क्या ‘जनमत संग्रह’ की व्यवस्था होनी चाहिए

Edited By ,Updated: 06 Apr, 2016 12:09 AM

what referendum should provide

भारत की संविधान सभा की एक महत्वपूर्ण बहस राज्यपाल की नियुक्ति को लेकर थी। कई लोगों ने दलील ...

भारत की संविधान सभा की एक महत्वपूर्ण बहस राज्यपाल की नियुक्ति को लेकर थी। कई लोगों ने दलील दी कि जब जरूरत पड़े हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस सजावट वाली इस भूमिका को निभाएं। उससे भी ज्यादा जोरदार मांग थी कि राज्यपाल भी निर्वाचित हों, नियुक्त नहीं। एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में राज्य का मुखिया सीधे लोगों की ओर से चुना जाए, यह दलील थी।
 
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने बहस में हस्तक्षेप किया और कहा कि निर्वाचित गवर्नर चुने हुए मुख्यमंत्री के समानांतर सत्ता वाला हो जाएगा। यह राज्य के सामान्य कामकाज पर असर डालेगा लेकिन नेहरू चाहते थे कि गवर्नर कोई मशहूर आदमी ही बने जिसकी उसके काम के क्षेत्र में इज्जत हो, चाहे जो भी क्षेत्र हो-शिक्षा, विज्ञान या कला । वे राजनीतिक रूप से किसी की नियुक्ति करने के पक्ष में नहीं थे जिसे सत्ताधारी पार्टी पद देना चाहती हो।
 
ल्ेकिन उन्होंने इसकी कल्पना नहीं की थी कि संवैधानिक मुखिया का इस्तेमाल भी कोई राजनीतिक पार्टी अपना मतलब साधने के लिए करेगी। परेशानी का कारण धारा 356 थी जिसने केन्द्र को किसी सरकार को बर्खास्त करने का अधिकार दिया अगर राज्य में कानून और व्यवस्था ‘‘टूट’’  गई हो। लेकिन सामान्य तरीका यह था कि रिपोर्ट के लिए इंतजार हो और उसके बाद कोई कदम उठाया जाए।
 
यह तरीका सिर्फ कागज पर रह गया है। नेहरू के स्वप्न को उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने 1959 में ध्वस्त कर दिया जब वह कांग्रेस अध्यक्ष थीं। वह ई.एम.एस. नंबूदरीपाद सरकार की ओर से लाए गए एक शिक्षा विधेयक के पारित होने के कारण केरल की कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ थीं। नंबूदरीपाद ने इंदिरा गांधी की ओर से शुरू किए गए कांग्रेस के आंदोलन के खिलाफ नेहरू से गुहार लगाई। नेहरू ने निश्चित तौर पर अपनी पुत्री से आंदोलन के बारे में बात की होगी, हालांकि मीडिया ने ऐसी जानकारी नहीं दी।
 
नेहरू ने सार्वजनिक और निजी रूप से नंबूदरीपाद से कहा कि वह लाचार हैं। उन्होंने कहा कि यह कांग्रेस अध्यक्ष का फैसला है। पार्टी की ओर से मनोनीत होने के कारण प्रधानमंत्री को इसका पालन करना होगा। इसके बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और एक चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। यह एक उदाहरण बन गया।
 
पिछले सालों में, चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने में होने वाली झिझक कम होती गई। अब गवर्नर हालांकि संवैधानिक मुखिया होता है, पार्टी के आदेश को मानता है। सिर्फ एक ही मुख्यमंत्री जिन्होंने किसी तरह का प्रतिरोध किया, वह थेे ज्योति बसु और वह ऐसा करके बच भी गए क्योंकि अव्वल तो राजनीति में उनका कद बहुत ऊंचा था और दूसरा, वे राज्य में इतने लोकप्रिय थे कि एक तरह से विद्रोह संगठित कर सकते थे।
 
अब राजनेताओं की हैसियत इतनी कम हो गई है कि केन्द्र की सत्ताधारी पार्टी, वास्तव मेंं, हत्या के बाद भी बच निकलती है। और यह अलोकतांत्रिक है क्योंकि जिस संघीय ढांचे को हम मानते हैं उसमें राज्य को स्वतंत्रता है। कांग्रेस के शासन वाले उत्तराखंड का ही उदाहरण लें। 
 
