किस ओर जा रहा है पश्चिम बंगाल

Edited By ,Updated: 11 Jun, 2019 12:32 AM

which side is going west bengal

तृणमूल तथा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच हो रहे झगड़े पश्चिम बंगाल की शांति में खलल डाल रहे हैं। ममता बनर्जी ने सभी राजनीतिक विजय रैलियों पर प्रतिबंध की घोषणा की है। बड़ी संख्या में तृणमूल पार्षद भाजपा में शामिल हो रहे हैं। विशेष तौर पर ऐसा...

तृणमूल तथा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच हो रहे झगड़े पश्चिम बंगाल की शांति में खलल डाल रहे हैं। ममता बनर्जी ने सभी राजनीतिक विजय रैलियों पर प्रतिबंध की घोषणा की है। बड़ी संख्या में तृणमूल पार्षद भाजपा में शामिल हो रहे हैं। विशेष तौर पर ऐसा बैरकपुर तथा दार्जिलिंग संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में हुआ है। खतरे को भांपते हुए ममता बनर्जी ने चुनाव रणनीति विशेषज्ञ प्रशांत किशोर को 2020 में नगर निगम तथा 2021 के विधानसभा चुनावों में तृणमूल की विजय सुनिश्चित करने के लिए हर तरह के हथकंडे पर काम करने हेतु नियुक्त किया है।

पहले तृणमूल का मुख्य विरोधी वाम मोर्चा था। यह 2011 से पश्चिम बंगाल में सभी चुनावों में बुरी तरह से पराजित हुआ है। गत संसदीय चुनावों में माकपा एक भी सीट नहीं जीत सकी थी। इसकी मत हिस्सेदारी 27 प्रतिशत से कम होकर 7 प्रतिशत पर आ गई। वाम समर्थक अधिकतर वोटें हैरानीजनक रूप से भाजपा उम्मीदवारों को चली गईं। यहां तक कि कांग्रेस भी महज 2 सीटें जीत सकी। सीटों के बंटवारे को लेकर मतभेदों के कारण वामदलों तथा कांग्रेस के बीच गठबंधन काम नहीं आ सका।
 
मुकुल रॉय का जाना
भाजपा के लिए कांग्रेस, माकपा तथा तृणमूल धुर विरोधी हैं। भाजपा ने गत तीन वर्षों के दौरान पश्चिम बंगाल में महत्व हासिल करना शुरू किया। यह स्थिति मुकुल रॉय के तृणमूल छोड़कर भाजपा में शामिल होने के बाद बनी। भीतरी सूत्रों ने खुलासा किया है कि भाजपा बहुत से तृणमूल कार्यकर्ताओं को भगवा पार्टी में शामिल होने के लिए लुभा रही है। तृणमूल नेतृत्व का आरोप है कि भाजपा बहुत सारा धन देकर इसके सदस्यों को खरीद रही है।

2016 के विधानसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत से विजय के पश्चात तृणमूल ने बहुत से कांग्रेस तथा वाम मोर्चा कार्यकर्ताओं को सत्ताधारी पार्टी में शामिल करने का रुझान शुरू किया। बहुत से कांग्रेस विधायक तृणमूल में शामिल हो गए। ऐसा ही कांग्रेस तथा वामदलों से निचले स्तर के कार्यकर्ताओं ने भी किया। राजनीतिक विश्लेषक तृणमूल के नेताओं के 
भाजपा में जाने को इसकी पूर्ववर्ती गतिविधियों का उलटा असर मानते हैं।

 
2018 के पंचायत चुनावों के दौरान खूनी ​हिंसा, तृणमूल के विभिन्न धड़ों में आंतरिक लड़ाई, राज्य सरकार के कर्मचारियों को समय पर महंगाई भत्ते की अदायगी न होना तथा परिवहन से संबंंधित लोगों को पुलिस द्वारा परेशान करने की घटनाओं में वृद्धि ने लोगों की राय को काफी हद तक तृणमूल के खिलाफ कर दिया। बहुत से उत्साही कार्यकर्ता, जिन पर ममता बनर्जी को विश्वास था, वांछित परिणाम हासिल नहीं कर सके। सबसे बढ़कर यह भावना कि ममता की केवल उपस्थिति ही लोगों के दिलों को जीत लेगी, मुख्यमंत्री की सोच के लिए गलत थी। 

