कहां से कहां पहुंच गई हिमाचल कांग्रेस

Edited By ,Updated: 29 May, 2019 04:35 AM

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गुटबाजी के कारण सरकार में रहते हुए भी हिमाचल प्रदेश कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने जो दूरियां आम कार्यकत्र्ता से बनाई थीं, उसका सीधा असर लोकसभा चुनाव के नतीजों में देखने को मिला है, जिनसे स्पष्ट होता है कि कांग्रेस का अपना वोट बैंक भी इस बार...

गुटबाजी के कारण सरकार में रहते हुए भी हिमाचल प्रदेश कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने जो दूरियां आम कार्यकत्र्ता से बनाई थीं, उसका सीधा असर लोकसभा चुनाव के नतीजों में देखने को मिला है, जिनसे स्पष्ट होता है कि कांग्रेस का अपना वोट बैंक भी इस बार भाजपा को शिफ्ट हो गया है। यह वक्त कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए गहन चिंतन और आत्म-मंथन का भी है।

अगर हिमाचल कांग्रेस समय रहते नहीं संभली तो भविष्य में सत्ता में भागीदारी कर पाना उसके लिए मुश्किल होगा क्योंकि वर्तमान में केंद्र और प्रदेश में सत्तासीन भाजपा ने संगठन को जो मजबूती दी है अब सत्ता के बल पर केवल उसका विस्तार ही होना है, जिसमें भाजपा के रणनीतिकार चुनावों से पहले की तरह अब भी व्यस्त ही हैं। वहीं इन चुनावों में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की स्वच्छ छवि का लाभ भी भाजपा को मिला है। 

हिमाचल प्रदेश में लोकसभा की चारों सीटों पर भाजपा ने पहली बार जीत के रिकार्ड तोड़ते हुए कुल 69.1 प्रतिशत मत हासिल किए हैं जबकि कांग्रेस के हिस्से केवल 27.3 प्रतिशत मत ही आए हैं। जबकि डेढ़ वर्ष पूर्व संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने 42.32 प्रतिशत मत हासिल कर 68 में से 21 सीटें जीती थीं। तब भाजपा को 49.53 प्रतिशत मत मिले और उसने 44 सीटों पर जीत दर्ज की थी। यही नहीं, 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में मोदी लहर के बीच भी कांग्रेस ने 41.07 प्रतिशत मत प्राप्त किए थे। हालांकि तब राज्य की सत्ता में होते हुए भी कांग्रेस किसी भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर पाई थी। 

परन्तु इस बार लोकसभा चुनावों में प्रदेश के सभी 68 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा ने जोरदार लीड हासिल की है। राजनीतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि पूरे देश में वोटर की खामोशी के बीच मोदी लहर थी और उसके मुताबिक नतीजे सबके सामने हैं। लेकिन हिमाचल प्रदेश की चारों सीटों पर जीत का मार्जिन कहीं 4 लाख से अधिक तो कहीं 3 लाख से अधिक है, जिस पर उनका यही कहना है कि कांग्रेस पार्टी ने सत्ता में रहते हुए संगठन को सुदृढ़ करने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और सत्ता की मस्ती में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अपने ग्रासरूट कार्यकत्र्ता से दूर होता चला गया जिसका सीधा लाभ भाजपा ने इस चुनाव में उठाया है। पन्ना प्रमुख, विस्तारकों और संगठन मंत्रियों के बलबूते पर जो काम भाजपा ने गांव और मोहल्ला स्तर पर किया है, उसका ही असर माना जा रहा है कि भाजपा ने इन लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को चारों खाने चित्त कर दिया है। 

टिकट से दूर भागने की कोशिशें
इस बार लोकसभा चुनावों को लेकर पहले तो कांग्रेस के कई बड़े नेता ही टिकट से दूर भागने की कोशिशें करते रहे। फिर पूर्व केंद्रीय मंत्री पं. सुखराम और उनके पौत्र आश्रय शर्मा को कांग्रेस में शामिल कर मंडी का टिकट आश्रय को दिया गया। ठीक इसी तरह से प्रयास भाजपा के पूर्व अध्यक्ष व सांसद सुरेश चंदेल को लेकर भी हुए लेकिन उन्हें टिकट से दूर रखने में कुछ कांग्रेसी कामयाब भी हो गए। 

चुनावों से पहले बेमन से ही सही लेकिन वीरभद्र सिंह और पं. सुखराम का मिलन भी हुआ परन्तु जो नतीजे सामने आए उसमें खुद 6 बार मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह की भी जमीन खिसकी है। उनके अपने विधानसभा क्षेत्र अर्की से भाजपा को भारी लीड मिली है और उनके गढ़ माने वाले रोहड़ू और रामपुर विधानसभा क्षेत्र में पहली बार भाजपा ने लीड हासिल की है। इसी तरह से कांग्रेस पार्टी के सभी प्रत्याशियों का साथ उनके अपने विधानसभा क्षेत्रों के मतदाताओं ने भी नहीं दिया। नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्रिहोत्री ने अब तक अपने हलके हरोली से कभी भी भाजपा को किसी भी चुनाव में बढ़त नहीं लेने दी थी लेकिन इस चुनाव में वहां से भी भाजपा को भारी लीड हासिल हुई है। 

दोषारोपण का दौर शुरू
लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के वोट शेयर से पार्टी के सभी दिग्गजों की नींद तो उड़ चुकी है लेकिन इसके साथ ही दोषारोपण का दौर भी शुरू हो चुका है। इस शर्मनाक हार पर पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने तो सीधे ही पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू को दोषी करार दे डाला है। उन्होंने सुक्खू के 6 साल के कार्यकाल के दौरान संगठन के कमजोर होने की बात कही है जबकि उसी दौरान कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी, बतौर मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का भी दायित्व था कि वह संगठन के साथ अपनी सरकार की कदमताल ठीक से बैठाते लेकिन वीरभद्र और सुक्खू के बीच संबंध कड़वे ही रहे जिस कारण कांग्रेस पार्टी में गुटबाजी तेजी से पनपी। 

तब सरकार में उपेक्षित कांग्रेसियों ने सुक्खू का दामन थाम लिया और नेताओं व वरिष्ठ कार्यकत्र्ताओं का एक बड़ा गुट वीरभद्र सिंह और उनके नजदीकी मंत्रियों व विधायकों के साथ जुड़ा रहा। जिसका असर यह हुआ कि वीरभद्र सिंह और सुक्खू ने ग्रासरूट के कार्यकत्र्ता की जरूरत कभी महसूस ही नहीं की, जिससे कांग्रेस का आम कार्यकत्र्ता मायूस हुआ और वह घर बैठ गया। आज भले ही कांग्रेस के बड़े नेता नतीजों को देखकर गहरे सदमे में हैं लेकिन उन्हें यह तो पता चल ही गया है कि अब उन्हें सिर्फ संगठन को फिर से खड़ा करने की जरूरत है, तभी कांग्रेस पार्टी आने वाले चुनावों में भाजपा का मुकाबला कर पाएगी।-डा.राजीव पत्थरिया

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