्या करे। नासिक से लेकर मुम्बई तक 30 हजार किसान सड़क पर उतरे और महाराष्ट्र की भाजपा सरकार को कर्ज माफी के लिए मजबूर किया। राजस्थान में शेखावटी इलाके (सीकर, झुंझुनूं, चूरू जिले) के किसान परिवार समेत सड़क पर उतरे और वसुंधरा राजे सरकार को 50 हजार तक के कर्ज माफ करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
कर्नाटक में तो सभी दलों ने अपने घोषणा पत्र में किसानों के कर्ज माफ करने का वायदा किया। यू.पी. में योगी सरकार और पंजाब में अमरेन्द्र सिंह सरकार ऐसा भरोसा दिलाकर ही सत्ता में आ सकी थीं। आज जहां भी चुनाव होना है वहां तय है कि किसानों की कर्ज माफी की घोषणा होनी ही होनी है। लेकिन कर्ज माफी सिर्फ बोनस के रूप में है। आखिर 2009 में मनमोहन सिंह सरकार ने देश भर के किसानों का 60 हजार करोड़ रुपए का कर्ज माफ किया था लेकिन उसकेबाद भी आत्महत्या के मामले रुके नहीं। किसान आज फिर से कर्ज माफी को लेकर सड़क पर हैं। दरअसल कर्ज माफी सरकारी को-ऑप्रेटिव बैंकों से लिए गए कर्ज की ही होती है। परंतु सच यही है कि निजी साहूकारों से किसान ज्यादा तादाद में कर्ज लेते हैं। किसान आढ़तियों से भी कर्ज लेते हैं। ये वर्ग सरकार की कर्ज माफी की योजना के तहत नहीं आते हैं।
किसान आज दोराहे पर है। एक तरफ खेती धोखा देती है तो दूसरी तरफ गाय बचाने के नाम पर गौरक्षकों की गुंडागर्दी से किसान धर्मसंकट में है। पहले किसान की आजीविका के दो साधन हुआ करते थे। एक खेती व दूसरा दुधारू पशु। खेती सूखती तो गाय-भैंस का दूध दो जून की रोटी का इंतजाम कर देता। खेती से मुनाफा होता तो कम दूध देने या दूध देना बंद कर देने वाली गाय-भैंस बेचकर अच्छी नस्ल की नई गाय-भैंस खरीद लाता। आय बढ़ जाती। अब हालात यह है कि किसान चाहकर भी गाय बेच नहीं पाता है। अब या तो गाय को खुला छोड़ दिया जाए या फिर घर में रखकर भूसा-बिनौला पर पैसा खर्च किया जाए। घर में कम दूध देने वाली गाय रखता है तो दूसरे दूध देने वाले पशुओं का चारे-पानी का हिस्सा बंटता है। इससे किसान नुक्सान में रहता है।
अगर गाय को खुला छोड़ देता है तो ऐसी आवारा गाय फसल बर्बाद करती है। किसान को लाखों रुपए खर्च कर खेत की फैंसिंग करवानी पड़ती है। एक तरफ खेती से नुक्सान तो दूसरी तरफ खेत की तारबंदी पर खर्च। एक तरफ नया पशु नहीं खरीद पाने पर हो रहा आॢथक नुक्सान तो दूसरी तरफ अ-दुधारू गाय को पालने का खर्च। गांवों में किसानों के साथ-साथ पूरे गांव की आॢथक हालत खराब होती जा रही है। इस संकट से कैसे किसानों को उबारा जा सकता है इसका तोड़ तो उसी भाजपा सरकार को निकालना है जिसके सहयोगी संगठन गाय को लेकर हल्ला मचाए हुए हैं। एक सवाल उठता है कि क्या किसानों को निश्चित आय हर महीने नहीं दी जा सकती? क्या सरकार यह तय नहीं कर सकती? जानकारों के अनुसार किसान की सालाना आय 6 हजार रुपए से भी कम है। सवाल उठता है कि इतने पैसों से क्या घर चलाया जा सकता है? क्या घर चलाते हुए खेती की जा सकती है? जब सरकारें अकुशल, अद्र्धकुशल और कुशल मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी तय कर सकती हैं तो किसान को क्यों नहीं इसमें शामिल किया जा सकता? इस पर क्यों सोचा नहीं जा सकता?
जब सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात कर सकती है तो किसानों को एक निश्चित आय देने पर क्यों सोच नहीं सकती? हमारे यहां यूनिवर्सल बेसिक इंकम स्कीम की बात हो रही है। यहां तक कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार देश के सबसे पिछड़े कुछ चुङ्क्षनदा जिलों में इस स्कीम को पायलट प्रोजैक्ट के रूप में शुरू कर सकती है। अब जब इस स्कीम के तहत हर भारतीय की जेब में कुछ पैसा डालने की बात हो रही है तो इसकी पहल किसानों से क्यों नहीं हो सकती? भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार देश में 12 करोड़ किसान हैं। एक किसान के घर में अगर औसत रूप से चार वोटर माने जाएं तो यह वोट बैंक 48 करोड़ का बैठता है। इतने वोटर अपने हिसाब से सरकार चुनने की गुंजाइश रखते हैं। किसान इतना बड़ा वोट बैंक तो है लेकिन जातियों में बंटा है। वह कहीं मराठा है, कहीं जाट है, कहीं अहीर है, कहीं मीणा है, कहीं राजपूत है तो कहीं किसी अन्य जाति का है।
किसान अगर एक हो जाएं तो क्या तस्वीर होगी चुनावी राजनीति की, इसकी कल्पना मात्र से ही बड़े-बड़े दलों के पसीने छूटना तय है। किसान दुखी है और आक्रामक भी हो रहा है। उसके संयम की परीक्षा लेना महंगा पड़़ सकता है। किसानों के गुस्से से डरिए। न्याय कीजिए। कम से कम इस साल खरीफ के मौसम से किसानों को कुल लागत (इसमें बीज, खाद, पानी, बिजली, श्रम से लेकर कृषि भूमि और कृषि उपकरणों पर ब्याज शामिल है) पर 50 प्रतिशत मुनाफा देने का काम तो शुरू हो ही सकता है। यहां देखना होगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की उपज की खरीद भी हो। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत सरकार का ही एक सर्वे बताता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) का फायदा सिर्फ 6 प्रतिशत किसान ही उठा पाते हैं।-विजय विद्रोही