Edited By ,Updated: 12 Jul, 2019 03:16 AM
बीते कुछ दिनों से हांगकांग में जो कुछ हो रहा है, आखिर उसका कारण क्या है? अधिकतर मीडिया रिपोर्ट्स (राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय) के अनुसार, वहां की हालिया स्थिति के लिए प्रत्यर्पण कानून का वह प्रस्तावित संशोधन जिम्मेदार है, जिससे उनकी स्वायत्तता के खतरे...
बीते कुछ दिनों से हांगकांग में जो कुछ हो रहा है, आखिर उसका कारण क्या है? अधिकतर मीडिया रिपोर्ट्स (राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय) के अनुसार, वहां की हालिया स्थिति के लिए प्रत्यर्पण कानून का वह प्रस्तावित संशोधन जिम्मेदार है, जिससे उनकी स्वायत्तता के खतरे में पडऩे की आशंका है। इसी के विरोध में लाखों प्रदर्शनकारी कई बार सड़क पर उतर चुके हैं, जिन्हें वहां के कारोबारियों का भी समर्थन प्राप्त है। वे कभी पर्यटकों (चीनियों सहित) के सामने प्रदर्शन करते हैं, तो कभी वहां के संसद भवन में जबरन घुसकर वहां तोड़-फोड़ करके अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं।
भले ही विवादित बिल भारी विरोध-प्रदर्शन और आंदोलन के बाद निलंबित कर दिया गया हो,किन्तु वहां के निवासी, जो स्वयं को लोकतंत्र के रक्षक कह रहे हैं-वे इसे पूरी तरह निरस्त करने की मांग कर रहे हैं। प्रदर्शनकारियों के अनुसार, वे इस कानून के लागू होने से काफी भयभीत हैं। यक्ष प्रश्न है कि क्या हांगकांग की इस स्थिति के लिए केवल एक विधि संशोधन जिम्मेदार है? विधेयक का विरोध कर रहे लोग आखिर किस बात से इतना डरे हुए हैं?
विश्व के सबसे बड़े कारोबारी क्षेत्रों, संपन्न नगरों और सर्वाधिक आबादी वाले स्थानों में से एक हांगकांग ब्रिटेन का एक उपनिवेश था, जिसे वर्ष 1997 में चीन को स्वायत्तता की शर्त के साथ सौंपा गया था। ‘‘एक देश-दो व्यवस्था’’ की अवधारणा के साथ हांगकांग को अगले 50 वर्ष के लिए अपनी स्वतंत्रता, सामाजिक, कानूनी और राजनीतिक व्यवस्था बनाए रखने का आश्वासन दिया गया था। समझौते की शर्तों के अंतर्गत हांगकांग को 2047 तक वे अधिकार और स्वतंत्रता प्राप्त रहेंगे, जो चीन की मुख्य भूमि पर लोगों को नहीं प्रदान किए गए हैं। वर्तमान समय में हांगकांग की आबादी 78 लाख है, जिसमें लगभग 90 प्रतिशत लोग हान समुदाय से हैं। बड़ा प्रश्न यह भी है कि वर्ष 2047 के बाद हांगकांग का क्या होगा?
प्रत्यर्पण संधि कानून
इस पृष्ठभूमि में सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि आखिर उस विवादित संशोधन में है क्या? हांगकांग के वर्तमान प्रत्यर्पण कानून में कई देशों के साथ इसकी संधि नहीं है। इसी कारण यदि कोई व्यक्ति अपराध करके हांगकांग वापस आता है, तो उसे मामले की सुनवाई के लिए ऐसे देश में प्रत्यर्पित नहीं किया जा सकता, जहां उसकी संबंधित संधि नहीं है। चीन भी अब तक प्रत्यर्पण संधि से बाहर था, किन्तु प्रस्तावित संशोधन ताइवान, मकाऊ और मेनलैंड (मुख्य भूमि) चीन के साथ भी संदिग्धों को प्रत्यॢपत करने की अनुमति देगा। हांगकांग की नेता और चीन समर्थित कैरी लैम का कहना है कि यह परिवर्तन समय की मांग है ताकि न्याय और अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों को पूरा किया जा सके। आखिर सच क्या है?
