क्या परिवारवाद से निकल कर पुन: ‘टकसाली लोकतंत्र’ की ओर मुड़ रहा अकाली दल

Edited By Pardeep,Updated: 06 Oct, 2018 04:06 AM

whether akali dal turning from familyism and turning towards tactical democracy

शिरोमणि अकाली दल का संकट समझ में आ सकता है। यह है परिवारवाद। अब अकाली दल जिस संकट में घिर गया है, जिस कारण प्रकाश सिंह बादल को इस उम्र में नाजुक स्वास्थ्य के बावजूद पटियाला की रैली के बहाने सुखबीर बादल की प्रधानगी बचानी पड़ रही है, जिसके मद्देनजर...

शिरोमणि अकाली दल का संकट समझ में आ सकता है। यह है परिवारवाद। अब अकाली दल जिस संकट में घिर गया है, जिस कारण प्रकाश सिंह बादल को इस उम्र में नाजुक स्वास्थ्य के बावजूद पटियाला की रैली के बहाने सुखबीर बादल की प्रधानगी बचानी पड़ रही है, जिसके मद्देनजर सुखदेव सिंह ढींडसा ने पार्टी पदों से इस्तीफा दिया है, अवतार सिंह मक्कड़ को मानना पड़ा है, माझे के टकसालियों को फिलहाल कोई बड़ी छलांग से बचाया जा रहा है। सबसे बड़ा कारण उनके फरजंदों के हितों की रक्षा ही है। किसी भी राज्य के लिए यह कितनी बड़ी त्रासदी होगी कि लोकतंत्र का गला घोंट कर परिवारवाद की राजनीति ही खेली जा रही है। 

मगर क्या अब सुखबीर बादल इस घेरे को तोड़ कर किसी लोकतांत्रिक तरीके की ओर लौटेंगे? क्या उनके अब इस ओर किए जाने वाले कार्य उनसे बागी हो चुके टकसाली मनों पर कोई विशेष प्रभाव डाल सकेंगे? ये दोनों प्रश्र इस समय अकाली दल में सिर उठाए खड़े हैं। बेशक कुछ विश्लेषकों द्वारा या हमने भी यह प्रश्र अपने मन में पाल लिया है कि आखिर बागी सुरों के भी अपने पारिवारिक हित हैं, मगर ये सुर अब जिस कोण से बोले जा रहे हैं उनमें पहले वाली टोन नहीं महसूस की जा रही। यह मामला अब ‘बादल परिवार बनाम बहुत सारे परिवार’ हो गया है। बेशक इन सभी ने परिवार पालने हैं मगर एक परिवार पर अब कई बलिदान नहीं किए जाएंगे। 

दूसरा, सुखबीर बादल ने अपनी ताजा बैठकों, विशेषकर लुधियाना वाली बैठक में पार्टी के संगठनात्मक घेरे को बढ़ाते हुए टकसाली नेतृत्व को ध्यान में रखा है। वह अवतार सिंह मक्कड़ सहित उन सभी टकसाली अकालियों के घर गए, जिन्होंने बेअदबी मामले में अत्यंत तीखी प्रतिक्रियाएं दी थीं। यह भी संकेत मिल रहे हैं कि वह शीघ्र ही बड़े टकसाली अकालियों को पार्टी के बड़े पदों पर बिठाएंगे। परमिंद्र सिंह ढींडसा को भी पंजाब विधानसभा में पार्टी नेता के तौर पर नियुक्त किया जा सकता है लेकिन इसके बावजूद अकाली दल में आने वाले दिनों में और क्या घटेगा, उसका अनुमान लगाना अभी मुश्किल है। 

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमने आतंकवाद के दौर के समय लोकतंत्र का जो नुक्सान किया वह दौर गुजर जाने के बाद भी हमारे नेतृत्व ने कोई सीख नहीं ली। बहाने से विद्यार्थी चुनावों पर रोक लगा दी। किसी किस्म की सामाजिक, सांस्कृतिक तथा साहित्यिक लहर तीन दशकों से पंजाब में दिखाई नहीं दी। लिहाजा हम समाज की राजनीतिक समझ बनाने से वंचित रह गए। जिस समाज के व्यक्ति राजनीतिक नहीं होंगे, उसका विकास नुक्स वाला ही होगा। फिर इस गैर राजनीतिक समझ से नशेड़ी पैदा होंगे। इस गैर राजनीतिक समाज में फिर गैंगस्टरों का फैलना यकीनी हो जाएगा। पंजाब ने ये दिन देखे और हमारी राजनीति ने इन दिनों के लिए अनुकूल माहौल तैयार किया।

यदि पंजाब संताप में है तो समय राजनीतिक उभार का नहीं। फिर तो बिल्कुल ही सन्नाटा पसर जाता है और पंजाबी मन किसी गहरी बेहोशी में जा गिरता है। उस बेहोशी का प्रोडक्ट नशा था और हमने नशेड़ी पंजाब पैदा कर लिया। हम डिप्रैशन में चले गए। अब भी यदि परिवारवाद से ऊपर उठकर लोकतांत्रिक मूल्य न अपनाए, अपने विद्याॢथयों को राजनीतिक समझ वाला न बनाया तो पंजाब और अधिक सामाजिक पतन की ओर ही जाएगा। इसके विकास की वाहक राजनीतिक समझ ने ही बनना है। 

