कैसा रहेगा भविष्य के पंजाब का राजनीतिक परिदृश्य

Edited By ,Updated: 19 Mar, 2017 12:25 AM

what will be the future political scenario of punjab

आश्चर्यजनक परिणाम दिखाने वाले 2017 के विधानसभा चुनावों के बाद पंजाब में....

आश्चर्यजनक परिणाम दिखाने वाले 2017 के विधानसभा चुनावों के बाद पंजाब में भविष्य का राजनीतिक परिदृश्य कैसा रहने की सम्भावना है?  इसका उत्तर तब तक नहीं दिया जा सकता जब तक हम चुनावी परिणामों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले  कारकों का विश्लेषण नहीं करते। इसलिए हम चुनाव लडऩे वाली मुख्य धारा पार्टियों के भाग्य पर टिप्पणी से शुरूआत करेंगे। पराजित व्यक्ति हमारी हमदर्दी का पात्र होता है। जबकि विजेता को सांस लेने के लिए कुछ अवधि चाहिए। पंजाब का अकाली-भाजपा गठबंधन और आप दोनों ही प्रथम कोटि में आते हैं और कांग्रेस दूसरी में। क्या इन सभी पक्षों के साथ राज्य विधानसभा चुनाव के परिणामों ने वही व्यवहार किया है जिसके वे हकदार थे? शायद ऐसा ही हुआ है। 

सामान्यत: हमें पराजित लोगों के प्रति अधिक कठोर नहीं होना चाहिए। फिर भी अकाली दल और भाजपा की 2017 में हुई चुनावी पराजय के पीछे कार्यरत कारकों का विश्लेषण दिखाता है कि गठबंधन की शर्मनाक कारगुजारी के लिए एंटी इंकम्बैंसी की जबरदस्त भावनाएं जिम्मेदार थीं, जो गठबंधन सरकार के कुशासन, घटिया कारगुजारी एवं इसकी त्रुटिपूर्ण राजनीतिक और शासकीय वरीयताओं के कारण पैदा हुई थीं। इनके साथ ही साथ उपमुख्यमंत्री तथा पार्टी अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल की तानाशाह और घमंड भरी कार्यशैली भी जिम्मेदार थी जिसने लोगों में बहुत अधिक आक्रोश पैदा किया था। इस रुझान के प्रथम संकेत तो 2007 में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह नीत कांग्रेस सरकार को पराजित करके गठबंधन के सत्तासीन होने के जल्दी ही बाद उभरने शुरू हो गए थे। 

इन चुनावों के जल्दी ही बाद होने वाले स्थानीय निकाय चुनावों में सुखबीर के यूथ अकाली दल के सशस्त्र गुंडों ने पार्टी के परम्परागत गढ़ मालवा इलाके में पोलिंग बूथों पर कब्जा कर लिया जिसकी बदौलत स्थानीय निकाय चुनावों में पार्टी ने विरोधियों का सफाया कर दिया। यहां तक कि अकालियों के कनिष्ठ गठबंधन सहयोगी भाजपा के कार्यकत्र्ताओं ने भी सुखबीर ब्रिगेड द्वारा चुनावी बूथों पर कब्जा किए जाने के विरुद्ध रोष व्यक्त किया था। इस प्रकार की तानाशाहीपूर्ण कार्यशैली ने गठबंधन के 2007-2017 तक के शासन दौरान बहुत घटिया रूप अपना लिया। 

पुलिस थाने तो व्यावहारिक  रूप में अकाली दल के शाखा कार्यालय बन कर रह गए। पार्टी प्रमुख होने के नाते सुखबीर ने अधिकतर ऐसे स्थानीय  नेताओं को ‘हलका इंचार्ज’ नियुक्त कर दिया जो विधायक का चुनाव हार गए थे। इन्हीं हलका इंचार्जों के आदेशों के अनुसार पुलिस ने काम करना शुरू कर दिया और अकाली दल के विरोधियों के खिलाफ ज्यादतियां करनी तथा मुकद्दमे दर्ज करने शुरू कर दिए। 

इंतिहा तो उस समय हो गई जब अकाली नेतृत्व ने धर्म और राजनीति को गडमड करने वाला अपना अस्त्र प्रयुक्त करना शुरू कर दिया। यह कदम बिल्कुल ही हितकर सिद्ध नहीं हुआ। चरमपंथी सिखों ने भी गत वर्ष समानांतर सरबत खालसा आयोजित करके धर्म के हथियार के रूप में प्रयोग करना शुरू कर दिया। इस आयोजन ने सत्तारूढ़ अकाली नेतृत्व की नींद हराम कर दी। 

राज्य में कई स्थानों पर पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटनाओं के साथ-साथ यह घटनाक्रम इतनी भयावह सूरत धारण कर गया कि अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के विरुद्ध धर्म का दुरुपयोग करके अकाली दल ने जो लाभ अर्जित किए थे वे भी मिट्टी में मिल गए। इस प्रकार ऐसी स्थिति पैदा हो गई जिसने सिखों (खास तौर पर अकाली दल के गढ़ मालवा क्षेत्र के सिखों) में इसके समर्थन में भारी सेंध लगाई। 