9 विधायकों के पाला बदलने के कारण कांग्रेस पार्टी अल्पमत में आ गई है। एस.आर. बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट की ओर से बनाई गई प्रक्रिया के अनुसार राज्य सरकार को सदन में बहुमत साबित करने देने के लिए तारीख तय की गई। साफ है कि केन्द्र की नरेंद्र मोदी सरकार को यह भरोसा नहीं था कि पाला बदलने वाले विधायक कांग्रेस से बाहर रहेंगे या फिर से पार्टी में शामिल हो जाएंगे।
इसलिए सदन में बहुमत साबित करने के 24 घंटे पहले ही सरकार बर्खास्त कर दी गई लेकिन विधानसभा भंग नहीं की गई। स्पष्ट है कि भाजपा ने सोचा कि वह दल-बदलुओं को लेकर सरकार बना सकती है। फिर कांग्रेस हाईकोर्ट चली गई और उसके पक्ष में फैसला हो गया कि सदन में मतदान हो।
 
इस सारे एपिसोड से यही सबक मिलता है कि गवर्नर के पद में अब राजनीति घुस गई है। यह अब स्वतंत्र पद नहीं है और राज्यपाल उसी का पालन करता है जो उसे केन्द्र कहता है। जैसा गोविंद वल्लभ पंत ने एक बार कहा था कि गवर्नर एक सरकारी अधिकारी है और उसे वही करना है जो उसे केन्द्र कहता है क्योंकि उसे नई दिल्ली ने नियुक्त किया है। वास्तव में, इसके कई उदाहरण हैं कि गवर्नर अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए क्योंकि केन्द्र  में आने वाली नई सरकार इस पद पर अपने भरोसेमंद वफादार को रखना चाहती थी।
 
संविधान सभा में नेहरू ने जिस बात पर जोर दिया था कि गवर्नर एक मशहूर व्यक्ति हो, अब एक खोखला सपना ही रह गया है। केन्द्र में सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी राज्यों में अपने विश्वास का आदमी चाहती है, खासकर वहां जहां वह शासन में नहीं होती है और पद पर बैठे गवर्नरों को हटा कर वह अपनी यह मंशा छिपाती भी नहीं है। कांग्रेस पार्टी जिसने नेहरू के समय में ऊंची परम्परा बनाई थी, उतनी ही दोषी है जितनी बाकी पाॢटयां।
 
शायद, किसी सत्ताधारी पार्टी को गैर-राजनीतिक और स्वतंत्र व्यक्ति को नियुक्त करने के लिए बाध्य करना कठिन है। इसीलिए धारा 356 को खत्म करने के बारे में देश को गंभीरतापूर्वक ङ्क्षचतन करना चाहिए। यह धारा अलोकतांत्रिक है क्योंकि किसी राज्य में लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को जनता ही बर्खास्त कर सकती है जिसने उसे चुना है।
 
हमारी जिस तरह की संघीय व्यवस्था है उसमें राज्यों को अपने क्षेत्र में स्वतंत्रता हासिल है। अगर उन्हें राज्यों को स्वतंत्रता नहीं देनी होती, संविधान के निर्माता राष्ट्रपति शासन प्रणाली चुन सकते थे। इसके बदले उन्होंने एक संसदीय व्यवस्था चुनी जो विभिन्न राजनीतिक पार्टियोंं और राज्यों के बीच आपस में व्यवहार की इजाजत देती है। किसी भी समय, कोई  पार्टी निचले सदन में अपना बहुमत खो देती है तो हटने के अलावा उसके सामने कोई उपाय नहीं होता।
 
नया चुनाव काफी खर्चीला होता और काफी जटिल। कितनी बार नया मतदान हो? अगर जनमत संग्रह का प्रावधान होता तो इस खामी को दूर किया जा सकता था। जब जस्टिस हिदायतुल्ला उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति थे तो उन्होंने शिकायत की थी कि संविधान में संशोधन पर लोगों का मत जानने की कोई व्यवस्था संविधान निर्माताओं ने नहीं की। वास्तव में, उन्होंने जनमत संग्रह का  सुझाव दिया था लेकिन राजनीतिक पाॢटयों ने इसे खारिज कर दिया। इसलिए राष्ट्र फिर वहीं पहुंच गया, जहां वह था। और अब भी वहीं खड़ा है। 
 
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