Edited By ,Updated: 06 Aug, 2022 04:51 AM
भारत के सिवाय दुनिया में शायद ही ऐसा कोई देश होगा जहां के समाज के मन में हम कौन हैं? हमारे पुरखे कौन थे? हमारा इतिहास क्या रहा है? के बारे में कोई सम्भ्रम या भिन्न-भिन्न मत
भारत के सिवाय दुनिया में शायद ही ऐसा कोई देश होगा जहां के समाज के मन में हम कौन हैं? हमारे पुरखे कौन थे? हमारा इतिहास क्या रहा है? के बारे में कोई सम्भ्रम या भिन्न-भिन्न मत होंगे। पर भारत में, जो दुनिया का सबसे प्राचीन राष्ट्र है और जहां सबसे समृद्ध समाज रहने के बावजूद हमारी इस विषय पर सहमति नहीं है। इसका एकमात्र कारण यही दिखता है कि हम एक समाज और एक राष्ट्र के नाते अपने ‘स्व’ को पहचानना और उसे आत्मसात् करना नहीं चाहते। कुछ उदाहरण देखें-
एक सामाजिक चिंतक के अनुसार ‘‘जब तक एक समाज के नाते हम कौन हैं यह हम तय नहीं करते, हम अपनी दिशा और प्राथमिकताएं तय नहीं कर सकते।’’ यही अंतर है भारत और इन देशों की विकास यात्रा में, जोकि करीब एक साथ ही शुरू हुई थीं।
अपने ‘स्वदेशी समाज’ इस ऐतिहासिक निबंध में गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर लिखते हैं कि ‘‘हमें सबसे पहले हम जो हैं वह बनना पड़ेगा।’’ यह अद्भुत संयोग ही है कि आज जब हमारा देश स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाने जा रहा है तब एक ऐसा कालखंड आया है जब एक राष्ट्र के नाते भारत अपने ‘स्व’ के आधार पर अपनी एक नई पहचान बनाने के लिए प्रयासरत है-परंतु इसका भी विरोध क्यों होता है इस पर विचार होना चाहिए।
भारत के आधुनिक इतिहास में हमें दिखता है कि भारत की यह पहचान, भारत का यह ‘स्व’ जो सदियों पुराना है, सर्वविदित है, सुस्पष्ट है उसे ही नकारा गया। इसे नकारने को लिबरल कहलाने का फैशन चल पड़ा। स्पष्ट दिखता है कि भारत ने चूंकि अपनी विकास यात्रा की दिशा अपने ‘स्व’ के आलोक में तय नहीं की इसलिए भारत का उसकी क्षमता के आधार पर जितना विकास अब तक होना चाहिए था वह हम नहीं कर सके। भारत के इस ‘स्व’ के प्रकट होने के कई अवसर आए परंतु दुर्भाग्य से उन्हें लगातार नकारा गया।
हम जानते हैं कि 1905 में बंगाल के विभाजन के विरुद्ध हुए जन आंदोलन का उद्घोष ‘वन्दे मातरम’ गीत बना था। ‘वन्दे मातरम’ ने हजारों युवकों को, क्रांतिकारियों को स्वाधीनता के आंदोलन में कूदने की, देश पर मर मिटने की प्रेरणा दी। ‘वन्दे मातरम’ भारत के ‘स्व’ का सहज प्रस्फुटन था। कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशनों में इसका गौरवपूर्ण गान होता था। पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जैसे दिग्गज गायक इसे स्वरबद्ध कर कांग्रेस के अधिवेशनों में गाते थे। हिंदू- मुसलमान सभी इससे समान रूप से प्रेरणा पाते थे।