ये बातें ही मुख्य तौर पर सत्तारूढ़ गठबंधन की गत 2 दशकों दौरान सबसे शर्मनाक चुनावी कारगुजारी के लिए जिम्मेदार हैं और इन्हीं के चलते गठबंधन के दोनों घटक 117 सदस्यीय विधानसभा में हाल ही के चुनाव में क्रमश: 15 और 3 सीटें ही जीत पाए। ताजा चुनाव में गठबंधन ने कुल मिलाकर 18 सीटें जीतीं जो आम आदमी पार्टी (आप) से भी 2 सीटें कम हैं। नतीजा यह हुआ कि पहली बार पंजाब विधानसभा के चुनाव में उतरी आप विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल होने का रुतबा हासिल करने में सफल हो गई है। पहले दिन से ही बादल परिवार के लोग इस तथ्य से अवगत थे कि आप कितनी बड़ी चुनौती खड़ी कर सकती है। आखिर लोकसभा चुनाव 2014 दौरान पहली बार चुनाव में उतरी आप पंजाब से 4 सांसद बनाने में सफल हुई थी हालांकि अकाली दल इतनी ही सीटें जीत पाया था जबकि कांग्रेस और भाजपा क्रमश: 3 और 2 सीटों पर जीत हासिल कर पाई थीं। 

कांग्रेस नेतृत्व भी आप द्वारा दी जा चुनौती से अनजान नहीं था। आप ने पंजाब में सत्ता हथियाने का कुकृत्य संकल्प व्यक्त किया था। लेकिन मुख्यत: चार कारणों के चलते यह अपना सपना पूरा करने से चूक गई: पहली बात तो यह है कि इसके पास ऐसा कोई नेता नहीं था जिसका पूरे प्रदेश में प्रभाव हो। दूसरे नम्बर पर यह मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा करने में विफल रही। तीसरी बात यह है कि चुनाव से पूर्व के कुछ महीनों दौरान पार्टी के कई नेता या तो निकाल दिए गए या फिर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था और अंतिम कारण था अरविंद केजरीवाल की तानाशाह जैसी कार्यशैली। 

जब केजरीवाल ने यह घोषणा की कि आप पंजाब विधानसभा के चुनाव लड़ेगी और वह स्वयं पार्टी के अभियान का नेतृत्व करेंगे तो इससे अकाली नेतृत्व सचमुच बदहवास हो गया था। पार्टी के हतोत्साहित काडर में नए जोश का संचार करने के लिए सुखबीर ने उन्हें यह विश्वास दिलाया कि ‘‘5 वर्ष तक आराम करने के बाद हम अगले 10 वर्षों तक पंजाब में राज करेंगे और इस प्रकार पंजाब पर 25 वर्ष शासन करने का उनका 2007 का वायदा पूरा किया जाएगा।’’ 

क्या सुखबीर अपने सपने को हकीकत में बदल सकते हैं? इसका उत्तर कई बातों पर निर्भर करता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि अपनी मृदुभाषिता एवं हर किसी के साथ घुल-मिल जाने वाले स्वभाव तथा अथक जनसम्पर्क बना सकने की अप्रतिम काबिलियत के बूते पंजाब का सबसे लोकप्रिय नेता होने की विलक्षणता हासिल कर चुके पार्टी सुप्रीमो प्रकाश सिंह बादल पहले की तरह काम करने में सक्षम होंगे? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि 2022 में जब वह 95 वर्ष के हो चुके होंगे तो क्या वह सुखबीर की सत्तासीन होने की अभिलाषा में मददगार हो सकेंगे? 

एक दशक लम्बे शासन दौरान अकाली-भाजपा द्वारा पैदा की गई समस्याओं से सफलतापूर्वक निपटने की कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की काबिलियत व उनकी सरकार की कारगुजारी पर ही निर्भर करेगा कि उनके विरुद्ध किस हद तक तथा एंटी इंकम्बैंसी की भावनाएं पैदा होती हैं। राज्य सरकार का खजाना खाली है और इसके सिर 178 लाख करोड़ का भारी-भरकम ऋण है। 3 हजार करोड़ रुपए के बिलों का भुगतान किया जाना बाकी है। ऊपर से राजस्व घाटा भी 8 हजार करोड़ रुपए का है।  2007 की तुलना में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह अबकी बार पूरी तरह बदले हुए नजर आ रहे हैं। उन्होंने गुटबाजी सहित पार्टी के अंदरूनी मामलों तथा राहुल गांधी के साथ अपने असुखद रिश्तों को बहुत दक्षतापूर्ण ढंग से हैंडल किया है। राहुल गांधी कांग्रेस को दरपेश समस्याओं को बहुत बचकाना ढंग से हैंडल करने के लिए जाने जाते हैं। 

अपने प्रारम्भिक पत्ते तो बेशक अमरेन्द्र सिंह ने बहुत होशियारी से खेले हैं। ऐसा लगता है कि वह विंस्टन चॢचल के इस दार्शनिक कथन का अनुसरण कर रहे हैं : ‘‘निराशावादी को प्रत्येक अवसर में कठिनाई ही कठिनाई दिखाई देती है जबकि आशावादी को प्रत्येक कठिनाई में भी अवसर दिखाई देता है।’’

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