ममता ने काफी काम किया
फिर भी तथ्यों को देखते हुए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ममता बनर्जी ने अपने राज्य के विकास के लिए काफी काम किया है। कार्यों का निरीक्षण करने के लिए उन्होंने दिन-रात बिना थके राज्य के हर कोने तक यात्रा की, रैलियों को सम्बोधित किया और सुधारों पर ध्यान केन्द्रित किया। उनकी साबुज साथी, कन्याश्री, चिराश्री परियोजनाओं को काफी स्वीकार्यता मिली। बिजली तथा पानी अब राज्य के लगभग सभी हिस्सों में उपलब्ध है। तंतुजा तथा मंजुशा जैसी बीमार सरकारी योजनाएं अब लाभ दे रही हैं। बंगाल ग्लोबल बिजनैस सम्मिट्स के माध्यम से बहुत से राष्ट्रीय तथा विदेशी निवेश आए हैं।

ममता बनर्जी द्वारा शुरू की गई कुछ योजनाओं को संयुक्त राष्ट्र से भी सराहना प्राप्त हुई। उन्होंने सुनिश्चित किया है कि सड़क परिवहन, उपमार्ग तथा सरकारी अस्पताल सुचारू रूप से चलें। फिर भी कभी हार न मानने वाली तृणमूल सुप्रीमो इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकतीं कि वह बहुत-सी स्थितियों पर से नियंत्रण खो रही हैं। सबसे बड़ा झटका उन्हें तब लगा था जब भाजपा ने सिंगूर में विजय प्राप्त की। एक दशक पूर्व माकपा द्वारा उद्योगों के लिए जबरन भू-अधिग्रहण के विरोध में ममता बनर्जी द्वारा किए गए आंदोलन ने उन्हें तथा तृणमूल को राज्य में सत्ता में पहुंचा दिया। अब सिंगूर में बंजर भूमि न तो उद्योगों और न ही कृषि के लिए उपयुक्त है। 

झगड़े का अंत नहीं
यहां चुनावों के बाद भी केन्द्र तथा राज्य के बीच झगड़े का कोई अंत दिखाई नहीं देता। ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 15 जून को बुलाई मुख्यमंत्रियों की नीति आयोग की बैठक में शामिल होने से इंकार कर दिया। प्रधानमंत्री को लिखे अढ़ाई पृष्ठों के एक पत्र में उन्होंने कहा है कि बैठक में शामिल होने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि नीति आयोग के पास बहुत कम वित्तीय शक्तियां हैं और राज्यों को इससे कोई लाभ नहीं होगा। इससे पहले भी वह अरविंद केजरीवाल, के. चंद्रशेखर राव, चंद्रबाबू नायडू तथा एच.डी. कुमारस्वामी के साथ नीति आयोग की बैठकों से अनुपस्थित रही हैं।
 
ममता बनर्जी पाखंडी नहीं हैं। वह अपने मन की बात कहती हैं और अपनी भावनाएं व्यक्त करने में काफी मुखर हैं। फिर भी उन्हें यह समझना चाहिए कि सड़कछाप लड़ाई वाले अडिय़ल स्वभाव से उन्हें अपने लक्ष्य हासिल करने में मदद नहीं मिलेगी। अपने राज्य के विकास हेतु वांछित परिणाम पाने के लिए उन्हें ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की तरह अधिक कूटनीतिक तथा बाध्यकारी होना होगा। केन्द्र के साथ बेहतर समझ तथा संबंधों की अत्यंत जरूरत है। इस बात को भारत चैम्बर आफ कामर्स ने राज्य के औद्योगिक विकास की प्रासंगिकता को लेकर रेखांकित किया है। दीदी से अभी भी लोग प्रेम करते हैं। लेकिन संकटों से पार पाने के लिए अब उन्हें दिल की बजाय अपने दिमाग से अधिक सोचने की जरूरत है। 
रंजन दास गुप्ता  ranjandasgupta6@gmail.com

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