अक्सर देखा गया कि जब भी एक विशेष स्थान के लोग या समाज का एक वर्ग किसी विकृत शक्ति से स्वाधीन या मुक्त होता है, तब संबंधित लोगों के लिए वह हर्ष के विषय या सुखद अनुभव से जुड़ जाता है। उदाहरणस्वरूप, 15 अगस्त 1947 में जब भारत ब्रितानी उपनिवेशवाद से स्वतंत्र हुआ, तब रक्तरंजित विभाजन की पीड़ा के बीच देश के अधिकांश क्षेत्रों में स्वाधीनता का उत्सव मनाया गया था। यही कारण है कि सात दशक बाद भी हम भारतीय प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस, 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ किसी बड़े पर्व की भांति ही धूमधाम से मनाते हैं। इस पृष्ठभूमि में हांगकांग की स्थिति अलग थी, जिसका मैं स्वयं साक्षी भी रहा हूं।
वर्ष 1997 में मुझे हांगकांग जाने का अवसर मिला था। उस समय वहां ब्रितानी राज था और क्रिस पैटन तत्कालीन गवर्नर थे। मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि अधिकांश लोग ब्रितानी उपनिवेश से स्वतंत्र होकर चीनी नियंत्रण के अंतर्गत स्वायत्त होने से खुश नहीं थे। वे जानते थे कि चीनी शासन व्यवस्था के अधीन कुछ शर्तों के साथ रहना पराधीनता से कहीं अधिक कष्टदायी और अधिनायकवादी है। इसलिए मैं हांगकांग के वर्तमान घटनाक्रम के मुख्य कारण से स्वाभाविक रूप से परिचित हूं।
हांगकांग में अभी लोकतांत्रिक रूप से सरकार विरोधी प्रदर्शन करने और किसी विचार या मत से असहमति रखने की स्वतंत्रता है, जिसे चीनी सरकार अपनी वैचारिक दर्शन के अनुरूप खत्म करना चाहती है। प्रदर्शनकारियों के अनुसार, प्रत्यर्पण संशोधन उन्हें चीन की दलदली न्यायिक व्यवस्था में धकेल देगा, जहां राजनीतिक और वैचारिक विरोधियों को आर्थिकअपराधों और राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरों जैसे मामलों में आरोपी बनाकर उनका भीषण शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाता है। उनकी आशंका है कि इस कानून का उपयोग अभियोजन के लिए हांगकांग से असंतुष्टों या बागियों को चीन की मुख्य भूमि में भेजने में किया जाएगा। वे मानते हैं कि चीन में एक बार कोई आरोप लगा तो व्यक्ति को ऐसी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना होता है जहां अधिकांश आपराधिक मामले यातनाओं के साथ कठोरतम सजा पर समाप्त होते हैं।
मानवाधिकार और मानवता
अधिनायकवादी चीन विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जहां का राजनीतिक अधिष्ठान साम्यवाद तो आर्थिकी पूंजीवाद के सबसे क्रूरतम स्वरूप से जकड़ी हुई है, जिसमें न ही कोई मानवाधिकार है और न ही मानवता का कोई स्थान। परिणामस्वरूप, आज 142 करोड़ की आबादी वाले चीन में मौत की सजा, आत्महत्या करने वालों और अवसाद पीड़ित रोगियों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है। वर्ष 2012-13 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के सत्ता में आने और गत वर्ष अनिश्चितकाल के लिए राष्ट्रपति रहने की घोषणा के बाद यह स्थिति और भी अधिक विकराल हो गई है। शी सरकार के निर्देश पर ही वर्ष 2015 में हांगकांग के कई पुस्तक विक्रेताओं को नजरबंद कर दिया गया था। इससे पहले 2014 में लोकतंत्र को समर्थन देने वाले ‘अंब्रेला मूवमैंट’’ से जुड़े 9 नेताओं को उपद्रव और अन्य मामलों का दोषी पाया गया था।