कृषि के निजी लाभ सामाजिक लागत के सामने नगण्य: गत लम्बे समय से सांसद धर्मवीर गांधी अफीम की खेती की रट लगाए बैठे हैं। वह बार-बार पंजाब को खेती संकट से बाहर निकालने का माध्यम  अफीम की खेती ही बता रहे हैं। मगर ऐसा सोचते समय वह यह बात  भूल जाते हैं कि ऐसी खेती के ‘सामाजिक लाभ’ ‘सामाजिक लागत’ के सामने नगण्य हैं। कौन नहीं जानता कि अफगानिस्तान में अफीम की खेती ने कैसे बिगड़ाव पैदा किए, कैसे बचपन भी इस दौड़ में बह गया। यह भी कौन नहीं जानता कि इस खेती से जो पदार्थ पैदा होते हैं, उनको माफिया के हत्थे ही चढऩा है, उसके सामाजिक ढांचे पर जो प्रभाव पडऩे हैं, उनका अंदाजा लगाते ही दिल दहल जाता है। 

धर्मवीर गांधी यह दलील भी देते हैं कि यह खेती राज्य के नियंत्रण में रहेगी। मान लिया, मगर राज्य का इस तरह का नियंत्रण पहले रेत, खनन पर है, क्या उसके इतिहास से वाकिफ नहीं? अफीम की खेती के समय वे लोग कैसे दूध के धुले बन जाएंगे जो बननी ही अपराधों का आधार है। हम यह नहीं कहते कि पंजाब का कृषि क्षेत्र संकट में नहीं है और इसका उभार नहीं होना चाहिए। हम यह कहते हैं कि वैकल्पिक सुझाव जो भी हों, वे सामाजिक बलि लेने वाले न हों। ये लोग एग्रो प्रोसैसिंग यूनिट लगाए जाने की मांग क्यों नहीं करते? क्यों नहीं अधिक से अधिक स्टोरेज के प्रबंध की बात करते, जिससे सब्जियां आदि स्टोर की जा सकें? इससे हमारे छोटे तथा मंझोले किसानों को अधिक लाभ होगा। इस तरह हम अपराधों पर भी काबू पा सकते हैं, रिश्वतखोरी पर भी रोक लगेगी, एक अच्छे समाज की भी आशा की जा सकती है। 

पंजाब 35 तरह की दालों की कृषि करने वाला राज्य रहा है, ये उस ओर  ध्यान क्यों नहीं देते? विशेषज्ञों का तो यह भी कहना है कि अफीम की खेती धरती की गुणवत्ता के लिए भी घातक होती है। हम पहले ही हरित क्रांति के नाम पर अपनी धरती को बंजर कर चुके हैं, भूमिगत पानी की तंगी भी डकार चुके हैं। अब गांधी के साथ हमारे स्थानीय निकाय मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने भी अफीम की खेती का राग अलापना शुरू कर दिया है। वह तो इस संंबंधी कोई ठोस दलील भी नहीं दे रहे बल्कि अफीम के नशे के फायदे ही गिना रहे हैं। उनसे बेनती है कि पंजाब पर कृपा करो, पहले ही ‘उड़ता पंजाब’ काबू में नहीं आ रहा। 

पंजाब की दलित राजनीति में दरार के आसार: बसपा सुप्रीमो मायावती के राज्यों की राजनीति में किसी भी गठजोड़ से इंकार करने से दलित राजनीति के कई स्तम्भ हिल गए हैं। पंजाब में भी इस खबर का असर राजनीतिक हलकों में भूकम्प के झटके की तरह है। इधर-उधर से कई स्वर उभरने लगे हैं। बहुत से टकसाली बसपाइयों ने इस निर्णय के विरोध में दलीलें भी देनी शुरू कर दी हैं। पंजाब में इस बात के उदाहरण हैं कि यहां के दलित नेतृत्व ने हमेशा ही गठजोड़ की राजनीति का समर्थन किया है। 

यह भी उदाहरण मौजूद है कि यदि सतनाम कैंथ, पवन कुमार टीनू, अविनाश चंद्र या किसी अन्य बड़े दलित नेता को बसपा से बाहर का रास्ता देखना पड़ा तो वह भी इस गठजोड़ की राजनीति के समर्थन तथा मायावती के ‘अकेले’ वाले फैसले का विरोध ही बना था। उनको बसपा से बाहर निकालते समय कोई दलील भी नहीं दी गई थी। हाल ही के नवीनतम ब्लाक समिति तथा जिला परिषद के चुनाव परिणामों में भी यदि बसपा ने पंजाब में कुछ उभार दिखाया है तो वह भी गठजोड़ के कारण ही है। पंजाब की दलित राजनीति में स्वर अधिकतर बागी ही रहे हैं और मायावती के नवीनतम निर्णय का भी कोई स्वागत किए जाने की आशा नहीं है। यदि इनकी सामूहिक समझ पर ङ्क्षचतन भी किया जाए तो भी इसको कोई भरपूर समर्थन मिलता दिखाई नहीं देता।-देसराज काली (हरफ-हकीकी)

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