जब ‘रक्षक’ ही बन जाए ‘भक्षक’

Edited By ,Updated: 19 Dec, 2019 02:17 AM

when the  protector  becomes the  eater

सत्ता में लौटने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फिर से दोहराते हुए कहा कि पुलिस को स्मार्ट यानी कि सख्त और गम्भीर, आधुनिक तथा मोबाइल, जागरूक तथा जवाबदेह, भरोसेमंद तथा जिम्मेदार व ट्रेंड होना चाहिए। इन सबको देखते हुए उम्मीद करनी चाहिए कि पुलिस...

सत्ता में लौटने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फिर से दोहराते हुए कहा कि पुलिस को स्मार्ट यानी कि सख्त और गम्भीर, आधुनिक तथा मोबाइल, जागरूक तथा जवाबदेह, भरोसेमंद तथा जिम्मेदार व ट्रेंड होना चाहिए। इन सबको देखते हुए उम्मीद करनी चाहिए कि पुलिस सुधारों की ओर यह एक बढ़ता हुआ नया कदम तथा अध्याय है, जिससे कि जवाबदेही तथा गम्भीरता पर ध्यान दिया जा रहा है। तेलंगाना में दुष्कर्म के 4 आरोपियों का स्मार्ट तरीके से एनकाऊंटर कर दिया गया। ये हिरासत में की गई हत्याएं थीं जिसका जश्न भी मनाया गया। वहां के पुलिस कमिश्रर ने यहां तक कह दिया कि कानून ने अपना कार्य कर दिया। हैदराबाद की यह घटना हिरासत में उत्पीडऩ तथा मौत की गम्भीर महामारी का संकेत है। 

क्या बोलते हैं आंकड़े
नैशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एन.सी.आर.बी.) द्वारा प्रकाशित नवीनतम आंकड़े दर्शाते हैं कि हिरासत में 2010-17 में 683 मौतें दर्ज हुईं। इनमें से 100 मौतें तो 2016-17 में हुईं। 2016-17 में ऐसे 13 मामलों की न्यायिक जांच हुई और इसके नतीजे में मात्र 7 पुलिस अधिकारियों को चार्जशीट किया गया। किसी को भी जेल नहीं हुई। उदाहरण के तौर पर गुजरात में हिरासत में (2001 से 2016) 180 मौतें हुईं। एक भी पुलिस अधिकारी पर आरोप साबित नहीं हुए। यह बेहद गम्भीर बात है।

एन.सी.आर.बी. द्वारा जारी आंकड़ों की चारों ओर से आलोचना हुई। राज्यसभा में भारत सरकार ने बयान देकर माना कि 2015-18 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने हिरासत में मौतों के 4920 मामले रजिस्टर्ड किए। इनमें से 412 मौतें पुलिस हिरासत में हुईं। मानवाधिकार के एशियाई सैंटर के अनुमान अनुसार, 2017-18 में प्रतिदिन हिरासत में 5 मौतें हुईं। 2001-10 में यह औसत 4 मौतों की थी। पुलिस द्वारा उत्पीडऩ तथा मौत विचाराधीन कैदियों के मौलिक अधिकारों की उल्लंघना है। यही नहीं, कानून की नजर में यह एक दुखदायी घटना है। इस संदर्भ में इससे पहले कानून में सुधार की जरूरत नहीं समझी गई। अब इसे संशोधित करने की आवश्यकता है। 

इंडियन एविडैंस एक्ट 1872 के कुछ खंडों को बदलना होगा। इसके अलावा कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर 1973 में भी संशोधन करना होगा। वर्तमान में इसकी 53वीं तथा 54वीं धाराओं के अनुसार आरोपी की दो स्थितियों में मैडीकल जांच की जा सकती है। यह या तो पुलिस अधिकारी की आज्ञा से या फिर आरोपी के निवेदन से हो सकती है। इसका अभिप्राय यह है कि आरोपी पूरी तरह पुलिस की दया पर है। लॉ कमीशन के वर्किंग पेपर यह सुझाते हैं कि हिरासती की अनिवार्य मैडीकल जांच करवाई जाती है ताकि यह जांचा जा सके कि उसको हिरासत में कोई चोटें तो नहीं आईं। इसके लिए संसद को कोई कानून लाना चाहिए ताकि हिरासतियों के अधिकारों की रक्षा की जा सके। संसद को एंटी टार्चर विधेयक लाना चाहिए, जिसमें टार्चर तथा हिरासत में मौत की संज्ञा को उजागर करना चाहिए। ऐसे अपराधों के लिए सख्त सजा का प्रावधान होना चाहिए। 

जो भी पुलिस कर्मी ऐसे आपराधिक कृत्यों को करता है वह सख्त सजा का भागी होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने सी.बी.आई. बनाम किशोर सिंह व अन्य के मामले में कहा कि यदि रक्षक ही भक्षक बन जाए तो सभ्य समाज जीने के लिए संघर्ष करेगा। बाइबल भी यही कहती है यदि नमक अपना स्वाद खो दे तो नमक को आप कहां पाओगे। प्रधानमंत्री के नए भारत में हिरासतियों के मानवाधिकार की रक्षा करनी होगी तथा राष्ट्र के संविधान की नैतिकता कायम रखनी होगी।-अभिलक्श गैंद

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