बात हांगकांग तक सीमित नहीं है, तिब्बत की स्थिति तो और भी चिंताजनक है। अमरीकी रिपोर्ट के अनुसार, तिब्बत में चीन धार्मिक स्वतंत्रता सहित सभी अधिकारों का लगातार दमन कर रहा है। चीनी अधिकारी बौद्धों को केवल दलाई लामा की फोटो रखने के आरोप में गिरफ्तार कर लेते हैं। भले ही चीन दावा करता हो कि तिब्बत के लोग खुशहाल जीवन के लिए कम्युनिस्ट पार्टी का आभार प्रकट करते हैं, किन्तु सत्य तो यह है कि चीनी सरकार मुख्य भूमि से अपने नागरिकों को बौद्ध अनुयायी बहुल तिब्बत में योजनाबद्ध तरीके से बसा चुकी है। आज तिब्बत की कुल जनसंख्या 78 लाख है, जिसमें 75 लाख नागरिक चीनी हैं। स्थिति यह हो गई है, यदि वहां तिब्बत से निर्वासित आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा कभी चुनाव लड़ें, तो उनकी जमानत तक जब्त हो जाएगी।
उइगर मुसलमानों का दमन
ऐसी ही स्थिति चीन द्वारा कब्जाए या नियंत्रित क्षेत्रों के साथ उसके मुख्य भू-भाग की भी है और शिनजियांग प्रांत उसका ज्वलंत उदाहरण है। वहां वामपंथी सरकार इस्लामी कट्टरवाद और संबंधित आतंकवाद को खत्म करने हेतु हजारों-लाखों उइगर मुस्लिमों को प्रशिक्षण देने के नाम पर प्रतिदिन प्रताडि़त कर रही है। इस्लाम से जुड़े प्रतीक-चिन्हों, साहित्य और नामों को पहले ही प्रतिबंधित किया जा चुका है। अब चीनी सरकार के निर्देश पर ‘फंग साई’ नामक मोबाइल एप के माध्यम से मुस्लिमों के निजी कॉल-रिकॉडर््स, सम्पर्क सूची, एस.एम.एस. आदि पर नजर रखी जा रही है। इसी प्रकार की स्थिति वहां ईसाइयों की भी है।
वास्तव में, चीन के राजनीतिक अधिष्ठान पर जिस विषाक्त विचार का आधिपत्य है, उसने अपने उद्भव से विश्व के जिस भूखंड को छुआ है, वहां अल्पकाल में ही हिंसा, मानवाधिकार हनन, अमानवीय शोषण, श्रम उत्पीडऩ और असहमति के प्रति असहिष्णु रवैया राजनीतिक केन्द्र का मुख्य आधार बन गया। सोवियत संघ, चीन, जर्मनी, पोलैंड, कम्बोडिया, क्यूबा, उत्तरी कोरिया आदि इसके उदाहरण हैं। भारत का पश्चिम बंगाल भी 1977-2011 तक वामपंथियों के शासन में रहा था।
वर्तमान समय में केवल चीन अपनी बदली आर्थिक नीतियों के कारण ही अपना अस्तित्व बचाए रखने में सफल हुआ है। माक्र्सवादी माओ के राज में चीन की प्रगति दर तीन प्रतिशत भी नहीं थी। जैसे ही उनकी मृत्यु के बाद देंग-शियाओ-पिंग ने गद्दी संभाली, उन्होंने वाम विरोधी जनभावना को भांपते और भविष्य को देखते हुए बाजार अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया। सच तो यह है कि वर्तमान समय में आज हम चीन की जो वैश्विक साख,सामरिक शक्ति और उसकी चमक-दमक को देख रहे हैं, उसकी नींव को हिंसा, मानसिक शोषण, तनाव और श्रम-उत्पीडऩ आदि का ही सहारा मिल रहा है। यही कारण है कि हांगकांग के अधिकांश लोग न ही स्वाधीनता के समय शर्तों के साथ चीन के अधीन जाने से खुश थे और न ही अब।-बलबीर पुंज