Edited By ,Updated: 20 Apr, 2019 04:29 AM
पांच साल पहले मोदी प्रचंड बहुमत के साथ चुनाव जीतकर सत्ता में आए थे। अब जबकि वे दोबारा चुनाव का सामना कर रहे हैं, ऐसे में उनसे पूछा जाना चाहिए कि उनके अच्छे दिन और ‘मिनिमम गवर्नमैंट, मैक्सिमम गवर्नैंस’ जैसे चुनावी वायदों का क्या हुआ। 2014 में...
पांच साल पहले मोदी प्रचंड बहुमत के साथ चुनाव जीतकर सत्ता में आए थे। अब जबकि वे दोबारा चुनाव का सामना कर रहे हैं, ऐसे में उनसे पूछा जाना चाहिए कि उनके अच्छे दिन और ‘मिनिमम गवर्नमैंट, मैक्सिमम गवर्नैंस’ जैसे चुनावी वायदों का क्या हुआ। 2014 में अधिकतर स्तम्भकारों, जिनमें मैं भी शामिल हूं, ने मोदी से उनके वायदों के बारे में प्रश्र नहीं किए थे और वे लुभावने नारे लगाते रहे जिनमें से अधिकतर में कोई दम नहीं था। अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम माॢकटिंग (जिसमें यह सरकार निपुण है) से आगे बढ़कर उनका रिकार्ड देखें।
चमकते नए सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) से शुरूआत करते हैं जो आपको मानना पड़ेगा कि इस सरकार के कार्यकाल के दौरान उस समय तेजी से बढ़ा जिस वर्ष नोटबंदी की गई। गम्भीर अर्थशास्त्रियों और अब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी पहली बार इन आंकड़ों पर सवाल उठाए हैं। यदि हम इन आंकड़ों को मान भी लें तो 7 प्रतिशत वृद्धि दर सामान्य बात है और इसे सफलता नहीं कहा जा सकता। इस बीच अन्य सभी बातें अर्थव्यवस्था की खराब स्थिति की ओर इशारा करती हैं।
मोदी ने भारत को व्यापार और निर्माण के क्षेत्र में वैश्विक हब बनाने की बात कही थी। वास्तविकता यह है कि जी.डी.पी. अनुपात के अनुसार व्यापार 2012 में ऊंचाई पर था और तब से लगातार नीचे गिर रहा है। अब यह कम होकर 44 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इसी प्रकार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) जी.डी.पी. के भाग के रूप में 2008-09 में यू.पी.ए. की सरकार में 3 प्रतिशत था जो मोदी के कार्यकाल में 2 प्रतिशत से थोड़ा अधिक है। वास्तव में मोदी के शासन में भारत वैश्वीकरण से विपरीत दिशा में बढ़ा है।
रुपए की स्थिति
यू.पी.ए. शासन के आखिरी दिनों में मोदी और भारतीय जनता पार्टी ने डालर के मुकाबले रुपए की गिरावट को लेकर काफी हो-हल्ला मचाया था। मोदी ने तो यहां तक कहा था कि रुपया आई.सी.यू. में पहुंच गया है। सच्चाई यह है कि 2013 में संकटकाल में भी रुपया डालर के मुकाबले 63.6 रुपए था, जो इस समय लगभग 69 रुपए है। यदि रुपया 2013 में आई.सी.यू. में था तो अब यह आधिकारिक तौर पर मृत हो चुका है।
2014 के चुनाव से पहले मोदी को कारोबार हितैषी समझा जाता था। लेकिन वास्तविकता यह है कि मोदी सरकार ने यू.पी.ए. के मुकाबले व्यापार और वाणिज्य के मामले में अधिक हस्तक्षेप किया है। जी.एस.टी. को लागू करने के तरीके से यह बात स्पष्ट हो जाती है। विचार कीजिए कि मोदी और भाजपा के सत्ता में आने के बाद जी.डी.पी. के अनुपात में निफ्टी में लगातार गिरावट आई है। इसी प्रकार जब बार-बार ये खबरें आती हैं कि सैंसेक्स लगातार ऊंचाइयों को छू रहा है तो हम यह भूल जाते हैं कि 2010 से 2013 के दौरान रिटर्न 8.5 प्रतिशत था जो 2015 से 2018 के दौरान केवल 9.1 प्रतिशत हुआ है अर्थात उसमें मामूली वृद्धि हुई है। जहां तक नोटबंदी की बात है, यह भ्रष्टाचार कम करने, आयकर अदायगी बढ़ाने, कैशलैश अर्थव्यवस्था बनाने जैसे उद्देश्यों में नाकाम रही है। नोटबंदी का ज्यादा असर नकारात्मक रहा और इसके कारण असंगठित क्षेत्र को काफी नुक्सान हुआ।
लोकतांत्रिक संस्थाओं को क्षति
हालांकि भाजपा द्वारा पिछले 5 वर्षों में सबसे अधिक नुक्सान उन संस्थाओं को पहुंचाया गया जिनका राजनीतिकरण किया गया। इनमें सेनाओं से लेकर केन्द्रीय बैंक तक शामिल हैं। भारत में लोकतांत्रिक संस्थान हमेशा कमजोर रहे हैं लेकिन मोदी ने उन्हें मजबूत बनाने के बजाय उन पर कब्जा करने की कोशिश की है। इतना नुक्सान यू.पी.ए. द्वारा भी नहीं पहुंचाया गया। यही कारण है कि काम के मामले में अपने कमजोर रिकार्ड को देखते हुए भाजपा साम्प्रदायिक राजनीति पर उतर आई है और चुनावों में ङ्क्षहदुत्व का सहारा ले रही है। 2014 में भाजपा का चुनाव प्रचार आशा, उम्मीद और बदलाव पर आधारित था जबकि 2019 में यह ध्रुवीकरण पर केन्द्रित हो गया है। मतदाताओं को स्वयं से यह पूछना चाहिए कि यदि भाजपा दोबारा सत्ता में आती है तो देश के लिए यह भद्दा प्रचार कैसे भविष्य का संकेत है।-रूपा एस.