फिर अचानक 1921 से यह केवल हिंदुओं का गीत और साम्प्रदायिक कैसे हो गया? इसके पीछे की मानसिकता को समझना आवश्यक है।1905 से 15 वर्षों तक जो देशभक्ति का स्वाभाविक प्रस्फुटन था वह अचानक साम्प्रदायिक कहकर कैसे और क्यों नकारा गया, यह समझना आवश्यक है। एक और उदाहरण देखें। स्वतंत्र भारत के ध्वज का सर्वप्रथम नमूना विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने 1905 में बनाया। दधीचि ऋषि के तपस्वी देहत्याग से बना वज्र चिह्न अंकित ध्वज उन्होंने बनाया। पर आगे वह लिखती हैं,1906 के कांग्रेस अधिवेशन में भगवे कपड़े पर पीला वज्र चिह्न ऐसा ध्वज प्रदर्शित हुआ था। इसके पश्चात विविध ध्वजों के विभिन्न नमूने प्रस्तावित हुए।
1921 में भारत के सभी समुदायों का प्रातिनिधिक चरखांकित - तिरंगा ध्वज बनाया गया। 1929 में मास्टर तारा सिंह के नेतृत्व में एक सिख प्रतिनिधिमंडल महात्मा गांधी जी से मिला और उन्होंने अलग-अलग समुदायों के प्रातिनिधिक ध्वज की कल्पना का विरोध किया और सभी के बीच रही एकता को दर्शाने वाला राष्ट्रीय ध्वज बनाने पर जोर दिया और कहा यदि अलग-अलग समुदाय के प्रतिनिधित्व का ही विचार करना है तो सिख समुदाय का पीला रंग ध्वज में जोड़ा जाए। इस पर समग्र विचार कर सुझाव देने के लिए कांग्रेस कार्यकारी समिति ने एक ध्वज समिति का गठन किया। इसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, मास्टर तारा सिंह, पट्टाभि सीतारामैया(संयोजक), काका कालेलकर और डॉक्टर हार्डीकर थे। ध्वज समिति ने राज्य कांग्रेस समिति और सामान्य व्यक्तियों से प्रचलित राष्ट्रीय ध्वज के लिए आपत्ति और सुझाव मांगे।
सबकी बातें सुनकर ध्वज समिति का सर्वसम्मत निर्णय रहा कि ‘भारत का ध्वज विशिष्ट कलात्मक हो। यह सर्वानुमति से तय किया गया कि वह एक ही रंग का हो। और यदि कोई एक रंग जो सबसे विशिष्ट है, जो सभी भारतवासियों को समान रूप से स्वीकार्य है और जो भारत जैसे प्राचीन राष्ट्र के साथ दीर्घकाल से जुड़ा है वह भगवा या केसरी रंग है इसलिए आयताकार भगवा कपड़े पर नीले रंग में चरखा यह भारत का ध्वज होगा। यह निर्णय ध्वज समिति ने सर्वानुमति से लिया। यह निर्णय क्यों नहीं स्वीकार हुआ? वह कौन सी मानसिकता थी जिसने भारत का यह स्वाभाविक और सुविचारित ‘स्व’ नकारा? यह तथ्य भी विचार करने योग्य है।
1947 में स्वाधीनता के पश्चात संविधान द्वारा समृद्धि, शांति और पराक्रम को दर्शाता धर्मचक्रांकित तिरंगा हमारा राष्ट्रध्वज स्वीकारा गया। यह हमारा राष्ट्रध्वज है। उसका सम्मान तथा संरक्षण करना और अपने कत्र्तव्य से उसका गौरव बढ़ाना हम सभी भारतीयों का कत्र्तव्य है। यह निर्विवाद सत्य है। लोकसभा, राज्यसभा, उच्चतम न्यायालय, राष्ट्रध्वज जैसे प्रमुख स्थानों पर जिस ‘धर्म’ का स्पष्ट महत्वपूर्ण उल्लेख है उस ‘धर्म’ की कहीं कोई चर्चा नहीं है। बल्कि धर्म की बात करना साम्प्रदायिक (कम्युनल) माना जाने लगा है। भारत का ‘स्व’ पूर्णार्थ से, अपने पुरुषार्थ से पूर्ण प्रकाशमान होगा तभी भारत अपने स्व-गौरव के साथ मजबूती से अपना वैश्विक कत्र्तव्यपूर्ण करने के लिए तत्पर होगा।-मनमोहन वैद्य (सह सरकार्यवाह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ)