सहकारी बैंकों को लेकर कब खुलेगी ‘नींद’

Edited By ,Updated: 05 Oct, 2019 03:44 AM

when will  sleep  open for cooperative banks

पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑप्रेटिव बैंक (पी.एम.सी.) में जमाकत्र्ताओं का विश्वास घटता जा रहा है। 18,800 करोड़ रुपए की कुल जमाराशि में से 6,500 करोड़ रुपए एक रियल एस्टेट कम्पनी एच.डी.आई.एल. के हवाले कर दिए। उस कम्पनी ने 21 अगस्त को दीवालिया घोषित करने...

पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑप्रेटिव बैंक (पी.एम.सी.) में जमाकत्र्ताओं का विश्वास घटता जा रहा है। 18,800 करोड़ रुपए की कुल जमाराशि में से 6,500 करोड़ रुपए एक रियल एस्टेट कम्पनी एच.डी.आई.एल. के हवाले कर दिए। उस कम्पनी ने 21 अगस्त को दीवालिया घोषित करने की याचिका दायर की और इसके ठीक एक महीने बाद एक व्हिसलब्लोअर ने भारतीय रिजर्व बैंक (आर.बी.आई.) के सामने भेद खोला कि बैंक में धनराशि का सफाया हो चुका है। 

एक सप्ताह बाद आर.बी.आई. ने बैंक के बोर्ड की जगह लेते हुए बैंक को एक प्रशासक की निगरानी में कर दिया तथा निकासी पर प्रतिबंध लगा दिए। इसके बाद छोटे जमाकत्र्ताओं को एहसास हुआ कि उनके जीवन भर की कमाई चली गई है। निराशा उस समय गुस्से में बदल गई जब उन्हें एहसास हुआ कि बैंक के चेयरमैन वरियाम सिंह एच.डी.आई.एल. तथा डी.एच.एफ.एल. के प्रोमोटर्स वधावनों के पारिवारिक मित्र हैं और वर्षों तक इन दोनों कम्पनियों के बोर्डों में सेवाएं दी हैं। प्रबंध निदेशक ज्वाय थॉमस की स्वीकारोक्ति से और भी अपमानजनक स्थिति पैदा हो गई क्योंकि उन्होंने दिन-दिहाड़े की गई इस डकैती के लिए बेशर्मी से खुद को और यहां तक कि आर.बी.आई. को दोष दिया। 

अच्छा समाचार यह है कि पी.एम.सी. के लगभग 44 प्रतिशत जमा की कीमतों के लिहाज से बीमा किया गया है, अन्य 30-35 प्रतिशत एस.एल.आर. तथा सी.आर.आर. जमा, वस्तुओं पर ऋण तथा इसकी जमीनी सम्पत्तियों से वसूले जा सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि 70-75 प्रतिशत जमा वापस मिल सकते हैं। मगर अच्छा समाचार यहीं समाप्त हो जाता है। सारी कानूनी प्रक्रिया पूरी होने में सालों लग सकते हैं। सहकारी बैंक एक उचित बैंकिंग प्रणाली के अभाव का ऐतिहासिक रूप से सामाजिक-राजनीतिक उत्तर थे। महाराष्ट्र में सहकारी आंदोलन गन्ना तथा चीनी मिलों में पनपा और फिर ऋणों में फैल गया। गुजरात में आंदोलन दूध के साथ शुरू हुआ और फिर इसका परिणाम सहकारी बैंकों के रूप में निकला। 

सहकारी बैंकों का ढांचा विनाश के लिए एक नुस्खा है। जमाकत्र्ता शेयरधारक तथा शेयरधारक जमाकत्र्ता हैं। इसलिए लगभग हमेशा प्रमुख जमाकत्र्ता, शेयरधारक तथा कर्जदार एक ही समूह से होते हैं। किसी राज्य से संबंधित सहकारी समितियां तथा बैंकों का नियामन संबंधित राज्य का रजिस्ट्रार ऑफ को-ऑप्रेटिव्स करता है जबकि बहु राज्यों का नियामन केन्द्र सरकार करती है। सरकारी विभाग वरिष्ठ कर्मचारियों की नियुक्ति तथा उनके वेतन-भत्तों बारे नियम बनाते हैं। 

आर.बी.आई. की रिपोटर््स के अनुसार 1551 शहरी सहकारी बैंक तथा 96612 ग्रामीण सहकारी ऋण इकाइयां हैं। देश में कुल जमा में शहरी तथा ग्रामीण सहकारी जमा की हिस्सेदारी 4-4 प्रतिशत है। सहकारी बैंकों की ‘मृत्यु दर’ काफी ऊंची है। प्रतिवर्ष औसतन लगभग 16 दीवालिया होकर मर जाते हैं। अंतिम डूबने वाला एक बड़ा सहकारी बैंक गुजरात में माधवपुरा मर्केंटाइल को-ऑप्रेटिव बैंक था, जिसने अपने 90 प्रतिशत जमा दलाल केतन पारिख को उधार दे दिए थे, जो 2001 में बाजार धराशायी होने के बाद लगभग कुछ भी नहीं लौटा पाया था। क्यों कोई सबक नहीं सीखे गए? 

क्योंकि सहकारी बैंक आमतौर पर अत्यंत स्थानीय होते हैं तथा उनके जमाकत्र्ताओं की पीड़ा राजनीतिक सूई को नहीं हिलाती। न ही यह आर.बी.आई. को एक बिन्दू से आगे चिंतित करती है। आर.बी.आई. का साहित्य दर्शाता है कि केन्द्रीय बैंक हमेशा ही सहकारी बैंकों में अव्यवस्था तथा दूरदराज स्थापित इसकी छोटी-छोटी इकाइयों का प्रबंधन करने में इसके अपने स्टाफ की अक्षमता को लेकर चिंतित रहता है। 

आर.बी.आई. के पूर्व गवर्नर बिमल जालान की एक टिप्पणी दर्शाती है कि आर.बी.आई. सहकारी बैंकों की कमान सम्भालने का इच्छुक नहीं था और इनके प्रबंधन के लिए एक अंतर-सरकारी संस्था चाहता था। हालांकि आर.बी.आई. द्वारा इस बाबत किए गए आवेदन को केन्द्र सरकार ने ठुकरा दिया था। वाई.वी. रैड्डी के अन्तर्गत आर.बी.आई. ने राज्य सरकार के अधिकारियों, आर.बी.आई. के कार्य अधिकारियों तथा सहकारी संघों के सदस्यों पर आधारित एक समिति गठित करने के लिए कई राज्य सरकारों के साथ सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए थे, ताकि कड़े नियम बनाए जा सकें तथा जो व्यावहारिक नहीं हैं उन्हें खत्म किया जाए। हालांकि इस मामले में प्रगति ढीली थी और समस्या को भुला दिया गया क्योंकि यह विभिन्न अधिकारियों के बीच लटकती रही।-एल. वैंकटेश

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